कर्तव्य: मनुष्य मात्र में स्वयं का चरित्र तथा आत्मबोध है कर्तव्य
भावना प्रधान चेष्टा एक तपस्या है जो मन को पवित्र बनाती है। कर्तव्य को परिभाषा में बांधना कठिन है क्योंकि यह व्यापक परम तत्व का आश्रय है। प्राणी को अपने कर्तव्यों के ज्ञान और आत्मप्रेरणा से सद्कर्म की यात्र पूर्ण करनी है।
कर्मयोग का सार तत्व ‘कर्तव्य’ है, जो करने योग्य कर्म, सद्कर्म, अच्छे कार्य की भावना से गतिशील होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक कर्तव्यों की निरंतरता जीवन के शून्य को मूल्यों से भरती है। हमारे कर्तव्य ही कर्मयोग की चेतना हैं। राजयोग, भक्तियोग और प्रेमयोग में कर्तव्य विमुख नहीं होते। मानव मात्र में कर्तव्य सदैव धर्म के प्रहरी हैं। इसलिए कर्तव्य की भावना जीवन का महायज्ञ है।
भावना प्रधान चेष्टा एक तपस्या है, जो मन को पवित्र बनाती है। कर्तव्य को परिभाषा में बांधना कठिन है, क्योंकि यह व्यापक परम तत्व का आश्रय है। प्राणी को अपने कर्तव्यों के ज्ञान और आत्मप्रेरणा से सद्कर्म की यात्र पूर्ण करनी है। ऐसे कर्म जो करने योग्य नहीं हैं, वे कष्ट और संकट को आमंत्रित करते हैं।
जीवन के उद्देश्यों को लक्ष्य की ओर बढ़ाना, यह स्वयं को निर्धारित करना होता है। माता, पिता, गुरु या ईश्वर इसको निर्धारित नहीं करते। कर्तव्य मनुष्य मात्र में स्वयं का चरित्र तथा आत्मबोध है। यह सहज और सरल आत्म अनुशासन है। जीवन भर सीखने और सीख को धारण करने की प्रबल प्रक्रिया से कर्तव्य का दर्शन प्रकट होता है। सत्य को आत्मसात करने से कर्तव्य की भावना जागृत होती है। सो, बार-बार सत्य को सवरेपरि माना गया है।
सत्य से प्रेरित यह कर्तव्य ही धर्म है।
कर्तव्य पथ पर चलते हुए मानव को अपनी दिशा में सफलता का विश्वास होता है। ऐसा महामानव सभी परिस्थितियों में कर्तव्य को सबसे बड़ी शक्ति मानता है। कर्तव्य को ही अपनी पूजा, प्रार्थना, आराधना, स्तुति और जप-तप मानने वाला मनुष्य सभी दुखों तथा संतापों से मुक्त हो जाता है।
हृदय में कर्तव्य का बीज एक वटवृक्ष बनकर संसार को शांति और समृद्धि की छाया भी प्रदान करता है। प्रयोगधर्मी साधु जन विश्वकल्याण के लिए कर्तव्य की भावना की अलख जगाने नित्य सचेष्ट होते हैं। उनका जीवन कर्तव्य के लिए समर्पित होता है। हमें इसी भावना से अपने लक्ष्य को पाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
डा. राघवेंद्र शुक्ल