समय के साथ 'धर्म और अध्यात्म' के अर्थ अपनी सुविधानुसार बदलते जा रहे हैं
दुर्भाग्यवश समय के साथ धर्म और अध्यात्म के अर्थ अपनी सुविधानुसार बदलते जा रहे हैं। दोनों अपनी मूल अभिव्यक्ति खोने लगे हैं। धर्म को मानने वाले कुछ लोग जिन पर समाज विश्वास करता है जब स्वयं दिशाहीन होते जा रहे हैं।
नई दिल्ली, छाया श्रीवास्तव। संप्रति कितने ही धर्मात्मा इसका श्रेय लेते हैं कि चूंकि वे किसी धर्म को मानते हैं लिहाजा आध्यात्मिक भी हैं। जबकि यह सही नहीं है। धर्म और अध्यात्म जैसे गूढ़ शब्दों का मर्म विरले ही समझ पाए हैं।
वैसे हम सभी किसी न किसी धर्म को मानने वाले हैं। हमारा धर्म जन्म से पूर्व ही निर्धारित हो जाता है। उन्हीं संस्कारों के साथ हम पलते-बढ़ते हैं। हममें से कई अध्यात्म के पथ पर चलने को उत्सुक होते हैं, किंतु देखने में आता है कि धार्मिकता और आध्यात्मिकता के बीच महीन अंतर जान पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। दरअसल अपने ईश्वर प्रेम के चरम लक्ष्य की प्राप्ति ही मनुष्य को आध्यात्मिकता की ओर ले जा सकती है-फिर धर्म मार्ग कोई भी हो।
हम स्वयं अनेक धार्मिक विधि-विधानों से जीवनपर्यत बंधे रहते हैं, जो वास्तव में बाहरी क्रियाएं हैं। ज्ञानीजन मानते हैं कि धर्म धैर्यपूर्वक इंद्रियों को वश में कर अपने और प्रियजनों को सुरक्षित, विद्यावान और समृद्ध बनाने की युक्ति है, जो अकारण ही समाज को संप्रदायों में बांट लेने का कारण बन पड़ती है। जबकि अध्यात्म परस्पर मेल का साधन है, जिसका ध्येय दिव्य प्रेम को प्राप्त करना है, जो मनुष्य को उच्चतम अवस्था में ले जा सके।
दुर्भाग्यवश समय के साथ धर्म और अध्यात्म के अर्थ अपनी सुविधानुसार बदलते जा रहे हैं। दोनों अपनी मूल अभिव्यक्ति खोने लगे हैं। धर्म को मानने वाले कुछ लोग, जिन पर समाज विश्वास करता है, जब स्वयं दिशाहीन होते जा रहे हैं, तब वे कैसे आमजन को अध्यात्म का गूढ़ अर्थ समझा सकने में सक्षम हो सकते हैं?
धर्म अंतत: अध्यात्म बिना अस्तित्वहीन हो जाता है। आज के घोर प्रतिस्पर्धात्मक संसार में किसके पास समय एवं इच्छा है कि धार्मिक होने से ऊपर उठकर अध्यात्म के उच्चतर स्तर पर पहुंचने का सामथ्र्य जुटा सके। जबकि सच तो यह है कि आज सभी सामाजिक कुरीतियों का एक ही निवारक मार्ग है आध्यात्मिकता, जो कठिन तो है, परंतु असंभव नहीं।