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Mahabharat Ka Yuddh: कौरवों का वो योद्धा, जो हमेशा कर्ण और दुर्योधन का तोड़ता था मनोबल!

Mahabharat Ka Yuddh महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया। आपको जानकर हैरानी होगी कि कौरवों की सेना में एक योद्धा ऐसा भी था जो हमेशा कर्ण दुर्योधन समेत अन्य युद्धाओं का मनोबल तोड़ता था। आइए पढ़ते हैं उनकी ​कथा।

By Kartikey TiwariEdited By: Published: Thu, 24 Sep 2020 01:21 PM (IST)Updated: Sat, 26 Sep 2020 07:18 AM (IST)
Mahabharat Ka Yuddh: कौरवों का वो योद्धा, जो हमेशा कर्ण और दुर्योधन का तोड़ता था मनोबल!
Photo Source: Taken From TV Serial Mahabharat

 Mahabharat Ka Yuddh: महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया। दोनों ही सेनाओं की ओर से एक से बढ़कर एक पराक्रमी और शूर वीर थे। 18 दिनों तक चले इस भीषण युद्ध में सैकड़ों लोगों ने अपनी जान गवां दी। पांडवों की तरफ से तो भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी मात्र थे, लेकिन पूरा संचालन वे ही कर रहे थे। कौरवों की ओर से भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण जैसे धुरंधर थे। आपको जानकर हैरानी होगी कि कौरवों की सेना में एक योद्धा ऐसा भी था, जो हमेशा कर्ण, दुर्योधन समेत अन्य युद्धाओं का मनोबल तोड़ता था। आइए पढ़ते हैं उनकी ​कथा।

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मद्रदेश के राजा और पांडु के साले राजा शल्य के पास उस समय बहुत बड़ी सेना थी और वे स्वयं बहुत बड़े रथी थे। उनके समान रथ चलाने वाला कोई और न था। वे पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के भाई तथा नकुल-सहदेव के सगे मामा थे। जब कौरवों और पांडवों में युद्ध की घोषणा हुई, तो पांडवों को पूर्ण विश्वास था कि राजा शल्य उनकी ओर से लड़ेंगे। लेकिन एक बार की बात है। राजा शल्य अपनी विशाल सेना के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे। तब उस समय रास्ते में हर जगह उनकी सेना के ठहराव और भोजन का बढ़िया प्रबंध किया गया था। उनकी सेना और अपनी आवभगत से वे बेहद खुश हुए।

जब वे हस्तिनापुर के पास पहुंचे तो वहां उन्होंने सेना के लिए बहुत बड़ा विश्राम स्थल देखा तथा भोजन का प्रबंध देखा तो बहुत खुश हुए। वे मन ही मन युधिष्ठिर को धन्यवाद देने लगे। तभी वहां छिपे दुर्योधन ने बताया कि ये सारी व्यवस्था उसने की है। वे उस स्वागत सत्कार से इतने खुश थे कि उन्होंने दुर्योधन को कुछ भी मांगने को कहा। तब इस अवसर का लाभ उठाकर दुर्योधन ने उनसे महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ने और सेना का संचालन करने की बात कही। वे अपने वचन से बंधे थे, उन्होंने दुर्योधन को एक शर्त के साथ हां कर दी। उन्होंने कहा कि वे कौरवों की ओर से लड़ेंगे, लेकिन उनकी जुबान पर उनका ही नियंत्रण होगा। दुर्योधन इसके लिए राजी हो गया।

जब युद्ध शुरु हुआ तो राजा शल्य कर्ण के सारथी बने। वे युद्ध भूमि हो या फिर सैन्य शिविर हर जगह पांडवों की प्रशंसा करके कर्ण, दुर्योधन और अन्य वीरों का मनोबल तोड़ते थे, उनको हत्तोत्साहित करने का काम करते थे। हालांकि युद्ध के अंत में जब कर्ण का वध हुआ तो वे ​कौरवों के सेनापति बनाए गए और वे भी वीरगति को प्राप्त हो गए।


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