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तो इसलिए ईश्वर किसी को दे रहा है और किसी से छीन रहा है

वह कभी कुपात्र की भी झोली भर देता है और कभी सुपात्र को अपनी कृपा से वंचित रखता है। ऐसे बहुत से लोग जिन्हें सब मिला जिसकी उन्हें आशा नहीं रही होगी।

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 20 Apr 2017 10:25 AM (IST)Updated: Thu, 20 Apr 2017 02:22 PM (IST)
तो इसलिए ईश्वर किसी को दे रहा है और किसी से छीन रहा है
तो इसलिए ईश्वर किसी को दे रहा है और किसी से छीन रहा है

यह सृष्टि अद्भुत है। जिसने इसे बनाया है उसकी महिमा अवर्णनीय है। यहां हर पल कुछ ऐसा घट रहा है जो अकल्पनीय है। कई बार सोचते हैं कि इस सूखे पौधे या वृक्ष को निकाल दें, लेकिन आलस्यवश निर्णय टल जाता है और एक सुबह दिखता है कि उसमें कोपलें फूट रही हैं। इसी तरह भीड़ भरी ट्रेन में तिल रखने की जगह नहीं पर विवशता में चढ़ जाते हैं। थोड़ी ही देर में कोई उतरता है और बैठने को मिल जाता है।

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जिन घाटों पर अनगिनत लोग स्नान के  लिए आते रहे, वे रेतीले खेत बन गए। जीवन में भरपूर यश पाने वाले अपमान और उपेक्षा के गर्त में चले जाते हैं। कहीं उपलब्धि तो कहीं ह्रास हो रहा है, जिसकी अपेक्षा नहीं थी।

ईश्वर किसी को दे रहा है और किसी से छीन रहा है। आज तक इसका कोई सामान्य सूत्र नहीं खोजा जा सका है कि वह कब और कैसे प्रसन्न होकर अपने खजाने खोल देता है। वह कभी-कभी कुपात्र की भी झोली भर देता है और कभी सुपात्र को अपनी कृपा से वंचित रखता है। आसपास देखने पर ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे जिन्हें वह सब कुछ मिला जिसकी स्वयं उन्हें भी आशा नहीं रही होगी।

प्राय: सुनने को मिलता है कि सब कर्मों का खेल है। जहां आवश्यक हो, दुख और सुख का औचित्य सिद्ध करने के

लिए पूर्व जन्म के कर्मों से जोड़ दिया जाता है। किसने पूर्व जन्म देखे हैं? यह तो ईश्वर ही जान रहा है। मनुष्य के लिए ऐसे भ्रम में रहना अकर्मण्य बनाने वाला और ईश्वर की सत्ता और सामथ्र्य को पहचानने में अवरोध स्वरूप है। परमात्मा की शक्तियां अथाह हैं। उसे देते और लेते हुए किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसकी इच्छा ही सर्वश्रेष्ठ है। वह सर्वोच्च है और किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। मनुष्य में यह क्षमता ही नहीं है कि उसके कार्यों की विवेचना कर सके। उसके हाथ इतना ही है कि वह प्रसन्न अथवा अप्रसन्न हो सके। किंतु इससे भी उसे कोई लाभ नहीं मिलने वाला, क्योंकि परमात्मा इससे सर्वथा अप्रभावित रहता है। मनुष्य के वश में इतना ही है कि वह परमात्मा से कृपा की प्रार्थना करे। जिसने यह दृढ़ विश्वास धारण कर लिया कि जो प्राप्त हुआ है अथवा होना है वह परमात्मा कि कृपा से ही, अन्य कोई मार्ग नहीं, बस उसी का कल्याण है। इसमें कोई तर्क नहीं

कोई शंका नहीं। परमात्मा दे रहा है अथवा नहीं दे रहा उसमें खुश रहते हुए उससे अपने हित की प्रार्थना ही भक्ति है। वह तो जन्मों-जन्मों के पाप हर लेने वाला है।


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