धर्म के राज्य की स्थापना करना चाहते थे गुरू गोविंद सिंह
25 दिसंबर को गुरु गोविंद सिंह जयंती है इस अवसर पर जानिए कि क्या है उनके जीवन की खास बातें।
धर्म राज्य की घोषणा की
गुरु गोविंद सिंह मानव सभ्यता के इतिहास के अद्भुत नायक हैं। बचपन से ही उनका एक निश्चित लक्ष्य था। तभी मात्र नौ वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता गुरु तेग बहादुर को कश्मीर के ब्राह्मणों की याचना पर दिल्ली में बलिदान के लिए प्रेरित किया था। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद जब वे गुरुगद्दी पर आसीन हुए, तो उनके समक्ष अनेक चुनौतियां थीं। औरंगजेब की धर्माध नीतियों और अत्याचार से पूरा हिंदुस्तान उस समय दहल उठा था। लोगों में आत्मिक चेतना का अभाव था। गुरु गोविंद सिंह जी ने घोषित किया कि उनका एकमात्र उद्देश्य धर्म का राज्य स्थापित करना और धर्म पर चलने वालों को निर्भय करना है। इसके लिए गुरु जी ने विभिन्न उपाय एक साथ आरंभ किए।
साहित्य का लिया सहारा
गुरू गोविंद ने पाऊंटा साहिब नगर बसाया और अपने दरबार में देश भर के कवियों, विद्वानों को आमंत्रित कर उनसे 'सत साहित्य' की रचना कराई। वे स्वयं विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता और उत्कृष्ट रचनाकार थे। उन्होंने पंजाबी, फारसी, अवधी, ब्रज, संस्कृत आदि भाषाओं में काव्य रचनाएं व ग्रंथ रचे। उनकी रचनाओं के केंद्र में परमात्मा का निराकार सर्व समर्थ स्वरूप और उसकी सर्वव्यापकता स्पष्ट नजर आती है। गुरु गोविंद सिंह ने अपनी वाणी में जहां कर्मकांडों और पाखंड पर कठोर प्रहार व खंडन किया, वहीं परमात्मा को पाने की सहज व सरल राह दिखाई।
परमात्मा पर विश्रवास ही शक्ति
"साचु कहों सुन लेहु सभै जिन प्रेम कीउ तिन ही प्रभु पाइउ !!" मन में परमात्मा प्रेम की भावना दृढ़ करने के लिए गुरु जी ने परमात्मा की महानता का बड़ा ही सुंदर चित्रण अपनी काव्य रचनाओं में किया। उन्होंने कहा कि एकमात्र परमात्मा पर विश्वास मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। यदि कोई परमात्मा की शरण में आ जाए, तो बड़े से बड़ा वैरी भी उसका अहित नहीं कर सकता है। इसके लिए उन्होंने कालजयी कृति 'जफरनामा' लिखी, जिसे मूलत: एक विजय पत्र के रूप में औरंगजेब को लिखकर उनके द्वारा भेजा गया। इसमें उन्होंने कहा कि परमात्मा की ओट पर भरपूर विश्वास मनुष्य की परम शक्ति है।
खालसा तैयार किए
गुरु गोविंद सिंह जी ऐसे धर्म पुरुष तैयार करना चाहते थे, जिनमें सच व धर्म की रक्षा का दृढ़ संकल्प हो। वे इसके लिए जान तक न्यौछावर करने के लिए भी तत्पर रहते हों। यह आत्मशुद्धता व आंतरिक बल के बिना संभव नहीं था। इसीलिए गुरु जी ने जब सिखों को नया स्वरूप प्रदान किया, तो उन्हें खालसा अर्थात मन, वचन और कर्म से शुद्ध का नाम दिया। यही सिखों में वीरता का आधार था, जिससे गुरु साहिब ने युद्धों में विजय प्राप्त की।
Story by डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंह