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वट-सावित्री, दृढ़ संकल्प की महत्ता बताता पर्व, अखंड सौभाग्य के लिए स्त्रियां रखती हैं व्रत

सौभाग्यवती महिलाएं बरगदाही अमावस्या (30 मई) को वट सावित्री का व्रत और पूजा अपने अखंड और दीर्घकाल तक के सौभाग्य के लिए आस्था के साथ करती हैं। बरगद ऐसा वृक्ष है जो धरती का पर्यावरणीय अनुकूलन करता है। वट-सावित्री व्रत के दौरान बरगद के वृक्ष की पूजा की जाती है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 23 May 2022 06:12 PM (IST)Updated: Mon, 23 May 2022 06:12 PM (IST)
वट-सावित्री, दृढ़ संकल्प की महत्ता बताता पर्व, अखंड सौभाग्य के लिए स्त्रियां रखती हैं व्रत
सावित्री की दृढ़ता पर विवाह संपन्न हो गया।

सलिल पाण्डेय। वटसावित्री व्रत की मान्यता सतयुग में पतिव्रता सावित्री द्वारा अपने पति को कठोर तपस्या के बल पर यमराज के चंगुल से मुक्त कराने से जुड़ी है। इस कथा की गहराई में उतरने पर स्पष्ट होता है कि स्त्री अबला नहीं है। यदि वह दृढ़ संकल्पित हो जाए तो वह बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकती है। इस कथा का एक संदेश यह भी है कि पर-हित के लिए स्वयं के हित का परित्याग करने पर देवी शक्तियां अनुकूल हो जाती हैं।

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पौराणिक कथा के अनुसार, सावित्री मद्रदेश के राजा अश्वपति की कन्या थीं। संतानविहीन राजा ने वेदमाता सावित्री (सूर्य की पुत्री) की कठोर तपस्या की थी, जिनके वरदान से पैदा हुई कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया। सूर्य की कृपा से प्राप्त कन्या सावित्री के तेज के चलते कोई राजकुमार जब विवाह योग्य नहीं मिला तो सावित्री ने धर्मनिष्ठ एवं सत्यनिष्ठ शाल्वदेश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र से स्वयं वरण करने का निर्णय किया। विवाह की तैयारी शुरू हुई। इसी बीच महर्षि नारद आ गए और सत्यवान की आयु एक साल ही बताया। पिता की चिंता देख सावित्री ने कहा कि एक पति को कन्यादान का संकल्प और किसी प्रकार के दान की घोषणा को स्वहित में बदलना शास्त्रविरुद्ध है। सावित्री की दृढ़ता पर विवाह संपन्न हो गया।

नारद जी द्वारा बताए गए मृत्यु-दिवस के चार दिन पूर्व सावित्री को बुरा स्वप्न आया। दूसरे दिन वह निराहार व्रत का संकल्प लेकर यज्ञ-समिधा के लिए पति के साथ जंगल में लकड़ी लेने खुद चलने के लिए कहती हैं। उनके श्वसुर अनुमति दे देते हैैं। इन दिनों द्युमत्सेन का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया था तथा खुद राजा की आंख की रौशनी गायब हो गयी थी। सत्यवान को उस दिन लकड़ी काटते हुए अचानक सिर में तेज दर्द होने लगा। सावित्री पति का सिर गोद में लेकर बरगद की छांह में बैठ गयीं। तभी एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ और सत्यवान का अंगुष्ठ बराबर प्राण लेकर जाने लगा। सावित्री ने दिव्य पुरुष से पूछा- आप कौन हैं? जवाब मिला- मैं यमराज। फिर सावित्री बोली- प्राण लेने तो आपके यमदूत आते हैं, आप स्वयं क्यों आए? इस पर वे बोले-सत्यवान एक धर्मनिष्ठ और सत्यनिष्ठ राजकुमार है, इसलिए मैं स्वयं आया, दूतों में सत्यवान को ले जाने की क्षमता नहीं है।

सावित्री यमराज के साथ चलने लगीं। उन्होंने उनसे लौटने को कहा तो सावित्री ने सत्यवान के प्राण वापस करने के बाद लौटने की बात कही। यमराज ने इसके बदले में कुछ और मांगने को कहा। इन्हीं संवादों के बीच उसने अपने श्वसुर द्युमत्सेन की नेत्रज्योति वापस आने, खोया हुआ राज्य वापस होने और स्वयं के पुत्रवती होने का वरदान यमराज से ले लिया। क्रूर कार्य करने वाला सत्यनिष्ठ के आगे असंतुलित हो जाता है। वरदान के बाद भी सावित्री उनके पीछे चल रही थीं। यमराज ने कहा अब वापस क्यों नहीं जातीं। तब सावित्री ने कहा-पुत्रवती होने का आप वरदान दे चुके हैं, पति के बिना यह कैसे संभव है। अंत में जीत सावित्री की होती है। यमराज को सत्यवान के प्राण वापस करने पड़े।


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