मन की गांठ व्यक्तित्व की सरलता को नष्ट कर देती है
मन की ये गांठें हमारे व्यक्तित्व की सरलता और सहजता को नष्ट कर देती हैं। तभी तो कहते हैं कि मधुर रस से संपूर्ण भरे गन्ने में जहां-जहां गांठ होती है वहां-वहां रस नहीं होता। यह रसविहीनता या कुटिलता परस्पर संबंधों के लिए हानिप्रद है।
स्वभाव की सहजता एक सरस और श्रेष्ठ हृदय की विशिष्टता होती है। सहज मन हमें संवेदनापूर्ण और ग्रहणशील बनाता है। इसके विपरीत प्राय: लोग मन में दुर्भावनाओं की गांठ बना लेते हैं। मन की ये गांठें हमारे व्यक्तित्व की सरलता और सहजता को नष्ट कर देती हैं। तभी तो कहते हैं कि मधुर रस से संपूर्ण भरे गन्ने में जहां-जहां गांठ होती है, वहां-वहां रस नहीं होता। यह रसविहीनता या कुटिलता परस्पर संबंधों के लिए हानिप्रद है। वास्तव में मन की यह गांठ व्यक्ति में दृष्टिदोष उत्पन्न करती है। दृष्टिदोष वाला व्यक्ति दूसरे के सद्गुणों को भी ग्रहण नहीं कर पाता। जैसे जंगल में चंदन के वृक्ष के अत्यंत निकट रहने वाले सभी वृक्ष चंदन की सुवास से सुवासित हो जाते हैं, पर गांठों से भरे बांस में चंदन की निकटता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
यदि हम गहराई से देखें तो पाएंगे कि मन की गांठ हमारे हृदय की आंखों को मूंद देती है, जिससे हम वास्तविक सत्य और अपने हितैषी की पहचान नहीं कर पाते। यही मन की गांठ हममें द्वेष को उत्पन्न करती है। द्वेष मिटाने के लिए जिस प्रेम की सरसता की आवश्यकता होती है, वह मन की गांठ वाले व्यक्ति में नहीं मिलती। मन के धागे में लगी गांठ के साथ संबंधों की तुरपन संभव नहीं है, क्योंकि जब धागे में गांठ लग जाती है तो न तो उसे सुई में डालना संभव है और न ही उससे सिलना। वास्तव में मन की गांठ के बजाय मन की सहजता जीवन संबंधों के संगीत के लिए आवश्यक है, क्योंकि मधुर धुन निकालने वाली बांसुरी, बांस की उसी पोंगी से बन पाती है जिसमें गांठ नहीं होती।
अंतर्मन की छल-कपट की गांठों से रहित सहजता जीवन की मधुरता के लिए पहली कसौटी है। मन की स्थिति ही सुख-दुख का कारण है। इसीलिए एक ही विषय को पाकर किसी का मन खुश होता है और किसी का दुखी। वास्तव में यह मन की सहजता और कुटिलता का ही भेद है।
डा. प्रशांत अग्निहोत्री