Cheeni ka Roja: विलुप्त हो चुकी काशीकारी को देखना और समझना चाहते हैं तो आइए आगरा में चीनी का रोजा
शाहजहां के वजीर शुक्रुल्लाह शीराजी अफजल खां अल्लामी का है मकबरा। गद्दी पर बैठने के बाद शाहजहां ने उसे अपना वजीर बनाया और सात हजार का मनसब प्रदान किया। शुक्रुल्लाह ने अपने जीवन काल में अपना मकबरा वर्ष 1628 से 1639 के बीच बनवाया था।
आगरा, निर्लोष कुमार। रामबाग और एत्माद्दौला के बीच यमुना किनारा पर बने स्मारकों में चीनी का रोजा विलुप्त हुई काशीकारी की निशानी है। यह मकबरा कभी अपने चमकते हुए टाइलों के लिए जाना जाता था। अब इसकी बाहरी दीवारों पर अलंकरण में प्रयेाग में लाए गए टाइल बहुत कम बचे हैं, लेकिन उनके आधार पर कभी इसके बहुत भव्य होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
यमुना किनारे पर बना चीनी का रोजा शाहजहां के वजीर शुक्रुल्लाह शीराजी अफजल खां अल्लामी का मकबरा है। वो विद्वान और कवि था। अल्लामी नाम से कविताएं लिखने वाले शुक्रुल्लाह शीराजी को मुगल शहंशाह जहांगीर ने अफजल खां की उपाधि दी थी। शाहजहां के राजकुमार काल में वो उसका दीवान था। उसने मेवाड़ और दक्षिण के सैन्य अभियानों में शाहजहां की सेवा की। गद्दी पर बैठने के बाद शाहजहां ने उसे अपना वजीर बनाया और सात हजार का मनसब प्रदान किया। शुक्रुल्लाह ने अपने जीवन काल में अपना मकबरा वर्ष 1628 से 1639 के बीच बनवाया था। इसके पास उसने महल भी बनवाया था, जो कटरा वजीर खां के नाम से जाना जाता है। वर्ष 1639 में लाहौर में उसकी मृत्यु होने के बाद उसकी देह को यहां लाकर मकबरे में दफनाया गया था। दोहरे गुंबद वाला यह मकबरा ऊंचे परकोटे से घिरा था और इसकी पूर्वी दिशा में द्वार था। यहां चारबाग था। ईंटों के बने मकबरे पर प्लास्टर हो रहा है और बाहरी अलंकरण टाइलों से किया गया था इस पर नीला, पीला, हरा, नारंगी और सफेद रंग के टाइलों का अलंकरण था, जो कि नष्ट हो चुका है और उसके केवल अवशेष ही बचे हैं। इसमें प्रत्येक फूल व पत्ती के लिए अलग-अलग टाइल लगे हुए हैं। छोटे-छोटे टाइलाें के हजारों टुकड़ों से इन्हें बनाया गया है।
एएसआइ द्वारा संरक्षित है स्मारक
चीनी का रोजा एएसआइ द्वारा संरक्षित स्मारक है। इस पर प्रवेश शुल्क लागू नहीं होता। पूर्व में यहां चारबाग हुआ करता था, लेकिन वर्तमान में यहां नर्सरियां बनी हुई हैं।
बड़ी जटिल थी काशीकारी
काशीकारी का काम काफी जटिल था। इसमें ईंट की सतह पर पहले दो इंच माेटा प्लास्टर किया जाता था। उस पर एक इंच मोटी एक महीन पर्त चढ़ाई जाती थी। जब वह नम होमी थी, तभी उस पर रूपांकन करते हए आलेख बना दिया जाता था। रूपांकन के अनुसार उस पर टाइल जड़ दी जाती थीं।
ईरान का काशीन था काशीकारी का घर
काशीकारी की कला का घर ईरान में काशीन था, इसलिए इन टाइल (खाचित खर्परों) को काशी कहा जाने लगा। वर्तमान पाकिस्तान के सिंध में हल्ला काशी के सामान का केंद्र बन गया था। इसके कुम्हारों को काशीगर और इस कला को काशीकारी कहते थे। इसके बनाने की तकनीक वही रही। प्लास्टर को खमीर, शीशे को कांच कहते थे आैर दोनों के बीच अस्तर लगाया जाता था। इसके बनाने की विधि बड़ी जटिल थी। इसमें विविध प्रकार के रसायन, बालू, पत्थर और अन्य वस्तुएं प्रयोग में आती थीं। इन्हें विस्तृत पद्धति से विशेष रूप से बनी भट्टी में गर्म कर पिघलाया जाता था, जिससे टाइल और उसकी चमक हजार वर्ष तक बनी रहती थी। जटिल होने के चलते यह कला खत्म हो गई।
ब्रज में एकमात्र नमूना
चीनी का रोजा एक शिष्ट और सुसंस्कृत ईरानी का मकबरा है, जिसने भारत की सेवा की। यह देश में एक ईरानी स्मारक है। अपनी श्रेणी में इसकी गणना सर्वाधिक महत्वपूर्ण इमारतों में होती है। इस अनूठी कला की अन्य इमारतें पाकिस्तान में लाहौर किले की चित्र भित्ति, वजीर खां की मस्जिद और आसफ खां का मकबरा हैं। ब्रज में काशीकारी का यह एकमात्र नमूना है। यह मुगल दरबार, संस्कृति और कला पर ईरानी प्रभाव का सूचक है।