Ram Mandir Ayodhya: पूरी हुई तपस्या, संघर्ष को मिली अब जाकर मिली मंजिल
Ram Mandir Ayodhya राम मंदिर आंदोलन के दौरान सेंट्रल जेल के पास स्थित सीता राम मंदिर हर उन पलों का गवाह है जब मंदिर निर्माण के लिए हर कोई आहुति देने को तैयार दिखा।
आगरा, राजीव शर्मा। मैं सीता राम मंदिर...नगला अजीता का वही सीता राम मंदिर, जिसके आंगन में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण आंदोलन ने अंगड़ाई ली। मैं साक्षी हूं, उस राम लहर का, जिसमें क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या बच्चा और क्या महिला, हर कोई डूबकी लगाने को आतुर था। हर जुबां पर राम नाम था, हर आंख में मंदिर निर्माण का सपना। मैंने भी उन लाखों-करोड़ों रामभक्तों की तरह से वर्षों अपने अराध्य के मंदिर निर्माण का सपना अपनी आंखों में पाला। मगर, न मैंने और रामभक्तों ने उम्मीद नहीं छोड़ी। देर से ही सही, हम सबके राम का आंगन आबाद होने को है। जिस मंदिर निर्माण की नींव के लिए सैकड़ों कारसेवकों ने अपना खून-पसीना बहाया, उनकी तपस्या पूरी हो गई। उनके संघर्ष को मंजिल मिल गई।
मैं सीता राम मंदिर, वर्ष 1985 से 1992 तक चले अयोध्या आंदोलन का मैं भी एक गवाह हूं। कोरोना संक्रमण की वजह से मैं काफी दिनों से तन्हा था। मेरे द्वार पर किसी ने दस्तक नहीं दी। मगर, अयोध्या में जब श्रीराम मंदिर के निर्माण का शिलान्यास हुआ तो कुछ मेरे पुराने रामभक्तों ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। कई दिनों का सन्नाटा दूर हुआ। शायद वह शुक्रिया अदा करने आए थे, उस आंदोलन में मेरी भूमिका के लिए। मुझे याद है कि वर्ष 1985 में जब राम-जानकी रथ आया था। मेरे ही दहलीज पर रात को रुका था। तब सैकड़ों रामभक्त आए थे, इस रथ के साथ। पूरे जोश के साथ इसका स्वागत हुआ था। वर्ष 1990 में जब कारसेवकों पर सख्ती की गई, उसका भी मैं गवाह रहा हूं। इस अांदोलन में कारसेवकों की सेवा का मैं प्रमुख केंद्र रहा हूं। मुझे याद है कि कोसों पैदल चलकर अयोध्या जाने वाले कारसेवकों को जब आगरा में ही रोक दिया गया तो मुझसे थोड़ी दूर बनी अस्थायी जेल में ही उन्हें रखा गया। तब उनके भरन-पोषण का जिम्मा मैंने ही उठाया। मेरे ही आंगन में दिन-रात भट्ठी धधकती थी। मैंने किसी कारसेवक को भूखा न सोने दिया और न ही अपने शहर से जाने दिया। ये अलग बात है कि तब मेरा प्रांगण थोड़ा छोटा था, इतना भव्य नहीं था। समय के साथ मेरी भव्यता बढ़ी और मेरा आंगन भी। पर, संतोष मुझे बुधवार को उस वक्त मिला, जब मेरे राम के मंदिर का शिलान्यास हुआ।
याद आ गई 26 नवंबर 1992 की वह जनसभा...
मैं संजय प्लेस...वही संजय प्लेस, जहां राम आंदोलन की आखिरी और भव्य जनसभा हुई थी। अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर के शिलान्यास पर जोश में उमड़ते युवाओं को देख मुझे 26 नवंबर 1992 की वह जनसभा याद आ गई, जिसमें उस वक्त न जोश का सैलाब थम रहा था और न ही इरादों का अासमान नभ रहा था। मुझे याद है कि राम नाम के हजारों दीवाने मेरे सामने जोश से भरे हुए थे। उस वक्त राम नाम के सिवाय उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था। गगनभेदी जय श्रीराम के जयकारों की गूंज से एक बार को मैं भी थर्रा गया था। तब से अब तक काफी समय बदल गया। खाली मैदान की जगह मैं दीवारों से घिर गया। राम अांदोलन की आखिरी जनसभा कराने का मुझे सौभाग्य मिला। इसी जनसभा ने सैकड़ों रामभक्तों को अयोध्या की राह दिखाई। अब मैं कॉमर्शियल हब के रूप में जाना जाता हूं। बुधवार को जब कार्यालयों और शोरूमों में लगे टीवी से आता शंखनाद मुझे सुनाई दिया तो मैं सिहर गया। समझ गया कि मेरे रामभक्तों के संघर्ष को मंजिल मिल गई है। उस दिन जैसा तो नहीं लेकिन बुधवार को फिर राम लहर दिखाई दी। सालों बाद मेरा आंगन फिर से जय श्रीराम के जयकारों से गूंजा। कामकाज में व्यस्त रहने वाले लोग थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन राम के नाम पर अपने-अपने कार्यालयों से बाहर निकले और मिठाई बांटी। कुछ ने आतिशबाजी भी की।
फिर नहीं सुने जय श्रीराम के जयकारे
मैं सेंट्रल जेल के बाहर का वह खाली मैदान, जहां मैंने 1990 में सैकड़ों कारसेवकों को पनाह दी थी। तब मुझे अस्थायी जेल का रूप दिया गया था। तब हर रोज सैकड़ों रामभक्तों को पकड़कर मेरे आंगन में छोड़ दिया जाता था। मैं भी उन हारे-थके लोगों को प्यार से आसरा देता था। मुझे याद है, क्या सुबह, क्या शाम, ऐसा कोई वक्त नहीं था, जब मैंने कानों में जय श्रीराम की मधुरवाणी न घुलती हो। एक महीने तक मेरे कानों में रामधुन रस घोलती रही। न इससे पहले और न इसके बाद, मेरे आंगन में कोई राम का नाम लेने नहीं आया। आज मैं उजाड़ पड़ा हूं। वर्तमान परिस्थति को देखकर मुझे खुद यकीन नहीं होता कि मैं अयोध्या आंदोलन का कभी प्रमुख केंद्र भी रहा हूं।