है कोई जानलेवा बीमारी से पीडि़त इन बच्चों का मददगार, पढ़ें दिल झकझौर देने वाली ये खबर Agra News
मरने की इजाजत नहीं बीमारी से जीते जी नर्क भोग रहा है थैलेसीमिया पीडि़त परिवार। बोन मैरो ट्रांसप्लांट ही है आखिरी इलाज महंगे उपचार के लिए कोई नहीं मिला मददगार।
आगरा, जेएनएन। यह एक परिवार की ऐसी दर्दनाक दास्तान है कि जिसे बयां करने को शब्द भी कम पड़ जाएं। लगभग लाइलाज मानी जाने वाली बीमारी थैलेसीमिया से पीडि़त तीन मासूम और इलाज में अपना सबकुछ गंवा चुके उनके मां-बाप। हर माह मासूमों की तकलीफ कम करने को भीख मांगने की नौबत। गरीबी की मजबूरी ऐसी कि बच्चे पल-पल तड़पते हैं और उन्हें देखकर माता-पिता तिल-तिल मर रहे हैं। अफसरों से लेकर माननीयों तक कोई ऐसा दरवाजा नहीं, जो पीडि़त पिता ने नहीं खटखटाया। परंतु मदद के नाम पर मिला तो फौरी इलाज के लिए चंद रुपये या फिर आश्वासन और चिठ्ठियां। बोन मैरो जैसे महंगे इलाज का इंतजाम कोई नहीं कर सका।
मैनपुरी के विकास खंड किशनी के गांव कत्तरा निवासी शिववीर गुजरात में रहकर सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करते थे। दिसंबर 2016 में घर लौटे तो बेटी करिश्मा (8) की तबियत ज्यादा खराब हो गई। 26 दिसंबर 2016 को जांच कराई तो पता चला कि बेटी थैलेसीमिया की बीमारी है। बेटी का इलाज बमुश्किल करा रहे थे कि अचानक बेटा दिव्यांशु (6) को भी थैलेसीमिया हो गया। जो भी कमाया, इलाज में खर्च हो गया। जमीन से लेकर सब कुछ बिक गया। फिर पिछले साल तीसरी बेटी राधा (ढाई साल) भी इस बीमारी की चपेट में आ गई।
इलाज के लिए शिववीर ने सीएमओ, डीएम से गुहार लगाई। इसके बाद जिला अस्पताल में खून बदलवाने की व्यवस्था की गई। यहां से असंतुष्टि जताने पर शिववीर को सैफई मेडिकल कॉलेज के लिए रैफर लैटर के साथ भेजा गया। तबसे लगातार यह व्यवस्था चल रही है। शिववीर के मुताबिक खून तो निश्शुल्क मिल जाता है, परंतु इलाज के लिए इंजेक्शन आदि उससे बाहर से मंगवाए जाते हैं। इसका करीब 10 से 15 हजार रुपये खर्च आता है, यह भी वह वहन करने की स्थिति में नहीं है। शिववीर के बोन मैरो ट्रांसप्लांट के लिए आर्थिक मदद दिलाने की मांग करने पर पूर्व में डीएम और सीएमओ ने उससे इलाज का एस्टीमेट उपलब्ध कराने को कहा था, परंतु वह अब तक यह एस्टीमेट बनवाकर नहीं ला रहा है।
सीएमओ डॉ. एके पांडेय ने बताया कि इलाज को एस्टीमेट मिलने पर आर्थिक मदद के लिए नियमानुसार प्रयास किया जाएगा। तब तक बच्चों के इलाज के लिए मदद की जा रही है। जिला अस्पताल में भी सुविधा उपलब्ध है। मामले में शिववीर ने बताया कि उसके सामने खून चढ़ाने के दौरान आने वाले खर्च का संकट है। बोन मैरो ही इलाज है, इसके लिए कोई प्रयास नहीं कर रहा। अब वह गुरुवार को डीएम से मुलाकात करेगा।
लखनऊ-दिल्ली से बनेगा एस्टीमेट
बोनमैरो ट्रांसप्लांट देश में चुनिंदा जगहों पर ही संभव है। सीएमओ ने बताया के उन्होंने शिववीर को लखनऊ और दिल्ली दोनों जगह का पता और नंबर दिए थे। वहां फोन भी कर दिया गया था, परंतु वह बच्चों को लेकर वहां गया ही नहीं। बिना एस्टीमेट बने आर्थिक मदद कैसे मुहैया कराई जा सकती है?
महंगा और जोखिम भरा है ट्रांसप्लांट
बोन मैरो ट्रांसप्लांट आसान नहीं है। इस पर करीब 25 लाख रुपये का खर्च आता है। इसमें मृत्युदर 50 फीसद तक रहती है। ट्रांसप्लांट के बाद रोगी को काफी समय तक अस्पताल में रहना होता है और महीनों तक सावधानी बरतनी पड़ती है।
दर्दनाक कहानी
- दिसंबर 2016 में आठ वर्षीय बेटी करिश्मा को थैलेसीमिया होने की जानकारी मिली।
- करिश्मा के इलाज कराते रहे, दो माह बाद बेटे दिव्यांशु को भी थैलेसीमिया हो गया।
- दोनों बच्चों के इलाज का बोझ बमुश्किल उठाया, तब तक तीसरी बेटी राधा भी बीमारी की चपेट में आ गई।
- गुजरात में नौकरी छोड़कर आया पिता जमीन बेच चुका है, घर भी गिरवी है।
- 22 जुलाई 2019 को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को खून से पत्र लिखा।
- दो सितंबर को बीमार बच्चों संग माता-पिता ने आत्मदाह की कोशिश की।
- 25 दिसंबर 2019 से मां-बाप इलाज के लिए भीख मांग रहे हैं।
यह होता है थैलेसीमिया
दो तरह का होता है थैलेसीमिया
मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. मुकेश वत्स ने बताया कि थैलेसीमिया दो तरह का होता है, माइनर व मेजर। माइनर को ट्रेड यानी वाहक कहते हैं। इनके हीमोग्लोबिन का स्तर 10 एमजी रहता है, इन्हें ब्लड चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती। ध्यान रहे अगर माता-पिता दोनों माइनर थैलेसीमिया से पीडि़त हैं तो बच्चे के मेजर थैलेसीमिया हो सकता है।
हार्ट अटैक का रहता खतरा
मेजर थैलेसीमिया से पीडि़त बच्चों का ठीक से इलाज न होने पर हार्ट अटैक का खतरा रहता है। बार-बार रक्त चढ़ाने से शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ जाती है। जिससे हार्ट और लिवर में नुकसान पहुंचता है। ऐसे में इनकी उम्र 12-15 वर्ष होती है। सही देखभाल और इलाज से 25 वर्ष से अधिक वर्ष तक जीवित रहते हैं। इसका पूर्ण इलाज बोन मेरो ट्रांसप्लांट और स्टेम सेल ट्रांसप्लांट से संभव है, जो काफी महंगा है।
यह होते हैं लक्षण
खून की कमी, शरीर पीला पडऩा, पीलिया जैसा दिखना, भूख न लगना, थकान महसूस होना, चिड़चिड़ापन, शारीरिक विकास न होना, चेहरे की हड्डियां विकृत होना, चेहरा सूखा लगना, सांस लेने में तकलीफ।
बोनमैरो ट्रांसप्लांट से ही इलाज संभव
थैलेसीमिया से पीडि़त बच्चों का स्थायी इलाज बोनमैरो ट्रांसप्लांट है। इसके लिए बोनमैरो डोनर की जरूरत होती है। परिवार के सदस्य भाई-बहन सबसे अच्छे डोनर होते हैं। इसमें 10 से लेकर 15 लाख रुपये का खर्च आता है। बोन मैरो ट्रांसप्लांट की सुविधा देश के कुछ चुनिंदा अस्पताल एम्स दिल्ली, एसजीपीजीआइ लखनऊ, संवाई मानसिंह हॉस्पीटल जयपुर में ही संभव है।