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जीवन का उद्देश्य: जीवन का परम उद्देश्य परमात्मा की भक्ति ही है

हमारी संस्कृति में ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने जीवन की सार्थकता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। प्रत्येक युग और काल में वे प्राय यह समझाने का प्रयास करते रहे हैं कि हमारे जीवन का मूल उद्देश्य क्या है?

By Kartikey TiwariEdited By: Published: Wed, 29 Sep 2021 09:20 AM (IST)Updated: Wed, 29 Sep 2021 09:20 AM (IST)
जीवन का उद्देश्य: जीवन का परम उद्देश्य परमात्मा की भक्ति ही है
जीवन का उद्देश्य: जीवन का परम उद्देश्य परमात्मा की भक्ति ही है

अपने जीवन का उद्देश्य जानना प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में जीवन को सार्थक बनाना संभव नहीं। जीवन के उद्देश्य से साक्षात्कार में अध्यात्म हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम है। हमारी संस्कृति में ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने जीवन की सार्थकता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। प्रत्येक युग और काल में वे प्राय: यह समझाने का प्रयास करते रहे हैं कि हमारे जीवन का मूल उद्देश्य क्या है?

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रामभक्ति के शिखर संत एवं कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने हमारे लिए इस प्रश्न का उत्तर खोजना आसान बना दिया है। उन्होंने रामचरितमानस में लिखा है, ‘जिन्ह हरिभगति हृदय न¨ह आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी।।’ अर्थात जिसके हृदय में भगवान के प्रति भक्ति नहीं होती, वह प्राणी जीवित रहते हुए भी शव के ही समान होता है। तात्पर्य यह कि हृदय में भक्ति का होना ही हमारे जीवित होने अथवा जीवंतता का प्रमाण है और वस्तुत: यही जीवन का मूल उद्देश्य भी है।

गुरुनानकदेव जी ने भी इसे प्रमाणित किया है, ‘अति सुदर कुलीन चतुर मुखि गियानी धनवंत। मिरतक कहिअहि नानका जिह प्रीति नहीं भगवंत।।’ अर्थात यदि कोई व्यक्ति सुंदर, कुलीन, यशस्वी और धनवान भी हो तथा उसे प्रचुर सांसारिक ज्ञान भी प्राप्त हो, परंतु यदि परमात्मा से प्रीति नहीं है तो वह मृतक के समान ही है।

इसी प्रकार महान संत सहजो बाई ने भी जीवन की सार्थकता को सिद्ध करते हुए कहा है, ‘आये जग में क्या किया, तन पाला के पेट। सहजो दिन धंधे गया, रैन गयी सुख लेट।।’ अर्थात संसार में जन्म लेने के बाद जीवन भर क्या किया.. इस शरीर को खिलाया-पिलाया..पेट को बढ़ाया। दिन सांसारिक कार्यकलापों में गंवाया और रातें सोकर बिताईं।

स्पष्ट है कि ईश्वर भक्ति के बिना यह जीवन व्यर्थ है। यानी जीवन का परम उद्देश्य परमात्मा की भक्ति ही है, जिससे कर्मों के बंधन से मुक्ति संभव है। अन्यथा जीवात्मा को अनेक कल्पों तक अनेकानेक शरीर धारण कर भटकना पड़ता है।

चेतनादित्य आलोक


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