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ऐनी आपा ने बुर्का पहनने की शर्त पर नहीं लिया एएमयू में दाखिला Aligarh news

ऐनी आपा ही थीं जिन्होंने बुर्का पहनने की शर्त पर एएमयू में परास्नातक की पढ़ाई करने से इंकार कर दिया। वे महिलाओं के प्रति रूढ़ियों व कट्टरपंथी विचारों की विरोधी थीं।

By Parul RawatEdited By: Published: Fri, 21 Aug 2020 09:19 AM (IST)Updated: Fri, 21 Aug 2020 05:37 PM (IST)
ऐनी आपा ने बुर्का पहनने की शर्त पर नहीं लिया एएमयू में दाखिला Aligarh news
ऐनी आपा ने बुर्का पहनने की शर्त पर नहीं लिया एएमयू में दाखिला Aligarh news

अलीगढ़ [विनोद भारती]।  मुस्लिम महिलाओं पर पाबंदियों की विरोधी व  सांझी  संस्कृति की संवाहक  कुर्रतुल  ऐन हैदर का नाम अमृता प्रीतम व इस्मत चुगताई जैसी  उपन्यासकारों  के साथ बेहद सम्मान से लिया जाता है। यह गौरव की बात है कि पद्मश्री, पद्मभूषण, साहित्य अकादमी व ज्ञानपीठ समेत अनेक पुरस्कारों व  सम्मानों  से नवाजी गईं हैदर का जन्म अलीगढ़ में ही हुआ और यहीं से लेखन यात्रा शुरू हुई।  ऐनी  आपा ही थीं, जिन्होंने बुर्का पहनने की शर्त पर एएमयू में  परास्नातक  की पढ़ाई करने से इंकार कर दिया। वे महिलाओं के प्रति  रूढ़ियों  व कट्टरपंथी विचारों की विरोधी थीं। कुर्रतुलऐन  हैदर का जन्म 20 जनवरी 1927 को एएमयू के पुराने रजिस्ट्रार हाउस में हुआ। वालिद सज्जाद हैदर  अलदरम  एएमयू के पहले रजिस्ट्रार व  बड़े  उर्दू लेखक थे। मां नजर सज्जाद हैदर व नानी अकबरी बेगम भी उर्दू लेखिका थीं। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. प्रेमकुमार ने ऐना आपा का भी साक्षात्कार लिया, जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। वे बताते हैं कि एक साक्षात्कार में  ऐनी  आपा ने बताया कि कक्षा पांच में दाखिल हुईं तो उस्तानी ने सिर पर दुपट्टा डालने को कहा। वह अकेली फ्रॉक में थीं। घर आकर वालिद से कह दिया कि यहां नहीं पढ़ूंगी। हाईस्कूल व इंटर के बाद वालिद ने लखनऊ भेज दिया। वापस आईं और एमए के लिए पुन: एएमयू में दाखिला लिया, मगर यहां बुर्का पहनने की शर्त थी। उन्होंने बताया कि मेरी मां ने ही 1920 में पर्दा करना  छोड़  दिया था तो मैं क्या बुर्का पहनती, इसलिए वापस लखनऊ चली गईं।  ऐनी  आपा बहादुर महिला थीं। उन्हें दुनिया भर में शोहरत मिलीं। दो बार साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री, पद्मभूषण, मिर्जा गालिब, ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजी गईं। उनका उपन्यास  'आग  का  दरिया'  काफी चर्चित रहा।

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17 साल की उम्र में ही कहानी  संग्रह:  उतार-चढ़ाव के साथ साहित्यिक सफर छह वर्ष की आयु में पहली कहानी लिखी।  'बी   चुहिया'  उनकी पहली प्रकाशित कहानी थी। 17-18 साल की उम्र में कहानी संकलन शीशे का घर सामने आया। 19 वर्ष की उम्र में पहला उपन्यास  'शीशे  के  घर'  लिखा। 20 वर्ष की उम्र में मुल्क का बंटवारा देखा। पिता की मौत के बाद भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान चली गईं। बंटवारे की टीस मन में लेकर 1949 में लंदन चली गईं। वहां स्वतंत्र लेखक व पत्रकार के रूप में बीबीसी लंदन से जुड़ीं।  दि  टेलीग्राफ की रिपोर्टर व  इम्प्रिंट  पत्रिका की प्रबंध संपादक भी रहीं। कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज आदि लिखकर सुर्खियां बटोरीं। शादी नहीं की। 1956 में भारत भ्रमण पर आईं और फिर यही मुंबई बस गईं। नोएडा को अपना अंतिम बसेरा बनाया। 21 अगस्त 2007 में निधन हुआ।


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