मान्यता है कि मंदिर में मूर्ति के पास बैठ कर ध्यान करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है
दरअसल मूर्ति वो है जो एक देवी या देवता की छबि है। जिसका उद्देश्य आस्था और विश्वास यही देव-देवता उस मूर्ति में मौजूद हैं। हिंदू धर्म में इन्हीं मूर्तियों को प्रतिमा और विग्रह कहा गय
मोहनजोदड़ो और हडप्पा काल से ही मूर्ति पूजा का प्रचलन भारतीय हिंदू धर्म में रहा है। उस समय के मिले साक्ष्यों के अनुसार पशुपति शिव की मूर्तियां मिलीं हैं। यह इस बात का प्रमाण हैं कि मूर्ति पूजा का चलन उस समय भी था और आज भी है। कहते हैं भगवान बुद्ध को मूर्ति पूजा में रूचि नहीं थी लेकिन गौतम बुद्ध के रहते ही उनकी मूर्ति पूजा का प्रचलन हो चुका था, इन मूर्तियों को बुत कहा जाने लगा।
दरअसल मूर्ति वो है जो एक देवी या देवता की छबि है। जिसका उद्देश्य आस्था और विश्वास यही देव-देवता उस मूर्ति में मौजूद हैं। हिंदू धर्म में इन्हीं मूर्तियों को प्रतिमा और विग्रह कहा गया है।
वैसे, प्रतिमा एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है किसी देवता की छवि या समानता। मूर्ति भी संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है किसी भी प्रतिबिम्ब को साकार रूप में की गई अभिव्यक्ति। विग्रह संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है किसी देवी या देवता का आकार।
मूर्ति कला एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें सकारात्मक ऊर्जा को पिरोया गया है। मूर्ति घर में हो या मंदिर में हमेशा सकारात्मक ऊर्जा का समावेश हमारे मन में करती है। मूर्ति का आधार पूरी तरह से वैज्ञानिक है।
प्राचीन समय मंदिर बनाने का उद्देश्य केवल मूर्तियों की पूजा तक ही सीमित नहीं था। इसके अलावा परिक्रमा करने का स्थान, गर्भ गृह आदि सब बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। यहां तक कि मूर्ति को बनाने के दौरान पढ़े जाने वाले मंत्र भी उनमें ऊर्जा भरने के लिए उपयोगी माने जाते हैं। मान्यता है कि मंदिर में मूर्ति के पास बैठ कर ध्यान करने सकारात्मक ऊर्जा शरीर और मस्तिष्क में प्रवेश करती है।
मूर्ति पूजा के संदर्भ में वेदों में भी उल्लेख है। यजुर्वेद अध्याय 32, मंत्र 3 में उल्लेखित है कि, 'न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस:' यानी उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है। थोड़े और पन्ने पलटने पर यजुर्वेद अध्याय 32, मंत्र 8 में उल्लेखित है कि, 'वेनस्त पश्यम् निहितम् गुहायाम' यानी विद्वान पुरुष ईश्वर को अपने हृदय में देखते है।