व्यक्ति को निरंतर रूप से निखारती है आत्म-प्रतिस्पर्धा
प्रतिस्पर्धा की यही विशेषता इसे संघर्ष से अलग करती है। एक अन्य विशेष बात यह है कि प्रतिस्पर्धा किसी तंत्र विशेष तक ही सीमित रहती है। एक विशेष तरह की प्रतिस्पर्धा एक विशेष तंत्र में ही दृष्टिगोचर होती है।
नई दिल्ली, शिशिर शुक्ला। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए वह अनेक छोटे-बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहता है। समाज का अंग होते हुए, समाज में अपनी पहचान बनाना भी प्रत्येक व्यक्ति को एक उद्देश्य जैसा ही प्रतीत होता है। इन उद्देश्यों, लक्ष्यों व उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु चल रहे अनवरत प्रयत्नों के फलस्वरूप एक सामाजिक प्रक्रिया जन्म लेती है। इस सामाजिक प्रक्रिया का नाम है-प्रतिस्पर्धा। यदि सरल शब्दों में कहा जाए तो बेहतर प्रदर्शन करने की तीव्र लालसा। यह लालसा एक अबोध शिशु से लेकर एक वृद्ध तक सभी में विद्यमान रहती है।
वस्तुत: जब आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता पर्याप्त नहीं होती, तो प्रतिस्पर्धा स्वत: ही जन्म ले लेती है। प्रतिस्पर्धा में कदाचित विरोध व ईष्र्या की भावनाएं भी अंतनिर्हित होती हैं, किंतु ऐसी प्रतिस्पर्धा स्वस्थ नहीं कही जाती। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वास्तव में उत्कृष्टता का मार्ग प्रशस्त करती है। प्रतिस्पर्धा की यही विशेषता इसे संघर्ष से अलग करती है। एक अन्य विशेष बात यह है कि प्रतिस्पर्धा किसी तंत्र विशेष तक ही सीमित रहती है। एक विशेष तरह की प्रतिस्पर्धा एक विशेष तंत्र में ही दृष्टिगोचर होती है। किसी व्यक्ति के साथ आपकी प्रतिस्पर्धा केवल तभी तक रहती है, जब तक आप उसके साथ किसी तंत्र को साझा करते हैं। किसी व्यक्ति द्वारा वह तंत्र छोड़ते ही प्रतिस्पर्धा स्वत: समाप्त हो जाती है।
यह आवश्यक नहीं कि प्रतिस्पर्धा सदैव दूसरे व्यक्ति के साथ ही हो। विवेकशील या विद्वान व्यक्ति की प्रतिस्पर्धा प्राय: स्वयं से होती है। उसे आत्म-प्रतिस्पर्धा कहा जाता है। आत्म-प्रतिस्पर्धा व्यक्ति को निरंतर रूप से निखारते हुए उसे आत्म-निरीक्षण करने में सहायता करती है, जो निरीक्षण प्रगति के पथ पर अग्रसर करता है। ऐसे में यदि हम दूसरों से प्रतिस्पर्धा के बजाय स्वयं से प्रतिस्पर्धा करें तो हमें सर्वागीण विकास का एक सुगम मार्ग मिल जाएगा।