Move to Jagran APP

क्‍या है नव दुर्गा रहस्य, क्‍यों की जाती है चंद्रघंटा की आराधना, आइए जानें

शक्ति के लिए भी नवरात्र में देवी का पूजन किया जाता है। तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की आराधना की जाती है।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Fri, 12 Oct 2018 03:11 PM (IST)Updated: Fri, 12 Oct 2018 05:30 PM (IST)
क्‍या है नव दुर्गा रहस्य, क्‍यों की जाती है चंद्रघंटा की आराधना, आइए जानें

आगरा, जेएनएन: ब्रह्माण्ड के मूल में, समस्त सृष्टि के मूल में और समस्त चराचर जगत के मूल में 'आदिशक्ति' है। आदिशक्ति एकमात्र परमात्म शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त और सर्वत्र क्रियाशील है अपने विभिन्न रूपों में। शक्ति का अर्थ क्या है ? कोई भी शक्ति बिना आधार या आश्रय के प्रकट नहीं हो सकती। उसे कोई न कोई आधार चाहिए प्रकट होने के लिए । जिस आधार को लेकर वह प्रकट होती है, उसे वह चंचल अथवा चैतन्य कर देती है। यही शक्ति का स्वभाव या गुण है। तंत्र में आधार को 'शिव' की संज्ञा दी गयी है। शिवशक्ति में एक जड़तत्व है और दूसरा है-चेतनतत्व। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के मूल में बस ये दो ही परम तत्व हैं जिनके संयोग से चराचर जगत की सृष्टि हुई है। लेकिन यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मूल शक्ति जिसे आदि शक्ति अथवा परमात्म शक्ति कहते हैं, वह निराकार है, अव्यक्त है। इसीलिए तंत्र ने उसे 'परमा' कहा है। उसकी परम अनुभूति योगिगण ही समाधि की अवस्था में कर पाते हैं। इसलिए उसे 'योगमाया' कहते हैं। परमशक्ति का जो व्यक्त रूप है, उसे 'परा' की संज्ञा दी गयी है। 'पराशक्ति' महामाया है। इसके गुण के आधार पर तीन रूप हैं--ब्राह्मी रूप, वैष्णवी रूप और रौद्री रूप। पहला सत्वगुण रूप है, दूसरा रजोगुण रूप है और तीसरा तमोगुण रूप है। तीनों गुणों के प्रतीक तीनों रूपों को क्रमशः परा, परा-परा और अपरा कहते हैं। पराशक्ति महामाया के गुणों और तीनों रूपों का समन्वय जिस रूप में होता है, उसे 'प्रकृति' की संज्ञा दी गयी है। प्रकृति त्रिगुणमयी है।

loksabha election banner

प्रकृति रूप में पराशक्ति महामाया अपने सत्वगुण से सृष्टि करती है, अपने रजोगुण से पालन करती है और अपने तमोगुण से सृष्टि का संहार करती है। वास्तव में पराशक्ति महामाया के ये स्वभाव हैं जो प्रकृति त्रिगुणमयी व्यक्त होती है। तंत्र की सगुणोसना भूमि में आचार्यों ने महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूपों की ओर संकेत किया है और उसे माया शब्द से संबोधित किया है।

महामाया पराशक्ति का ब्राह्मी रूप सत्वगुणी महासरस्वती है। वैष्णवी रूप रजोगुणी महालक्ष्मी है और रौद्री रूप तमोगुणी महाकाली है। मानव शरीर इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह प्रकृति प्रदत्त है और उसमे प्रकृति के तीनों गुण हैं, तीनों स्वभाव हैं और तीनों रूप हैं जिसके फलस्वरूप ब्रह्माण्ड में जितनी शक्तियां क्रियाशील हैं, वे सब भी किसी न किसी रूप में मानव शरीर में विद्यमान हैं। यही कारण है कि परब्रह्म परमेश्वर ने भी मानव शरीर का आश्रय लेकर भगवान् राम, कृष्ण, बुद्ध आदि के रूप में अपनी सर्वश्रेष्ठ लीलाएं संसार में प्रकट की। कितना महत्वपूर्ण है मानव शरीर, कितनी दुर्लभ है उसकी उपलब्धि !

सभी शक्तियों के दो रूप हैं-समष्टि और व्यष्टि। समष्टि रूप ब्रह्माण्डीय है जबकि व्यष्टिवरूप पिण्डीय है। परमात्म शक्ति ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में सब जगह व्याप्त है--'व्याप्तम येन चराचरम्'। उसीका व्यष्टि रूप 'आत्मा' है, आत्मशक्ति है जो मानव पिण्ड में चेतना के रूप में विद्यमान है। सत्वगुणी ब्राह्मी शक्ति महासरस्वती मानव पिण्ड में ज्ञान की देवी वाकदेवी--वाणी है। रजोगुणी वैष्णवी शक्ति मानव पिण्ड में महालक्ष्मी मनः शक्ति है और तमोगुणी रौद्री शक्ति मानव पिण्ड में महाकाली प्राणशक्ति है। वैदिक भाषा में इन्हें ही वाक्, मन और प्राण कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में --'mind of matter' और कहते हैं--'power', 'energy' और 'force' । वाक्शक्ति power है। मनःशक्ति energy है। इसीप्रकार प्राणशक्ति force है। इन्हीं तीनों का अभिव्यक्त रूप इच्छा, ज्ञान और क्रिया है।

मानव पिण्ड में चेतना(आत्मशक्ति) का केंद्र ह्रदय है--'चेतना हृदि संस्थिताम्'। ज्ञानशक्ति का केंद्र नाभिमंडल है। इसी स्थान पर विचार, विवेक, वैराग्य ज्ञान आदि जन्म लेते हैं।

भारत का मध्ययुग वास्तव में तांत्रिक संस्कृति और साधना का स्वर्ण युग था। इसके कई महत्वपूर्ण कारण हैं। पहला यह है कि जहाँ एक ओर लौकिक, पारलौकिक कल्याण के निमित्त शक्ति के विभिन्न रूपों से सम्बंधित भिन्न भिन्न साधना-उपासनाओं का आविर्भाव हो रहा था। वहीँ दूसरी ओर देवी को प्रसन्न करने के लिए और अभीष्ट सिद्धि के लिए 'कुमारी पूजा', 'कन्या पूजा', 'गौरी पूजा', 'भैरवी पूजा', 'योनि पूजा' आदि का आविर्भाव हुआ। साथ ही उनसे सम्बंधित अनुष्ठानों और नरबलि जैसे तमोगुणी वीभत्स कृत्यों का भी हो रहा था चलन। मांस, मदिरा आदि पंचमकारों पर आधारित कठोर, वीभत्स और तामसिक साधना-उपासना पद्धतियों का भी आविर्भाव हो रहा था।

ऐसे ही अनुकूल- प्रतिकूल स्थिति में तांत्रिक साधना-उपासना के वास्तविक स्वरुप से अवगत कराने और उसके दार्शनिक तथा आध्यात्मिक पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए तंत्राचार्यों ने आदिशक्ति के निराकार और आध्यात्मिक स्वरुप की परिकल्पना 'दुर्गा' के रूप में की। उनकी इस परिकल्पना के आधार थे--पुराण ग्रन्थ। पुराणों का आश्रय लेकर तंत्राचार्यों ने दुर्गा को दो रूप दिए। एक चतुर्भज रूप और दूसरा अष्टभुजा रूप। चतुर्भुजा दुर्गा के चार भुजाएं--साम, दाम, दंड, भेद के प्रतीक हैं। ये चारों दुर्गा के व्यवहारिक रूप के परिचायक हैं और उन्हीं के अनुसार उनकी भुजाओं में अस्त्र-शस्त्र भी हैं। इसी प्रकार अष्टभुजा दुर्गा की आठ भुजाओं में चार भुजाएं साम, दाम, दंड, भेद की प्रतीक हैं और। शेष चार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रतीक हैं। ये चारों दुर्गा के आध्यात्मिक स्वरुप के परिचायक हैं। इसी प्रकार परमात्म शक्ति योगमाया को दुर्गा की प्रतिष्ठा मिली। उनके दोनों रूपों को लौकिक और पारलौकिक सुख-शान्ति, कल्याण के आलावा भवमुक्ति की भी प्रतिष्ठा मिली। 

माँ चन्द्रघण्टा

देवी भगवती का तीसरा विग्रह चन्द्रघण्टा का है। यह स्वरुप भगवान शंकर की शक्ति का है। शिखर पर चंद्र और नाद उनकी शक्ति है। देवी को नाद प्रिय है। सृष्टि की संरचना के बाद स्वर, व्यंजना, रूप, रस, गन्ध और संगीत का प्रादुर्भाव हुआ। यही शक्ति वाग्देवी कहलायी। देवासुर संग्राम में देवी भगवती ने महिसासुर से यद्ध नाद से ही लड़ा। श्रीदुर्गा सप्तशती में नाद अर्थात् स्वरविज्ञान को देवी तत्व माना गया है। दशभुजी स्वर्गस्वरूपा माँ चन्द्रघण्टा शान्ति की प्रतीक हैं। किन्तु युद्ध के लिए उद्यत रहती हैं। असुरों का संहार करने के लिए देवी भगवती ने अपने शस्त्रों के साथ नाद का भी प्रयोग किया था। अपने इस चरित्र के माध्यम से भगवती कहती हैं कि मित्र या शत्रु कभी स्थाई नहीं रहते। हमारे मन, वचन और कर्म ही मित्र और शत्रु बनाते हैं। यही तीनों चीजें हमारे दुःख और तनाव के कारण भी होती हैं। अतः चन्द्रघण्टा देवी मन, वचन और कर्म को साधने की शिक्षा देती हैं।

इनकी उपासना मूल मन्त्र तो यही है कि हम मन, वचन और कर्म को सही दिशा में ले जाएँ। करुणा, क्षमा, शीतलता, शान्ति की शिक्षा देते हुए देवी चन्द्रघण्टा भक्तों को बैभव, वीरता एवं निर्भीकता प्रदान करती हैं। संगीत इनको प्रिय है। देवी पुराण में एसा माना गया है कि इनकी कृपा से ही जगत को स्वर और नाद प्राप्त हुआ।

चन्द्रघण्टा देवी सरस्वती का स्वरुप हैं। छात्रों, संगीत, स्वरों और साहित्य में रूचि रखने वाले को केवल एक बीज मन्त्र से आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। ब्राह्म मुहूर्त में या प्रातः 9 बजे से पहले मानसिक जप करने से फल की प्राप्ति होती है। देवी का पूजन हल्दी से करें। पीले पुष्प चढ़ायें। श्रीदुर्गा सप्तशती का एक से तीन तक अध्याय पढ़ें।

मन्त्र और ध्यान निम्न है-

                         या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता

                        नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

                        पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता

                        प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।। 

- पंडित वैभव जोशी


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.