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अखाड़ों के बिना धार्मिक लक्ष्य पाना कठिन

निरंजनी अखाड़े के वरिष्ठ श्रीमहंत रवीन्द्र पुरी के ऊपर ही पूरे अखाड़े का भार है। वे मानते हैं कि सनातन धर्म की रक्षा सिर्फ अखाड़े ही कर सकते हैं। उनका कहना है कि अखाड़े जिन साधु संतों को मान्यता देते हैं उन्हें ही आम जनता भी मान्यता देती है। स्वामी जी के मुताबिक अखाड़े जिन साधकों को धर्माचार्य या महामंडलेश्वरों की पदवी देते हैं उनकी योग्यता और उनके अध्यात्मिक प्रभाव की पूरी जांच परख करते हैं।

By Edited By: Published: Thu, 14 Feb 2013 12:28 PM (IST)Updated: Thu, 14 Feb 2013 12:28 PM (IST)
अखाड़ों के बिना धार्मिक लक्ष्य पाना कठिन

निरंजनी अखाड़े के वरिष्ठ श्रीमहंत रवीन्द्र पुरी के ऊपर ही पूरे अखाड़े का भार है। वे मानते हैं कि सनातन धर्म की रक्षा सिर्फ अखाड़े ही कर सकते हैं। उनका कहना है कि अखाड़े जिन साधु संतों को मान्यता देते हैं उन्हें ही आम जनता भी मान्यता देती है। स्वामी जी के मुताबिक अखाड़े जिन साधकों को धर्माचार्य या महामंडलेश्वरों की पदवी देते हैं उनकी योग्यता और उनके अध्यात्मिक प्रभाव की पूरी जांच परख करते हैं। अखाड़ों को साथ लिए बिना कोई भी धार्मिक लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हैं। अन्य संगठन जो धर्म रक्षा की दुहाई देते हैं वह भी अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन वे सहयोग के लिए अखाड़े के पास आते हैं। रवीन्द्र पुरी कहते हैं कि अखाड़ों की धर्मध्वजा ही सनातन धर्म की पहचान है। राजनेता भी अखाड़ों से परामर्श लेते हैं लेकिन अखाड़े, राजनीति से बहुत दूर रहते हैं। अखाड़े के साधु संत अपनी पहचान किसी को नहीं बताते हैं। एक बार घर बार छोड़ा और अपना पिंडदान किया तो उनकी दुनिया अखाड़ा ही होती है। वे कहते हैं देश पर जब संकट आया है अखाड़ों ने भी आगे बढ़ चढ़ कर उसका सामना किया है और हर स्तर पर सहयोग किया। महंत रवीन्द्र पुरी से रवि उपाध्याय की बातचीत के प्रमुख अंश-

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बाल्यकाल में सांसारिक जीवन छोड़ कर साधु बन गए महंत रवीन्द्र पुरी अपनी पहचान बताने से बचते हैं। विभिन्न गुरुओं के सानिध्य में उन्होंने वेद-वेदांत की शिक्षा ग्रहण की। हरिद्वार के गुरुकुल में अध्ययन करने के बाद हिमालय में साधना की। वे कहते हैं कि बचपन से ही विश्र्वामित्र, वशिष्ठ और स्वामी विवेकानंद उनके आदर्श रहे हैं। वे उनके जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। हरिद्वार, हरियाणा, जम्मू, पंजाब, दिल्ली में उनके आश्रम हैं। इन आश्रमों के माध्यम से लगातार धर्म के प्रचार प्रसार में वे लगे रहते हैं। वे कहते हैं कि जीवन को अब ईश्‌र्र्वर को समर्पित कर दिया है। अब प्रभु प्राप्ति ही उनकी मंजिल है।

सांसारिक जीवन छोड़े आपको काफी समय हो गया है। क्या आपको अब लगता है यह निर्णय सही था?

ईश्‌र्र्वर की जो इच्छा थी वही होता है। बाल्यकाल में घर बार छोड़ दिया था। मन में विश्र्वामित्र और वशिष्ठ जैसे गुरु खोजना और उन जैसा बनने की चाह थी। ऐसे गुरु भी मिले। अब अपने से जो बन पड़ रहा है वैसा लोगों को शिक्षित कर रहा हूं। अब पुराना जीवन याद भी नहीं रह गया है। इसी में मन रम गया है। चूंकि वह जीवन याद नहीं हैं ऐसे में निर्णय सही है या गलत, अब इसका कोई मायने नहीं रह गया है। अब बस धर्म का प्रचार प्रसार कर रहा हूं।

समाज में धर्म की स्थिति को आप कहां देखते हैं। पाश्चात्य सभ्यता का बहुत जोर है। ग्लैमर हावी है। ऐसे में कहां दिक्कत आती है?

कुंभ में भीड़ आपको नहीं दिख रही है। इसी से आप अंदाज लगाइए कि समाज में धर्म की क्या स्थिति है। संगम में स्नान के समय कोई भेदभाव नहीं है। अमीर और गरीब सब एक साथ डुबकी लगा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने वाले भी यहां पैदल चले आ रहे हैं। धर्म के सामने ग्लैमर भी नतमस्तक है। देखिए, सबकी दुनिया अलग है। पाश्चात्य सभ्यता अलग है। ग्लैमर की दुनिया अलग है। इससे सनातन धर्म पर प्रभाव नहीं पड़ने वाला बल्कि यह और मजबूत हो रहा है। कहीं किसी प्रकार दिक्कत नहीं आ रही है। सब हमारी संस्कृति को अपनाने के लिए भाग रहे हैं। योग को पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है। जितने भी बड़े शहर दिल्ली, कलकत्ता,मुंबई, बंगलौर है, यहां धर्म के प्रति च्यादा झुकाव है। मुंबई में गणेश उत्सव जिस स्वरूप में आयोजित होता है और जो भीड़ एकत्र होती वह सबके सामने है।

युवा वर्ग का धर्म के प्रति कितना झुकाव है?

युवा वर्ग धर्म को लेकर च्यादा उत्सुक है। धर्माचार्यो के आश्रमों में युवाओं की भीड़ भी दिखती है। जीवन इतना गतिमान है कि हर व्यक्ति भागता नजर आता है। इसके बाद भी धार्मिक उत्सवों में युवाओं की भागीदारी बहुत रहती है।

महिलाएं की भीड़ धार्मिक स्थानों में च्यादा दिखती है। ऐसा क्यों?

महिलाएं प्राचीन काल से धर्म के प्रति बहुत संवेदनशील रहती रही हैं। उनके ऊपर पूरे परिवार की जिम्मेदारी रहती है। उन्हें लगता है कि ईश्‌र्र्वर की भक्ति में उन्हें सब कुछ मिल जाएगा। क्योंकि उन्हें अपने बच्चों, पति और माता पिता सबकी चिंता रहती है। फिर उन्हें बचपन से ऐसे संस्कार दिए जाते हैं जिसका भी उनपर प्रभाव रहता है।

महिलाओं के मंडलेश्वर बनने की संख्या बढ़ी है?

सनातन धर्म में महिला संत रही है। वैसे भी हमारे यहां देवी की पूजा की जाती है। देवी शक्ति का प्रतीक है। महिलाएं इस क्षेत्र में आ रही हैं, यह एक अच्छा संकेत है। इससे सनातन धर्म और मजबूत हुआ है। इन महिला संतों के साथ महिला अनुयायी भी बहुत संख्या में है। इससे यह संदेश जाता है कि भारतीय संस्कृति में महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं किया जाता है।

धर्माचार्यो के बीच भी वैचारिक भिन्नता रहती है। इसका कारण क्या है?

वैचारिक मतभेद सब जगहों पर हैं। धर्माचार्य भी समाज के अंग हैं। ऐसे में वे इससे कैसे अछूते रह सकते हैं?

यही हाल अखाड़ों का भी है। अकसर सुनने में आता है कि अखाड़ों के बीच विवाद खड़ा हो गया है?

नहीं अखाड़ों के बीच कोई विवाद नहीं है। सबकी सत्ताएं अलग है। कोई किसी में हस्तक्षेप नहीं करता है। सब में भाईचारा है। अब किसी मसले पर हो सकता है कि कोई टीका टिप्पणी करे। अब यदि अखाड़ा परिषद के लेकर विवाद की बात है तो यह अलग प्रश्न है। उसमें वैचारिक मतभेद नहीं है। यह सिर्फ पद को लेकर आपसी मनमुटाव है। हालांकि दस शैव अखाड़े इस बिंदु पर भी एक हैं।

महामंडलेश्‌र्र्वर परिषद के गठन के संबंध में आपके क्या विचार हैं?

महामंडलेश्‌र्र्वर अखाड़े बनाते हैं। अखाड़ों का गठन इसीलिए हुआ है कि वे अच्छे महामंडलेश्वर का गठन करें। अखाड़ों का विचार सर्वोपरि एवं सर्वमान्य है। ऐसे में महामंडलेश्‌र्र्वर परिषद का गठन उचित नहीं है। इसका औचित्य मेरी समझ में अभी तक नहीं आया। इसकी आवश्यकता क्यों आ गई? महामंडलेश्वरों का काम धर्म के प्रचार प्रसार का है। अखाड़े उनकी व्यवस्था करते हैं और वे हमारी। हम धर्म का जो प्रचार प्रसार करते हैं उसका माध्यम महामंडलेश्वर ही हैं। अखाड़े उनकी सुरक्षा करते हैं और वह हमें अपनी तरीके से मजबूती प्रदान करते हैं।

विहिप कुंभ में संतों का सम्मेलन बुलाता है। धर्म संसद करता है। उसमें अखाड़े क्यों नहीं जाते हैं?

अखाड़े कहीं नहीं जाते हैं। जिनको आना है, वह अखाड़ों के पास आए। हमारी धर्मध्वजा के नीचे बैठकर वह धर्म संसद करे। हम उनका पूरा सम्मान करेंगे। उनका सहयोग करेंगे। लेकिन हम मंचों की शोभा नहीें बनेंगे। वैसे जहां जरूरत पड़ी, अखाड़े खड़े हुए। जहां तक विहिप आदि संगठनों की बात है, सब हमारे लिए सम्मानीय हैं।

इतने बड़े अखाड़े के आप मेला प्रबंधक है। कुंभ में एक लाख साधु संतों की बसाने की जिम्मेदारी आपके ऊपर थी। साथ में अखाड़े से जुड़े महामंडलेश्वरों की सही स्थान दिलाना भी आपके ऊपर था। कहीं दिक्कत आयी कि नहीं।

परेशानी बहुत आई। पिछले एक वर्ष से प्रयाग में तैयारी चल रही थी। अक्टूबर से अखाड़े ने यहां डेरा डाल दिया था। किसको कहां बसाया जाए इसको रुपरेखा तैयारी की गई। प्रशासन का सहयोग कहीं मिला, कहीं नहीं मिला। अब मेला समाप्ति की ओर है ऐसे में बहुत कुछ कहना उचित नहीं है। वैसे भी एक हादसे ने सारी यहां की सारी दास्तान बयां कर दी है। अब हमारे पास क्या बचा है। शाही स्नान में जैसे अव्यवस्था थी, वह भी सबने देखी। चूंकि रेलवे स्टेशन पर हादसा हो गया, इसलिए यहां की कमियां छुप गईं।

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