तंत्र के गणः पढ़ें आगरा के शायर नजीर के बारे में जो बन गए अपनी रचनाओं से जनकवि
तंत्र के गणः शायर नजीर से लेकर जनकवि नजीर तक का सफर। साझा संस्कृति की नजीर हैं जनकवि नजीर अकबराबादी। कृष्ण लीला से लेकर आम आदमी की रोजमर्रा की चीजों पर कविता लिखी है नजीर ने। वर्ष 1770 में दिल्ली में हुआ था जन्म आगरा को बनाया अपनी कर्मस्थली।
आगरा, अली अब्बास। जब खेली होली नंद ललन हंस हंस नंदगांव बसैयन में, नर नारी को आनंद हुए खुशवक्ती छोरी छैयन में। खड़ी बोली आधुनिक हिंदी कविता के प्रथम कवि नजीर अकबराबादी को भारतीय संस्कृति की साझी विरासत का पहला प्रतिनिधि कवि भी कहा जाता है। उन्होंने कृष्ण लीला संबंधी बहुत से पद्य हिंदी खड़ी बोली में लिखे। वहीं, ककड़ी बेचने वाले के लिए भी कविता लिखी। उन्होंने बंजारानामा, आदमीनामा, बुढ़ापा, बल्देव जी का मेला, कंस का मेला, होली आदि पर कविताएं लिखीं। लोगों की रोजरार्म की जिंदगी का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जिसे नजीर ने अपनी कविताओं में न छुआ हो। इसीलिए उन्हें जनकवि कहा जाता है।
नजीर अकबराबादी का जन्म वर्ष 1737 में दिल्ली में हुआ था। वह 22 साल की उम्र में अपनी मां और नानी के साथ आगरा आए। यहां उन्होंने अरबी एवं फारसी की शिक्षा प्राप्त की। उनकी शादी ताजगंज की मलको गली में हुई। बज्म ए नजीर के पदाधिकारी आरिफ बताते हैं 1770 में मीर तकी मीर आगरा आए। मीर तकी ने नजीर की गजल पर उन्हें शाबासी दी। जिसके बाद नजीर आगरा के शायर के नाम से मशहूर हो गए। उनका लेखन काल 1770 से 1830 का माना जाता है। उनकी शादी ताजगंज के मलको गली में हुई थी। सन 1830 में उनका निधन हो गया। उनकी मजार मलको गली में है।
आरिफ के अनुसार लगभग 90 साल पहले सुलहकुल नगरी को दंगे का दंश झेलना पड़ा। तब शहर की साझी संस्कृति और सदभावना को बचाने के लिए शहर के प्रबुद्ध लोग आगे आए। उन्होंने शहर में विशाल जुलूस निकाला। जो नजीर अकराबादी की मजार पर जाकर खत्म हुआ। लोगों ने साझी संस्कृति व विरासत को बरकरार रखने के लिए नजीर की मजार पर हर साल बसंत मेले का आयोजन करने का फैसला किया। बसंत मेले की शुरूआत अमीर खुसरो के समय से हुई थी। तब से आज तक हर साल नजीर की मजार पर बसंत मेले का आयोजन किया जाता है।
राधा-रानी और ठाकुर जी की पोशाकों को तैयार करते हैं जुबैर और नईम
शहीद नगर के रहने वाले जुबैर करीब दस साल से राधा-रानी, ठाकुर जी व हनुमान जी की पोशाकों तैयार करते हैं। जुबैर बताते हैं कि करीब दस साल पहले वह अपने दोस्त बंटी के यहां वृंदावन घूमने गए थे।वहां पोशाकों को तैयार करते देखा। जिसके बाद उन्होंने भी श्रद्धा के साथ इस काम को शुरू किया। जुबैर ने दस साल पहले अपने घर से ही पोशाकों को बनाने का काम शुरू किया। वर्तमान में उनके यहां अकील, नईम, चिरागउद्दीन समेत चार कारीगर हैं, जो इस काम को करते हैं। जुबैर बताते हैं पोशाकों को बनाते समय आस्था का विशेष ध्यान रखा जाता है। वह और सभी कारीगर नहाने के बाद ही पोशाकों को बनाने के लिए बैठते हैं। वह राधा-रानी की पोशाक, ठाकुर जी का पटका, हनुमान जी की लांग व धोती आदि तैयार करते हैं। इन पोशाकों को तैयार करने के बाद उन्हें वृंदावन के विभिन्न मंदिरों के आसपास की दुकानों में देते हैं।
आगरा में एक दर्जन परिवार बनाते हैं पोशाक
आगरा में करीब एक दर्जन मुस्लिम परिवार हैं जाे राधा-रानी की पोशाकों को बनाने का काम करते हैं। यह परिवार शहीद नगर, वजीरपुरा आदि इलाकों में रहते हैं। उनके यहां सालों से पोशाक बनाने का काम हो रहा है। यह सभी परिवार इस अपने काम को पूरी श्रद्धा व आस्था के साथ करते हैं।