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Holi Special: बलदेव के दाऊजी मंदिर में खेला गया हुरंगा, कपड़े के कोड़ों हुई रंगों की बरसात

ब्रज के राजा के मंदिर में हुआ अनूठा हुरंगा। 1582 से चली आ रही परंपरा। देश-विदेश से पहुंचे श्रद्धालु।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Fri, 22 Mar 2019 01:57 PM (IST)Updated: Fri, 22 Mar 2019 01:57 PM (IST)
Holi Special: बलदेव के दाऊजी मंदिर में खेला गया हुरंगा, कपड़े के कोड़ों हुई रंगों की बरसात
Holi Special: बलदेव के दाऊजी मंदिर में खेला गया हुरंगा, कपड़े के कोड़ों हुई रंगों की बरसात

आगरा, मनोज चौधरी। ब्रज की होली अपने अंतिम चरण में पहुंच चुकी है। बसंत पंचमी से शुरू हुई होली अब हुरंगा का रूप लेकर विदा हो रही है। बरसाना, नंदगांव, जन्‍मभूमि की लठामार होली, गोकुल की छड़ीमार होली, बांके बिहारी, द्वारिकाधीश मंदिर में होली के बाद शुक्रवार को बलदेव में हुरंगा खेला जा रहा है। यहां स्थित दाऊजी के मंदिर में हो रही हुरंगा की अनूठी पंरपरा का साक्षी बनने के लिए देश विदेश से हजारों भक्‍त पहुंचे हुए हैं। हर ओर बस केसरिया रंग, हुरंगा का उल्‍लास और हुरियारे हुरियारनों की मीठी नोंक झोक से सजा आस्‍था का अनोखा वातावरण अनोखे आनंद की अनुभूति दे रहा है। 

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हुरंगा आज मचौ दाऊजी मंदिर में, हुरंगा आज मचौ...की गूंज से दाऊजी मंदिर में हो रहा विश्व प्रसिद्ध हुरंगा के दौरान सम्पूर्ण परिसर इन्द्रधनुषी छटा से सतरंगी नजर आ रहा है। मंदिर में उड़ता रंग-बिरंगा गुलाल और उसके नीचे हुरियारों पर पड़ रही पोतनों की मार। इस नयनाभिराम दृश्य को देखने के लिए भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ा। हुरियारे थे कि हुरियारिनों पर बाल्टी भर-भरकर रंग डालने से बाज नहीं आ रहे थे तो हुरियारिनें भी कुछ कम न थी। उन्होंने हुरियारों के ही वस्त्र फाड़ डाले और उनसे पोतना बनाकर उनकी पिटाई करने लगी। बाहर से आए श्रद्धालु भी स्वयं को रोक न सके तो वे भी मार खाने के लिए आगे आ गए।

शुक्रवार को मंदिर के पट खुलते ही बलदेव जी को भैया श्री कृष्‍ण से होली खेलने का निमंत्रण दिया गया। दोपहर में राजभोग के बाद दोनों भाइयों के प्रतीक दो झंडे श्री ठाकुर जी की आज्ञा से मंदिर के मध्य में उपस्थित हुए। ढप पर रसियाओं का गान हुआ। इधर सेवायत पांडेय वर्ग की वधुएं एवं ग्वाल बालों ने हाथों में बाल्टी लेकर खूब नृत्य किया। हुरियारों के समूह मंदिर प्रांगण में बने हौदों में भरे टेसू के रंग को पिचकारियों और बाल्टियों में भर-भरकर हुरियारिनों और दर्शकों पर डालने लगे। सतरंगी गुलाल और गुलाब के फूलों की बरसात के बीच हुरियारिनों ने भी हुरियारों के कपड़े फाड़ डाले। फटे कपड़े से बनाए गए पोतनों से हुरियारिनों ने हुरियारों की जमकर पिटाई की। इस दौरान हुरियारिनें यह भी भूल गईं कि सामने उनके जेठ हैं या देवर। कई बार तो एक ही हुरियारे पर कई- कई हुरियारिनें टूट पड़ीं। तड़-तड़ाहट और चर-चर की आवाज मंदिर में साफ सुनाई दे रही थी। हुरियारिनें उलहाना मारते हुए कह रहीं थीं कि होरी तोते जब खेलूं मेरी पहुंची में नग जड़वाय। हुरियारिनें रेवती और दाऊजी के झंडे को छीनने का प्रयास करती तो हुरियारे उसे ऊपर उठा लेते। झंडा न मिलने पर हुरियारे हारी रे गोरी घर चली, जीत चले ब्रजबाल गाकर उन्हें उकसाते। हुरियारिनें भी दूने उत्साह के साथ झंडे की और लपकी और उसे छीन लिया। हारे रे रसिया घर चले, जीत चलीं ब्रजनारि गाकर हुरियारिनों ने अपनी इस जीत का जश्न मनाया। इसी बीच नफीरी, ढोल, मृदंग की धुन पर चल रहा फाग गीत और रसिया गायन परिसर में मौजूद सभी भक्तों को रस से सराबोर कर रहा था। समाज गायन ढप धरि दे यार गई परु की, जो जीवै सो खेले फाग के साथ हुरंगे का समापन हुआ। अंत में भक्तों ने रेवती और दाऊजी महाराज के जयकारे लगाए। इसी के साथ रंगों को एक वर्ष के लिए विदाई दी गई। इससे पूर्व मंदिर में चरणामृत भी वितरित किया गया।

रंगभरा तालाब बना मंदिर परिसर

विश्व प्रसिद्ध हुरंगे को भव्य बनाने के लिए मंदिर प्रबंधन द्वारा व्यापक इंतजाम किए गए थे। इस दौरान कई कुंटल रंग-बिरंगा गुलाल मशीनों के माध्यम से उड़ाया गया। रंग बनाने के लिए टेसू के फूल व केसर मंगाया गया था। गुलाब के फूल व गेंदा के फूल छतों से भक्तों पर लुटाए गए। भुरभुर की वर्षा भी रूक-रूक कर होती रही। कुछ ही पलों बाद मंदिर प्रागंण तालाब में तब्दील हो गया। छज्जों पर लगे फव्वारों से भी पानी की वर्षा की गई।

पद गायन ने लगाए चार चांद

दाऊजी हुरंगा में पदों के माध्यम से संकीर्तन मंडली ने भी चार चांद लगाए। छैल-छबीलौ ठाकुर मैरो भयौ है आज रंगीलो, होरी कैसे खेलूंगी जा दाऊजी के संग, माने ना मोरी के रसिया माने ना मोरी, ढप बाजौ रे छैल मतवारै को, सुन ले वृषभानु किशोरी, सारे ब्रज में होरी होवे दाऊजी होय हुरंगा, तेरी सबरी चमक बिगड़ जाएगी तू कह रही होरी-होरी, मेरी कोरी चुनरिया रंग गयौ री, होली बरसाने की देखी, हुरंगा दाऊ को मशहूर आदि पंक्तियों पर श्रद्धालुओं स्वयं को नृत्य करने से रोक ना सके।

1582 में हुई थी विग्रह की स्थापना 

बलदाऊ की नगरी बलदेव में हुरंगा की परंपरा पांच सौ वर्ष पुरानी है। माना जाता है कि श्री बलदाऊ के विग्रह की यहां प्रतिष्ठा 1582 में हुई थी। बताया जाता है कि मंदिर में विग्रह की स्थापत्य काल में बलदाऊ में हुरंगा खेलने की परंपरा पड़ी। हुरंगा को भव्य स्तर आयोजित करने की पंरपरा तभी से चली आ रही है। 


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