सुख की चाह के लिए तप की साधना ज़रूरी है...
संकल्प के दृढ़ एवं सत्य न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण तप की कमी होता है। जो व्यक्ति अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर के द्वारा तप नहीं करता वह अपने संकल्पों को कभी प्राप्त नहीं कर सकता।
नई दिल्ली, डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री। तप संकल्प की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। जिसे सत्य संकल्प द्वारा सुख की चाह है, उसे तप की साधना अवश्य करनी चाहिए। संकल्प के दृढ़ एवं सत्य न होने का सबसे बड़ा कारण तप की कमी होता है। जो व्यक्ति अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर के द्वारा तप नहीं करता, वह अपने संकल्पों को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। तप से हमें अपने मन और तन, दोनों को पक्का बनाना होता है। जैसे मिट्टी का कच्चा घड़ा पानी डालने पर गल जाता है। वह अग्नि में बिना तपे कभी जल नहीं ला सकता। इसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने जीवन को तप द्वारा पक्का नहीं बनाता, तब तक वह कभी भी अपने संकल्पों की सिद्धि को धारण नहीं कर सकता। तप से जीवन की समस्त अशुद्धियां दूर होती हैं। अशुद्धियों के दूर होने से शरीर और इंद्रियों को विशेष सिद्धि मिलती। तभी कहा जाता है कि तप से सभी कुछ साध्य है।
वेदों में भी तप की महिमा और आवश्यकता का अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है। कल्याण की कामना करने वाले ऋषिगण भी प्रथम तप और दीक्षा का ही अनुष्ठान करते हैं। श्रीमद्भागवत कथा के द्वितीय स्कंध में श्री भगवान ब्रह्मजी से कहते हैं कि ‘मैं इस दृश्यमान अखिल प्रपंच को तप द्वारा रचता हूं और पुन: तप द्वारा ही ग्रसित कर लेता हूं। मैं तप द्वारा ही इस विश्व का भरण-पोषण करता हूं और मेरा अत्यंत तेजस्वी पराक्रम तप ही है। तप द्वारा वह तेज और वह शक्ति प्राप्त की जा सकती है, जो किसी भी संकल्प की प्रतिपूर्ति का आधार बनती है।’
वस्तुत: तप मन और इंद्रियों को एकाग्र करना ही है। अज्ञानतावश हम तप को एक पैर पर खड़े होकर या भूखे रहकर की जाने वाली साधना मान लेते हैं। वास्तव में यह तप नहीं है। मन का सात्विक विचारों और सात्विक क्रियाओं में एकाग्र हो जाना वास्तविक तप है। यही एकाग्रता साधक के संकल्प को दृढ़ता प्रदान कर उसे अभीष्ट सिद्धि के अनुष्ठान के योग्य बनाती है।