आवश्यक है समर्पण
कार्य संपन्न होने पर नमन करें। प्रभु को नमन कर शयन करना, जागने पर नमन करना अर्थात हर कार्य में प्रभु स्मरण में आते रहें- यही धर्मव्रत है, आर्यव्रत है।
जहां तक रहन-सहन, शादी-विवाह का प्रश्न है, भगवद्भक्त को सृष्टि का प्रत्येक कार्य प्रभु में समर्पण करके करना चाहिए। खेत में खुरपी चलाते हों तो समर्पण, अखाड़े में जाते हों तो समर्पण। नौकरी करें, व्यवसाय करें, राजनीति करें, तो समर्पण और श्रद्धा के साथ कार्य आरंभ करें।
कार्य संपन्न होने पर नमन करें। प्रभु को नमन कर शयन करना, जागने पर नमन करना अर्थात हर कार्य में प्रभु स्मरण में आते रहें- यही धर्मव्रत है, आर्यव्रत है। सभी को ऐसा ही करना चाहिए। विविध देशों में प्रभु के समक्ष समर्पण और साक्षी बनने के तरीके अलग-अलग हैं, किंतु प्रत्येक दशा में वे प्रभु का ही स्मरण करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन: ।।
अर्जुन। अनन्य अर्थात अन्य न, मेरे अतिरिक्त अन्य किसी देवी-देवता को न भजते हुए जो मुझे भजता है, निरंतर भजता है, उसके लिए मैं सुलभ हूं। वह मुझे प्राप्त कर लेता है। तब वह क्षणभंगुर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद जी कृत श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य यथार्थ गीता से साभार