इस रमजान पैगंबर की हथेलियों और कदमों के निशान के दीदार करने आयें यहां
रमजान के पाक महीने में पैगंबर की हथेलियों और कदमों के निशान के दीदार करने हैं तो बहराइच की मशहूर मसूद दरगाह जरूर जायें। इसे कदम रसूल के नाम से भी जाना जाता है।
अदभुद कनेक्शन
उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में सैयद सालार मसऊद गाजी की मशहूर दरगाह है। खास बात ये है कि हर साल हिंदी के जेठ माह में यहां पर बहुत बड़ा मेला लगता है, और इस बार जेठ के साथ रमजान का पाक महीना भी पड़ रहा है। इस अवसर पर दूर-दूर से लोग दरगाह पर माथा टेकने आते हैं, आप भी इस बार इस अनोखे संयोग का फायदा उठा सकते हैं। दरगाह परिसर में कदम रसूल भवन है जो तुगलक शासन काल के स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। दरगाह आने वाले जायरीन कदम रसूल भवन में महफूज हजरत मोहम्मद के पैरों के निशान को चूमकर ही आगे बढ़ते हैं। 750 वर्ष पूर्व इस भवन का निर्माण हुआ था। इस भवन में शिला पर पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के हाथ व पैरों के निशान अंकित हैं।
अरब से आई थी शिला
बताते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के हाथ व पैरों के निशान वाली ये शिला को फिरोज शाह तुगलक ने अरब से मंगवाकर यहां लगवाई थी। मान्यता है कि हजरत रसूल के इन पद चिन्हों का दीदार कर चूमने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। यहां पर एक तलाब भी है, कहा जाता है कि उस में नहाने से हर बीमारी दूर हो जाती है। सैयद सालार मसऊद गाजी की दरगाह अमन-चैन और एकता का प्रतीक मानी जाती है। दरगाह में गाजी का किला स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना तो है ही। मुख्य किले से सौ मीटर की दूरी पर कदम रसूल का भवन बना है।
निशानों की अनोखी है कहानी
750 वर्ष पूर्व फिरोज शाह तुगलक बहराइच आए थे। उनके प्रधानमंत्री हसन मेहंदी के लिए इस भवन का निर्माण कराया गया था। बाद में इसी भवन में फिरोज शाह तुगलक ने पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के पगचिह्नों और हाथ के पंजे अंकित शिला को अरब से मंगवाकर कदम रसूल भवन के बीचोबीच स्थापित करवाया थी। कहते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब जब पहाड़ों पर चलते थे तो उनके पैरों के निशान शिला पर अंकित हो जाते थे। हथेली रखने पर शिला पर हथेली का निशान बन जाता था। उसी का नमूना अरब से मंगवाकर यहां रखा गया है।
ईरानी स्थापत्य कला का नमूना
इस दरगाह में तुगलक शासन काल के स्थापत्य कला के साथ ही इसकी कसीदाकारी में ईरानी स्थापत्य कला की झलक भी देखने को मिलती है। दरगाह शरीफ के इतिहास पर नजर डालें तो कदम रसूल भवन का निर्माण फिरोज शाह तुगलक के जमाने में करने में दस वर्ष लगे थे। बेशकीमती संगमरमर से तराशे गए इस भवन में ईरानी स्थापत्य कला फूल-पत्तियों के पैटर्न में झलकती है।जब ये शिलायें आई थीं तभी खानेकाबा पर लगे काले गिलाफ का एक टुकड़ा और वहां के दरवाजे की लकड़ी का एक अंश भी साथ लाया गया था। यह दोनों चीजें अब दरगाह प्रबंध समिति ने एतिहात के साथ सहेजी हुई हैं।