जीवन का पाथेय: मानवता की सेवा मानव जीवन का प्रथम और अंतिम उद्देश्य है
तुलसीदास जी ने मानस में मानव शरीर को सभी साधनों का धाम और मुक्ति का द्वार कहा है। जो मानवता की सेवा से ही संभव है। चूंकि मन सभी क्रियाओं का अधिष्ठाता है। अत यह तभी संभव है जब यह मन शिवसंकल्पी हो क्योंकि यही लोककल्याणकारी चिंतन का आधार है।
मानव शरीर विधाता का अनुपम वरदान है, साथ ही इस भू लोक की सवरेत्कृष्ट रचना भी। शरीर केवल अस्थि, मज्जा का पिंड मात्र नहीं है। इसकी संरचना में विज्ञान और अध्यात्म का भी समन्वय है। जो सदैव इसकी क्रियाशीलता में दृष्टिगोचर होता है। आत्मतत्व इस शरीर का अधिष्ठाता है। जिसके अभाव में यह मिट्टी का पिंड मात्र है। दस इंद्रियां, चित्त, मन और बुद्धि इसके संचालक हैं। इसके अतिरिक्त विवेक शक्ति का उपहार केवल मनुष्य को प्रदान किया गया है जो इसे अन्य प्राणियों से श्रेष्ठतर बनाता है।
सत् और असत् का ज्ञान कराने से यही सत्पथ का प्रदर्शक भी है। प्यार, दया, करुणा, सद्भाव और परोपकार जैसे सात्विक भाव इस पिंड की ऊर्जा के वास्तविक स्नोत हैं। जो केवल इसकी शारीरिक ही नहीं, मानसिक शक्ति को भी बढ़ाते हैं तथा रोगों से लड़ने की ताकत देते हैं। अत: दैनिक आहार के साथ ये सात्विक भाव मानव जीवन यात्रा के आवश्यक पाथेय हैं। यही मनुष्य की स्वस्थ दिनचर्या का निर्माण भी करते हैं।
दुर्भाग्य से शरीर विज्ञान का अध्ययन करते समय इसके आध्यात्मिक पक्ष को कम समझा गया है। अध्यात्म को समझे बिना शरीर विज्ञान को नहीं समझा जा सकता और न शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है। इसके लिए मानव जीवन का उद्देश्य समझना जरूरी है।
मानवता की सेवा मानव जीवन का प्रथम और अंतिम उद्देश्य है। जिसकी प्राप्ति इन्हीं सात्विक भावों से होती है। जीवन का वास्तविक सुख और आनंद भी इन्हीं से प्राप्त किया जा सकता है। यही मनुष्य की लौकिक व आध्यात्मिक यात्र का बीज मंत्र है।
इसी कारण तुलसीदास जी ने मानस में मानव शरीर को सभी साधनों का धाम और मुक्ति का द्वार कहा है। जो मानवता की सेवा से ही संभव है। चूंकि मन सभी क्रियाओं का अधिष्ठाता है। अत: यह तभी संभव है जब यह मन शिवसंकल्पी हो, क्योंकि यही लोककल्याणकारी चिंतन का आधार है। यही मानव जीवन का पाथेय भी है।
डा. सत्य प्रकाश मिश्र