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जीवन से जुड़े हैं श्राद्घ जानें इस अवसर पर प्रयोग होने वाले कुछ मंत्र

श्राद्घ का आपके जीवन के साथ गहरा संबंध है ये बता रही हैं ऋद्घि विजय त्रिपाठी आैर जानिए इस अवसर से संबंधित कुछ मंत्रों के बारे में भी।

By Molly SethEdited By: Published: Tue, 25 Sep 2018 09:35 AM (IST)Updated: Thu, 27 Sep 2018 09:14 AM (IST)
जीवन से जुड़े हैं श्राद्घ जानें इस अवसर पर प्रयोग होने वाले कुछ मंत्र
जीवन से जुड़े हैं श्राद्घ जानें इस अवसर पर प्रयोग होने वाले कुछ मंत्र

श्राद्घ के विभिन्न स्वरूप 

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शास्त्रों में श्राद्घों के विभिन्न रूप बताये गए हैं। पौराणिक मान्यताआें के अनुसार पितृ पक्ष के अतिरिक्त अन्य पर्वों पर भी यह श्राद्ध किया जाता था। इसमें से कुछ इस प्रकार हैं, गोष्ठी श्राद्ध, विद्वानों को सुखी समृद्ध बनाने के उद्देश्य से किया जाता था। इससे पितरों की तृप्ति होना स्वाभाविक है। शुद्धि श्राद्ध, शारीरिक मानसिक और अशौचादि अशुद्धि के निवारण के लिए किया जाता है। कर्मांग श्राद्ध, सोमयाग, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन आदि के अवसर पर किया जाता है। दैविक श्राद्ध, देवताओं की प्रसन्नता के लिए किया जाता है। यात्राश्राद्ध, यात्रा काल में किया जाता है। पुष्टिश्राद्ध, धन-धान्य समृद्धि की इच्छा से किया जाता है। धर्मशास्त्रों में श्राद्ध के सम्बन्ध में इतने विस्तार से विचार किया गया है कि इसके सामने अन्य समस्त धार्मिक कृत्य मामूली से लगने लगते हैं।

जीवन से श्राद्घ का संबंध 

शास्त्रकारों ने अपने पांडित्य और मनोविज्ञान का काफी विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब घर में कोई नयी समृद्धि सूचक वस्तु आती है या मांगलिक उत्सव होता तो उस समय अपने स्वर्गीय जनों की याद किया जाता है। इसकी वजह ये है कि जो कभी हमारे सुख, दुःख में सम्मिलत होते थे, उनकी स्मृति मिटाए नहीं मिटती। अतः यह इच्छा स्वाभाविक है कि वह अज्ञात लोक के वासी भी हमारे आनन्दोत्सव में सम्मिलित हों, शरीर से न सही, आत्मा से हमारे साथ रहें, अतः उनके प्रति श्रद्धावनत होना स्वाभाविक है। उनका शास्त्रीय मंत्रों द्वारा मानसिक आवाहन, पूजन ही श्राद्ध है। इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मन की भावना बड़ी प्रबल होती है। श्रद्धाभिभूत मन के सामने स्वर्गीय आत्मा सजीव और साकार हो उठती है। श्राद्ध में माता-पिता आदि के रूप का ध्यान करना आवश्यक कर्तव्य निर्धारित किया गया है। कर्इ लोगों का यह अनुभव है कि श्राद्ध के समय माता-पिता, पिता या किसी अन्य स्नेही की झलक दिखाई दी। आज का मनोविज्ञान भी श्राद्ध के इस सत्य के निकट पहुंचता जा रहा है।

 

श्राद्घ आैर मंत्र 

मृतक की अन्त्येष्टि और श्राद्ध की जो व्यवस्था इस समय प्रचलित है, वह हमारे वेदों में वर्णित है। गृह्यसूत्रों में पितृयज्ञ अथवा पितृश्राद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। आश्वलायन गृह्मसूत्र की सातवीं और आठवीं कण्डिका में विस्तार पूर्वक श्राद्ध विधि वर्णित की गयी है। मूलतः वेदों में भी श्राद्ध और पिण्डदान का उल्लेख किया गया है। श्राद्ध में जो मंत्र पढ़े जाते हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं ‘अत्र पितरो मादमध्वं यथाभागमा वृषायध्वम।’ यानि इस पितृयज्ञ में पितृगण हृष्ट हो और अंशानुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करें। ‘नम वः पितरो रसाय। नमो वः पितरो शोषाय।’ इसका अर्थ है कि पितरों को नमस्कार ! बसन्त ऋतु का उदय होने पर समस्त पदार्थ रसवान हों। तुम्हारी कृपा से देश में सुन्दर बसन्त ऋतु प्राप्त हो। पितरों को नमस्कार ! ग्रीष्म ऋतु आने पर सर्व पदार्थ शुष्क हों। देश में ग्रीष्म ऋतु भलीभाँति व्याप्त हो।’ इस प्रकार छहों ऋतुओं के पूर्णतः सुन्दर, सुखद होने की कामना और प्रार्थना की गयी है। यह भी कहा गया है कि ‘पितरों, तुम लोगों ने हमको गृहस्थ बना दिया है, अतः हम तुम्हारे लिए दातव्य वस्तु अर्पित कर रहे हैं।’

वेदों के बाद हमारे स्मृतिकारों और धर्माचार्यों ने श्राद्धीय विषयों को बहुत व्यापक बनाया और जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध कर दिया। मनुस्मृति से लेकर आधुनिक निर्णय सिन्धु, धर्मसिन्धु तक की परम्परा यह सिद्ध करती है कि इस विधि में समय समय पर युगानुरूप संशोधन, परिवर्धन व परिवर्तन होता रहा है। नयी मान्यता, नयी परिभाषा, नयी विवेचना और तदनुरूप नई व्यवस्था बराबर होती रहती है। 


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