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पंडित रामकिंकर उपाध्याय पुण्यतिथि: ज्ञान, भक्ति और प्रवचन कला की त्रिवेणी

श्रीराम चरित मानस की किसी एक चौपाई पर सप्त अथवा नौ दिवसीय अभूतपूर्व प्रस्तुति के साथ रामकिंकर जी लोगों के मन बुद्धि और चित्त में सीधे उतर जाते थे।

By Kartikey TiwariEdited By: Published: Sun, 09 Aug 2020 06:47 AM (IST)Updated: Sun, 09 Aug 2020 07:18 AM (IST)
पंडित रामकिंकर उपाध्याय पुण्यतिथि: ज्ञान, भक्ति और प्रवचन कला की त्रिवेणी
पंडित रामकिंकर उपाध्याय पुण्यतिथि: ज्ञान, भक्ति और प्रवचन कला की त्रिवेणी

राजू मिश्र। श्रीराम जयराम जय जय राम...एक धीर-गंभीर स्वर के साथ हजारों प्रबुद्ध श्रोताओं का कोरस। सात से आठ मिनट का मंगलाचरण और ध्यान। फिर बताया जाता कि आप सब नेत्र बंद करें और भगवान की राज्यसभा में चलें जहां सरयू के किनारे स्वर्णिम सिंहासन पर प्रभु श्रीराम सीता जी के साथ विराजमान हैं, श्री भरत जी पीछे छत्र लेकर खड़े हैं, भगवान के दाहिने ओर श्रीलक्ष्मण जी धनुष और बाण लेकर खड़े हैं और बाईं ओर शत्रुघ्न जी चंवर डुलाकर अपनी सेवायें अर्पित कर रहे हैं, हनुमान जी महाराज हमेशा की तरह चरणों में बैठे हैं। सारे देवी देवता और अयोध्या के नागरिक उस सभा में उपस्थित हैं। वस्तुत: दिखाई देने वाला जो वक्ता है, उसके अंदर प्रभु वक्तृत्व रूप में और आप सब श्रोताओं के अंदर श्रोता रूप में प्रभु ही कथा सुन रहे हैं और सुना रहे हैं। प्रवचन प्रारंभ करने से पहले युगतुलसी पंडित रामकिंकर उपाध्याय इस ध्यान के द्वारा श्रोताओं के रूप में उपस्थित बड़े विशिष्टाद्वैत समूह को अद्वैत कर देते थे। इसी के साथ वातावरण में जिज्ञासा की एक दिव्य सिहरन हो जाती थी। प्रवचन घड़ी की सुई देखकर एक घंटा चलता। पूरा माहौल एकदम शांत। प्रवचन सुनने वालों में समाज का कुलीन वर्ग तो होता ही था, लेकिन आम आदमी की भी भरपूर उपस्थिति रहती थी।

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तमाम विशेषण लगाये लोगों ने युगतुलसी के ऊपर, पर वे केवल राम के किंकर ही रहे। श्रीराम चरित मानस की किसी एक चौपाई पर सप्त अथवा नौ दिवसीय अभूतपूर्व प्रस्तुति के साथ वे लोगों के मन, बुद्धि और चित्त में सीधे उतर जाते थे। यह भी महत्वपूर्ण है कि उनके प्रवचन में कहीं भी आजकल के चलन की तरह गीत-संगीत नहीं होता था। केवल उनके शब्द होते और चेहरे पर अपूर्व भक्ति की छाप। कोलकाता हो चाहे दिल्ली, रायपुर हो या लखनऊ। मंच पर कथा सम्राट और कमरे में विनम्र और बिल्कुल साधारण से बैठकर वह किसी से भी मिलते थे और जिसको जो चाहिए वह दे देते थे। उनके पास लेने के लिए भाव और देने के लिए सब कुछ था। वे श्रोता के अंदर जब उतरते थे, तो दूसरे की तो दूर अपनी खांसी भी लोगों को सुहाती नहीं थी। लगभग एक सवा घंटे का वह सामूहिक समाधिकाल रहता था।

रामकिंकर जी ने तुलसीदास जी का सबसे बड़ा काम यह किया कि तुलसी की ही तरह वे किन्हीं पात्रों के संवाद में अपने व्यक्तित्व को नहीं लाए, मनुष्य रूप में इतनी साधुता के बाद किसी विशेषण के वे मोहताज नहीं थे। वह पहले ऐसे मानस मर्मज्ञ थे जिनका प्रवचन राष्ट्रपति भवन में नौ दिन तक चला और प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पूरे समय उपस्थित रहकर कथा श्रवण किया। कानपुर में मानस संगम के कार्यक्रम में एक नामी साहित्यकार ने लेखक से कहा-बिना रामकिंकर जी के रामायण समझी ही नहीं जा सकती है।

युगतुलसी राम को ज्ञान, सीता को भक्ति और लक्ष्मण को वैराग्य बताकर पूरी रामायण को आध्यात्मिक प्रतीकों से वेद और लोक को जोड़ने वाली सटीक व्याख्या करके मंच से ऐसे उतरते थे कि जैसे प्रवचन किसी और ने किया था। उडिय़ा बाबा, हरि बाबा, स्वामी अखंडानंद जी से लेकर आजकल चिन्मय मिशन के निवर्तमान अध्यक्ष स्वामी तेजोमयानंद जी उनके श्रोता रहे। प्रयागराज में महीयषी महादेवी वर्मा प्रवचन श्रवण के लिए रोज आतीं और कहतीं थीं कि रामकिंकर जी को सुनना माने राम को जान लेना और देख लेने जैसा लगता है। रामकिंकर जी को वे भैया करके संबोधित करती थीं। एक दिन पंद्रह मिनट पहले आ गईं। अपनी एक कविता की अर्धाली सुनाई। बाद में रामकिंकर जी ने महादेवी जी का नाम लेकर कई जगह मंचों पर दोहराया।

एक बार कानपुर में तुलसी उपवन में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण जी की मूर्ति का अनावरण समारोह था। संयोजक थे बद्रीनारायण तिवारी। मुख्य अतिथि थे अटलबिहारी वाजपेयी, अध्यक्षता तो रामकिंकर जी का एकाधिकार था। उस दिन पता चला कि किंकर जी और अटल जी में कितनी आत्मीयता थी। अटल जी ने कहा कि भई हम लोगों को साहित्यकारों की गोष्ठी में भी सम्मान दिया जाता है और नेताओं की गोष्ठी में भी, तो इन सभाओं में तो साहित्यकारों का सम्मान होना चाहिए। रामकिंकर जी ने उनकी इस बात पर मीठी चुटकी लेते हुए कहा कि मैं अटल जी की हर बात से सहमत हूं पर इस बात से नहीं कि नेताओं को साहित्यकारों के मंच पर सम्मान नहीं दिया जाना चाहिए, मैं तो चाहता हूं कि नेताओं को हर मंच पर सम्मान मिलना चाहिए, क्योंकि नेता बेचारे को तो केवल जीवन में ही सम्मान मिलना है, साहित्यकार को तो मरणोपरांत भी न जाने कब तक सम्मान मिलता ही रहेगा। इस बात पर अट्टहास करके हंसे अटल जी और दिल्ली में रामकिंकर जी का नाम लेकर यह बात कई जगह कही और सुनाई। भारत के वह पहले ऐसे मानसवेत्ता थे जिन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया।

वास्तव में रामकिंकर जी का प्रवचन सुनना अपने को बुद्धिजीवी प्रमाणित करने सरीखा होता था। कुछ वाक्य और शब्द ऐसे होते थे जिन पर उनका ट्रेडमार्क जान पड़ता था। प्रवचन में इन शब्दों का वह भरपूर उपयोग करते थे। जैसे, इसका तात्पर्य क्या है। गोस्वामी जी कहना क्या चाहते हैं? अंततोगत्वा, अभिप्राय, इसको जरा अंतरंग में पैठकर देखें। यह सब उनके वे बेजोड़ जोड़ थे जिन्हें वे न जाने कितने प्रसंगों में लगाकर एक सुन्दर पोशाक तैयार करते थे और कभी हनुमान जी को पहना देते, तो कभी भरत जी को तो कभी सीता जी को। श्रोता यह नहीं समझ पाता था कि इसमें जोड़ कहां लगा है।

युग तुलसी शब्द उनके साथ लगा। काफी भावपूर्ण शब्द है, क्योंकि रामकिंकर जी ने राम को वेदांतवेद्यंविभुम सिद्ध किया और केवट के गांव में ले जाकर उसके कठौते को जनक जी के सोने के थाल से रत्ती भर कम नहीं होने दिया। चित्रकूट की पंचवटी में श्री भरत को केवट बता रहा है कि वह देखिये हमारे प्रभु श्रीराम माता सीता जी के साथ बैठे हैं। तब तो वे केवट को सारी अयोध्या से चित्रकूट पहुंचे नागरिकों और पूज्य लोगों का भी प्रणम्य बनाये बगैर नहीं छोड़ते थे।


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