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Ramcharitmanas: कैसे लोगों के हृदय में बसते हैं भगवान राम? रामचरितमानस में है इसका वर्णन

Ramcharitmanas तुलसी कृत रामचरितमानस में भक्तों के 14 प्रकार बताए गए हैं। उनका हृदय कैसा होता है इस बारे में भी वर्णन मिलता है। आज हम आपको एक ऐसे राम भक्त के हृदय के बारे में बता रहे हैं जिनमें श्रीराम निवास करते हैं।

By Kartikey TiwariEdited By: Published: Tue, 13 Oct 2020 03:08 PM (IST)Updated: Tue, 13 Oct 2020 03:08 PM (IST)
Ramcharitmanas: कैसे लोगों के हृदय में बसते हैं भगवान राम? रामचरितमानस में है इसका वर्णन
कहा जाता है कि भगवान को पाना बेहद ही आसान है

Ramcharitmanas: कहा जाता है कि भगवान को पाना बेहद ही आसान है, लेकिन उसके लिए कुछ बाते हैं, जिनको अपने अंदर समाहित करने की आवश्यकता होती है।भगवान तो भाव के भूखे हैं। जिस भावना से जो उनको याद करता है, वैसे ही वो उनको प्राप्त करता है। तुलसी कृत रामचरितमानस में भक्तों के 14 प्रकार बताए गए हैं। उनका हृदय कैसा होता है, इस बारे में भी वर्णन मिलता है। आज हम आपको एक ऐसे राम भक्त के हृदय के बारे में बता रहे हैं, जिनमें श्रीराम निवास करते हैं।

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काम कोध्र मद मान न मोहा।

लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।

जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया।

तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।।

रामचरितमानस के अयोध्याकांड में महर्षि बाल्मीकि जी ने ये पंक्तियां भगवान राम से तब कहीं हैं, जब वे सीता जी और लक्ष्मण के साथ वन में अपने रहने के लिए स्थान पूछ रहे थे। तब बाल्मीकि जी ने पहले तो 14 प्रकार के भक्तों के हृदय में रहने का संकेत किया और बाद में उनसे चित्रकूट में निवास करने का अनुरोध किया।

ये पंक्तियां आठवें प्रकार के भक्त के हृदय का वर्णन है, जिसमें बाल्मीकि जी कहते हैं जिन भक्तों के मन में काम, क्रोध, मद, मान और मोह न हो और लोभ, क्षोभ के साथ राग और द्वेष भी न हो। जिन भक्तों के हृदय में कपट, दंभ और माया न हो, कृपया आप उन भक्तों के हृदय में रहिए।

इसमें बताया गया है कि उन ज्ञानी या भक्तों के हृदय में भगवान रहते हैं, जिनका अंत:करण (चित्त) बिल्कुल पवित्र हो चुका है, जिनको न तो कुछ दिखाने की इच्छा है, न ही कुछ छिपाने की। माया से न तो वे स्वयं ग्रसित हैं और न ही दूसरों को माया में फंसाते हैं क्योंकि किसी भी विकार को अपनी पूर्णता के लिए द्वैत की आवश्यकता होती है और ज्ञानी स्वयं में अद्वैत है। भक्त भगवान के साथ अद्वैत भाव में ही रहता है।

- संत मैथिलीशरण (भाईजी)


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