योग के सभी सूत्र सुदृढ़ मानव जीवन की आधारशिला हैं
योगसूत्र के प्रणोता महर्षि पतंजलि संयमन अर्थ में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। उनके अनुसार यम नियम आसन ध्यान धारणा आदि आठ अंगों से संपन्न प्राणायाम की विविध क्रियाएं योग कहलाती हैं। इससे चित्त की एकाग्रता बढ़ती है।
नई दिल्ली, डा. सत्य प्रकाश मिश्र। योग प्राचीन काल से भारतीय आध्यात्मिक संचेतना का केंद्र रहा है। इसके आदिम सूत्रधार परमयोगी भगवान शिव हैं। योग शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता रहा है। समाधि अर्थ में इसका प्रयोग आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिए किया जाता है, जब साधक अपनी साधना की चरमावस्था में परमात्मा से एकाकार होकर उसका साक्षात्कार कर लेता है। अग्निपुराण में भी मन एवं आत्मा तथा आत्मा और परमात्मा के संयोग को योग कहा गया।
सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष का भेद होने पर भी पुरुष का आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना योग कहलाता है। कठोपनिषद् के अनुसार, जब इंद्रियां मन के साथ और मन अविचल बुद्धि के साथ स्थिर हो जाता है तो यह अवस्था योग की होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ कहकर योग का जो स्वरूप अजरुन के समक्ष प्रस्तुत किया है वह सामान्य जन के सर्वाधिक निकट है। कोई भी मनुष्य एकाग्रचित्त होकर निष्काम भाव से कर्म करते हुए योग को सिद्ध कर सकता है।
योगसूत्र के प्रणोता महर्षि पतंजलि संयमन अर्थ में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। उनके अनुसार यम, नियम, आसन, ध्यान, धारणा आदि आठ अंगों से संपन्न प्राणायाम की विविध क्रियाएं योग कहलाती हैं। इससे चित्त की एकाग्रता बढ़ती है। बुद्धि में स्थिरता आती है। चिंतन उत्कृष्ट होता है। मन में सद्विचारों का उदय होता है। नकारात्मक प्रवृत्तियां स्वत: समाप्त हो जाती हैं। परिणामत: आत्मिक और शारीरिक शक्तियों में वृद्धि होती है। इससे अपूर्व शांति का अनुभव होता है। फिर वह सत्संकल्प के साथ सत्पथ पर बढ़ता हुआ मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है।
वास्तव में योग के सभी सूत्र सुदृढ़ मानव जीवन की आधारशिला हैं। इसीलिए इसे समस्त संसार ने आत्मसात किया है। अत: दीर्घ जीवन की संजीवनी शक्ति के लिए प्रत्येक मनुष्य को योग करना चाहिए। योग ही जीवन को पूर्णता प्रदान करता है।