घर-परिवार और समाज के साथ ही योग जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है
ऋषियों ने प्रकृति की गूंज सुनकर उसमें त्रिस्तरीय योग का जो स्वरूप देखा उसमें ‘ऊं’ शब्द दिखाई पड़ा। इस ‘ऊं’ में ‘अ’ ‘उ’ और ‘म्’ का योग है। गर्भ में अस्तित्व में आना ‘अ’ जन्म के बाद उत्थान ‘उ’ तथा मृत्यु ‘म्’ का संयुक्त होना भी योग है।
नई दिल्ली, विभाव पांडेय। योग प्रकृति की स्वत: स्फूर्त प्रक्रिया है। योग के ही चलते मां के गर्भ में आना और जीवन धारण करना संभव होता है। उसके बाद जन्म लेते ही सांसारिक-योग आरंभ होता है। घर-परिवार और समाज के साथ योग जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है तथा जीवन के समापन पर फिर प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर विलीन होना भी योग है।
ऋषियों ने प्रकृति की गूंज सुनकर उसमें त्रिस्तरीय योग का जो स्वरूप देखा उसमें ‘ऊं’ शब्द दिखाई पड़ा। इस ‘ऊं’ में ‘अ’, ‘उ’ और ‘म्’ का योग है। गर्भ में अस्तित्व में आना ‘अ’, जन्म के बाद उत्थान ‘उ’ तथा मृत्यु ‘म्’ का संयुक्त होना भी योग है। ऋषियों ने अंतिम अक्षर ‘म्’ को हलंत कर आधा इसलिए कर दिया, क्योंकि मनुष्य की मृत्यु पूरी नहीं होती। पंच भौतिक शरीर प्राकृतिक पदार्थो के साथ योग कर पुन: अनंत में विलीन हो जाता है, जबकि आत्मा जीवंत रहता है और पुन: नए शरीर के साथ योगभाव में आता है।
प्राकृतिक योग को भी देखा जाए तो क्षिति तत्व धरती के साथ योगनिष्ठ होकर धरती में मिल जाता है, अग्नि आकाश की ओर अपने देही सूर्य के साथ योग करने को ऊपर की ओर उठती है तो जल, जल के साथ, वायु, वायु के साथ तथा गगन तत्व शून्य के साथ योग-भाव में हो जाता है। इस तरह देखा जाए तो कदम-कदम पर योग का प्रकट भाव दिखाई पड़ता है। मानव शरीर के अंदर और बाहर जो योग हो रहा है, उसे नियमित जीवन में अपनाकर कोई भी व्यक्ति उध्र्वमुखी जीवन प्राप्त कर सकता है।
इससे प्रतीत होता है कि मनुष्य के लिए योग एक ऐसा ईश्वरीय-वरदान है जिसके बल पर वह खुद ईश्वरत्व की ओर दिनोंदिन बढ़ सकता है। व्यायाम या किसी भी प्रकार के अन्य शारीरिक श्रम से सिर्फ तन स्वस्थ रहता है, लेकिन योग और प्राणायाम से मन भी स्वस्थ और मजबूत होता है। आत्मबल में वृद्धि होती है। असंभव कार्य संभव सा लगने लगता है। वर्तमान काल में स्वस्थ और प्रसन्न रहने का ब्रह्मास्त्र योग ही है।