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आजादी के गवाह: संभाली है आज भी विरासत जहां कभी गांधी और सुभाष ने भरा था जोश Agra News

आगरा शहर में गांधी स्‍मारक चुंगी मैदान नूरी दरवाजा और गोकुलपुरा जैसे क्षेत्रों में हुईं थीं स्‍वतंत्रता संग्राम की कई गतिविधियां।

By Tanu GuptaEdited By: Published: Mon, 13 Jan 2020 04:57 PM (IST)Updated: Mon, 13 Jan 2020 04:57 PM (IST)
आजादी के गवाह: संभाली है आज भी विरासत जहां कभी गांधी और सुभाष ने भरा था जोश Agra News
आजादी के गवाह: संभाली है आज भी विरासत जहां कभी गांधी और सुभाष ने भरा था जोश Agra News

आगरा, निर्लोष कुमार। जंग-ए-आजादी में जब देशभर में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन की चिंगारी ने जोर पकड़ा तो मुगलिया सल्तनत की राजधानी रहे आगरा ने भी कदमताल मिलाई। देश के प्रथम स्वातंत्रता संग्राम से लेकर वर्ष 1947 में आजादी मिलने तक यहां के असंख्य लोगों ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी। तांत्या टोपे, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जवाहर लाल नेहरू, सरदार भगत सिंह के आजादी को किए गए संघर्ष के निशां आज भी यहां मौजूद हैं। अपने गौरवशाली अतीत की यादों को करीने से संजोए है।

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गांधी स्मारक: गांधीजी ने किया था स्वास्थ्य लाभ को प्रवास

यमुना पार बेबी ताज कहे जाने वाले एत्माद्दौला के ठीक बगल में स्थित है गांधी स्मारक। यह वो स्थल है, जिसका जर्रा-जर्रा गांधीजी की स्मृतियों को संजोए है। कभी यहां बने चबूतरे पर बापू वैष्णव जन तो तेने कहिए.. गाते थे। पुस्तक ‘आगरा जनपद का राजनीतिक इतिहास’ के अनुसार गांधीजी यहां सितंबर 1929 में 11 दिन रुके थे। स्मारक पर लगे पत्थर पर अंकित विवरण के अनुसार गांधीजी ने यहां स्वास्थ्य लाभ के लिए 11 दिन के लिए ब्रजमोहन दास मेहरा की बगीची में प्रवास किया था। उनके साथ आचार्य कृपलानी, कस्तूरबा गांधी, मीरा बहन और जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती रहे थे। वर्ष 1948 में ब्रजमोहन दास मेहरा ने अपने पिता रामकृष्ण दास मेहरा की स्मृति में महात्मा गांधी स्मारक ट्रस्ट को यह स्मारक दान कर दिया था। कभी बदहाली से जूझने वाले स्मारक का एडीए द्वारा कायाकल्प कराया जा चुका है। पहले इसमें एक चौकीदार रहा करता था, लेकिन अब मुख्य द्वार पर ताला लगा हुआ है। यमुना ब्रिज रोड पर ऐसा कोई साइन बोर्ड भी नहीं लगा है, जो गांधी स्मारक के बारे में बताता हो। इससे यहां आने वाले लोगों को आजादी के गवाह रहे स्मारक की कोई जानकारी नहीं मिल पाती।

चुंगी मैदान: जहां सुभाष ने दिया सशस्त्र युद्ध का संदेश

मोतीगंज स्थित चुंगी मैदान भी जंग-ए-आजादी का गवाह रहा है। यह कई ऐतिहासिक रैलियों का साक्षी है। वर्ष 1940 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसी मैदान से अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध का संदेश दिया था। उनके नारे तुम मुङो खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा.. ने युवाओं में जोश का संचार कर दिया था। तब कांग्रेस से मतभेद के बाद उन्होंने अग्रगामी दल बना लिया था। अगस्त क्रांति के दौरान वर्ष 1942 में यहीं पर परशुराम शहीद हुए थे। नौ अगस्त, 1942 को शहर के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। 10 अगस्त को फुलट्टी बाजार से जुलूस निकाला गया। अंग्रेजों ने जोर लगाया कि मोतीगंज स्थित कचहरी में सभा नहीं हो, लेकिन जुलूस चुंगी मैदान पहुंच गया। पुलिस की फायरिंग में हाथों में तिरंगा थामे आगे बढ़ रहे नवयुवक परशुराम शहीद हो गए थे। आज यहां बहुत-सी आढ़त बनी हुई हैं, मगर जंग-ए-आजादी के गवाह रहे चुंगी मैदान के गौरवशाली अतीत के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं।

नूरी दरवाजा: यहां नाम बदलकर रहे थे सरदार भगत सिंह

शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह ने बहरी ब्रितानी सरकार को नींद से जगाने को दिल्ली की लेजिस्लेटिव असेंबली में जो बम फोड़ा था, वो आगरा में ही बना था। इसका जिक्र सरदार भगत सिंह शहीद स्मारक समिति की किताब ‘आगरा मंडल के देशभक्त शहीदों पर स्मारिका’ में मिलता है। हंिदूुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने आगरा को अपना केंद्र बनाया तो चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव ने यहां के नागरिकों में नई चेतना जगाई। वर्ष 1926 से 1929 तक शहर क्रांतिकारियों का प्रमुख केंद्र बना रहा। छद्म नामों से क्रांतिकारी नूरी दरवाजा, हींग की मंडी, नाई की मंडी में किराये पर रहे। चंद्रशेखर आजाद बलराज, भगत सिंह रणजीत, राजगुरु रघुनाथ, बटुकेश्वर दत्त मोहन बनकर यहां रहे। नूरी दरवाजा उनका प्रमुख केंद्र था। यहां आज भी वो मकान है, जो कभी क्रांतिकारियों की शरण स्थली रहा था। हालांकि, जर्जर होते भवन के संरक्षण को कोई कदम नहीं उठाया जा सका है।

गोकुलपुरा: जहां छुपे थे तांत्या टोपे

देश के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में ब्रितानी हुकूमत के छक्के छुड़ाने वाले तांत्या टोपे आगरा में गोकुलपुरा स्थित सोमेश्वरनाथ मंदिर में रुके थे। ‘आगरा जनपद का राजनीतिक इतिहास’ पुस्तक के अनुसार जब ब्रितानी हुकूमत स्वतंत्रता सेनानियों पर भारी पड़ी तो तांत्या टोपे मुगल काल में नागर ब्राrाणों द्वारा बसाए गए गोकुलपुरा में रुके थे। यह सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत था और इसके चारों ओर चहारदीवारी थी। गुजराती जानने वाले तांत्या टोपे ने अपना नाम नारायण स्वामी रखा था। वो यहां हकीम सालिगराम के यहां भिक्षा मांगने जाया करते थे। एक वर्ष तक यहां रहे तांत्या टोपे के बारे में अंग्रेजों को जानकारी मिली तो उन्हें पकड़ने के लिए धावा बोल दिया। तांत्या टोपे इससे पूर्व ही यहां से निकल गए थे। इससे खिसियाकर अंग्रेज कलक्टर डेविल ने सरकार को रिपोर्ट भेज दी कि गोकुलपुरा बागियों का मुहल्ला है। इसके बाद सरकार ने गोकुलपुरा के परकोटे को तोपों से उड़ा दिया था। जिस मंदिर में तांत्या टोपे रुके थे, वो लोगों की आस्था का केंद्र है।


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