चुनाव प्रचार में नारों का जोर, जानिए कौन- कौन से नारे लगते रहे हैं अब तक के चुनाव में '
लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव विभिन्न राजनीति दल लोक लुभावन नारे देते रहे हैं।
आगरा, ज्ञानेंद्र त्रिपाठी। प्रचार माध्यमों पर धूम मचा रहे दो बड़ी पार्टियों के नारे। एक के विज्ञापन में, 'एक बार फिर मोदी सरकार, तो दूसरे में 'अब होगा न्याय'। लोगों के लिए ये नारे नए हैं। पर, इनकी तासीर दशकों पुरानी है। शब्दों के खेल में उद्देश्य वहीं हैं, इनको पेश करने का तरीका नया है। भाजपा पहले भी व्यक्ति केंद्रित नारे देती रही है। तब उसके लिए मोदी की जगह अटल जैसे नेता हुआ करते थे। तबके दौर में एक नारा गढ़ा गया 'अटल, आडवाणी, कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान'। या फिर, 'अटल बिहारी बोल रहा है, इंदिरा शासन डोल रहा है'। ऐसे ही कांग्रेस के नारे भी समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहे हैं। पिछले ही साल उसने 'हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की' नारा दिया था। सवाल यह है कि बदलते नारों से मिलने वाले वोट के बल पर क्या देश की सूरत बदलती है, या नारों के बल पर मात्र वोटों का वारा न्यारा ही होता है। खैर, आज के नारों का कल क्या होगा, यह कल पर ही छोड़ते हैं।
बात 1971 से शुरू करते हैं। तब इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ के नारे को ईजाद किया। वे अपने भाषण में ठीक वैसे ही कहती थीं, जैसे आज मोदी कहते हैं। तब इंदिरा गांधी हर मंच से बोलती थीं, 'मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इंदिरा हटाओ,'। इस नारे ने इंदिरा गांधी को बहुमत तो दे दिया, लेकिन गरीबी ने देश का साथ नहीं छोड़ा। कांग्रेस ही क्यों, समाजवादी भी नारों की सियासत में पीछे नहीं रहे। उनका नारा था 'रोटी, कपड़ा और मकान, मांग रहा है हिंदुस्तान'। इससे भावनाएं जब उफान पर आ जाती थीं तो समाजवादी बोलते थे, 'महंगाई को रोक न पाई यह सरकार निकम्मी है, जो सरकार निकम्मी है वह सरकार बदलनी है'। यह अलग बात है कि सरकार बदली, लेकिन महंगाई की सूरत नहीं बदली। नजर भाजपा पर डालते हैं। याद होगा 1991 के चुनाव में भाजपा ने राम लहर का फायदा उठाने के लिए नारा दिया था, 'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे'। इसका फायदा भी भाजपा को मिला, लेकिन मंदिर का निर्माण अब तक नहीं हो पाया। यही क्यों, उसी समय इस पार्टी ने यह भी बोला था, 'भाजपा के साथ चलो, राम राज्य की ओर चलो'। तब लोग भाजपा के साथ चले, लेकिन वह राम राज्य की तरफ नहीं चली। इस बीच बसपा ने भी अपनी सुविधा अनुसार नारे गढ़े। कांशीराम ने विशेष जाति को जगाने को नारा दिया 'ठाकुर, बाभन, बनिया, चोर, बाकी सब डीएस फोर'। उस समय बसपा डीएस फोर के नाम से ही आकार ले रही थी। इसका फायदा जब दिखा तो इस नारे को और तीखा किया गया। बोला गया 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार'। लेकिन जब सत्ता की बात आई, सत्ता बगैर ब्राह्मण व राजपूत के बनती नहीं दिखी तो इस नारे को बदल बसपा ने 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' कर दिया। पहली बार बसपा व सपा का गठबंधन हुआ तो गठबंधन के तर्ज पर ही नारों की गठरी भी तैयार की गई, जिसमें एक नारा खूब उछला, 'मिले मुलायम कांशी राम, हवा हो गए जय श्रीराम'। नारों के साथ छल देखिए, जब बसपा व सपा का गठबंधन टूटा तो नारा भी टूट सा गया। बसपा ने तब सपा के लिए अपना नया नारा लांच किया, 'चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर'। इस नारे के जवाब में सपा कहां पीछे रह सकती थी। सो, उसने भी अगले ही चुनाव में एक नारा उछाला, 'गुंडे चढ़ गए हाथी पर, मोहर लगेगी साइकिल पर'। इस बीच बसपा के बाद सपा ने ब्राह्म्णों को लुभाने के लिए नारा दिया 'ब्राह्म्ण शंख बजाएंगे, मुलायम दिल्ली जाएंगे' तो भाजपा ने हर हाथ को काम, हर खेत को पानी' का नारा दिया। वर्ष 1998 में उसका नारा था 'सबको परखा बार-बार, हमको परखो एक बार'। वर्ष 1999 में यह नारा भी बदला और अटल बिहारी केंद्रित नारा 'जांचा, परखा, खरा नेतृत्वÓ सामने आ गया। पिछले चुनाव में मोदी मैदान में उतरे तो 'अच्छे दिन आएंगेÓ, और 'अबकी बार मोदी सरकारÓ का नारा खूब उछला। सरकार बनी तो 'सबका साथ सबका विकासÓ का नारा दिया गया। मोदी की सरकार बनी, लेकिन अच्छे दिन आए या नहीं आए, सबका विकास हुआ या नहीं हुआ, यह आज भी समीक्षा का विषय है। कुछ महीनों पहले राहुल गांधी ने अपनी सभाओं में 'चौकीदार चोर हैÓ का नारा लगवाना शुरू किया तो भाजपा ने 'मैं भी चौकीदार हूंÓं को लांच कर दिया। बावजूद इसके इस संसदीय चुनाव में अंतिम रूप से कांग्रेस ने अपने नारे में न्याय को तो भाजपा ने एक बार फिर मोदी को आगे किया है। कांग्रेस ने हाथ शब्द को हटाते हुए अपना नारा, 'अब होगा न्यायÓ को प्रचार में लगाया है तो भाजपा ने एक बार फिर को जोड़ते हुए, 'एक बार फिर मोदी सरकार, पर दांव खेला है। देखना यह है कि इन दोनों में से कौन सा नारा चलता है। सही मायने में नब्बे फीसद नारे पार्टियों के लिए सत्ता की मजबूत नींव बनाते रहे हैं। नारों के प्रवाह में जन भावना बहती रही है, लेकिन सत्ता की कुर्सी संभालते ही नारे जाते रहे हैं और उनका मायने खोता रहा है। जनता के साथ न सही, लेकिन नारों के साथ तो यह छल ही है, क्योंकि नारे अपने मतलब को साधने के लिए बनाए जाते रहें है। एक बार फिर बनाए गए हैं। भुलाए जाते रहे हैं, क्या फिर भुलाए जाएंगे, या उनकी तासीर सत्ता की तस्वीर में नजर आएगी?