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धन का मोह व्यक्ति को निष्ठुर बनाता है निष्ठुरता घर-परिवार समाज के लिए घातक है

कर्मकांड में किसी पूजा-पाठ,यज्ञ-अनुष्ठान में पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन-प्रक्रिया को भी माना जाता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 15 Apr 2017 11:02 AM (IST)Updated: Sat, 15 Apr 2017 11:02 AM (IST)
धन का मोह व्यक्ति को निष्ठुर बनाता है निष्ठुरता घर-परिवार समाज के लिए घातक है
धन का मोह व्यक्ति को निष्ठुर बनाता है निष्ठुरता घर-परिवार समाज के लिए घातक है

 आध्यात्मिक कार्यक्रमों में कर्मकांड को लेकर लोगों के अलग-अलग मत होते हैं। कर्मकांड में किसी पूजा-पाठ,

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यज्ञ-अनुष्ठान में पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन-प्रक्रिया को भी माना जाता है। इसी के साथ पूजन की अन्यान्य पद्धतियां भी शामिल हैं। इसी कर्मकांड के तहत संकल्प, दान-दक्षिणा, मांगलिक कार्यक्रमों के अलावा निधनोपरांतपिंडदान आदि को लेकर तर्क-वितर्क भी होते हैं।

कुछ लोग इसे पाखंड की संज्ञा देते हैं, जबकि कर्मकांडी इसको आस्था से जोड़ते हैं और बिना विधिक कर्मकांड के आध्यात्मिक अनुष्ठान निष्फल मानते हैं, लेकिन ऋषि-मुनियों द्वारा शुरू कर्मकांड का विशेष महत्व के साथ इसका वैज्ञानिक महत्व भी है जिसे मेडिकल साइंस भी मानने लगा है। आध्यात्मिक कार्यक्रमों के पूर्ण होने तक कतिपय निषेध को जीवन में निषेध का भाव जागृत करने का सहायक तरीका मानना चाहिए और कर्मकांड को जीवन के किसी क्षेत्र में किसीतरह के कार्य के लिए मन केंद्रित करने का पूर्वाभ्यास मानना चाहिए। एक छोटे से मंत्र के जप के पूर्व अनेकानेक किए जाने वाले कार्य तथा मुद्राएं मन को एकाग्र करने के लिए ही तो हैं। महाभारत काल में अर्जुन ने मछली की आंख पर बाण मारने के लिए मन को एकाग्र किया। गुरु द्रोणाचार्य ने बाण चलाने के जितने कर्मकांड यानी रिहर्सल की जरूरत थी वह सब अर्जुन से कराया, जबकि एकलव्य ने स्वयं ही इसके लिए जरूरी कर्मकांड को अपनाया। कर्मकांड की प्रक्रिया के दौरान बेलगाम मन पूजा-उपासना या अनुष्ठान के लिए तैयार होने लगता है और जब मन पूरी तरह तैयार हो जाता है तो पूजा-उपासना के दौरान आसपास अनुकूल तरंगों का अहसास होने लगता है, जबकि भटकाव की स्थिति में कब पूजा शुरू हुई कब खत्म हो गई कुछ पता नहीं चलता।

कर्मकांड के नाम पर भय खड़ा करना जरूर गलत है। जैसे पैसा नहीं चढ़ाया तो भगवान नाराज हो जाएंगे। इस

तरह की विकृति कुछ स्वार्थीतत्व करते हैं, जबकि उपासक पैसा चढ़ाता या दक्षिणा देता है तो उसमें धन से मोह खत्म करने का भाव उत्पन्न होता है। अन्यथा धन के प्रति अधिक लगाव से कभी-कभी पैसा रहते घर के सदस्यों की अति आवश्यकताओं को व्यक्ति पूरा नहीं करता है। माता-पिता तक की सेवा में पैसा खर्च करने से कभी-कभी कतराने की स्थिति देखी जाती है। धन का मोह व्यक्ति को निष्ठुर बनाता है। निष्ठुरता घर-परिवार और समाज के लिए घातक है।


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