कृष्ण की लीलास्थली वृंदावन के बांके बिहारी जी मंदिर में जन्माष्टमी को होती है विशेष आरती
श्री कृष्ण का लीलास्थल होने के कारण वृंदावन का हर कोना एक मंदिर ही है पर यहां का सबसे भव्य आैर प्राचीन मंदिर है बांके बिहारी जी का इस जन्माष्टमी प्रयास करें उनकी विशेष आरती में शामिल होने का।
पुराणों में है इस स्थान का जिक्र
वृन्दावन, मथुरा क्षेत्र में आने वाला एक एेसा स्थान है जो भगवान कृष्ण की लीलाआें से जुड़ा हुआ माना जाता है। विशेष रूप से यहां उनकी बाललीलाओं का प्रभाव देखा जाता है। यह जगह मथुरा से लगभग 15 किमी कि दूरी पर है। यहां पर श्री कृष्ण और राधा रानी के मन्दिर काफी संख्या में है। इनमें से बांके विहारी जी का मंदिर सबसे प्राचीन है। इस स्थान की महिमा का वर्णन हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, आैर विष्णु पुराण आदि कर्इ ग्रंथों में किया गया है। कालिदास ने भी इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और अन्य परिजनों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे। विष्णु पुराण में इस बात के साथ वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया गया है।
दशर्न मात्र से होता है पापों का नाश
बांके बिहारी मंदिर मथुरा जिले के वृंदावन धाम में रमण रेती स्थान पर है। श्री कृष्ण के बांके बिहारी स्वरूप का यह मंदिर भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण 1864 में स्वामी हरिदास ने करवाया था। एेसी मान्यता है कि इस मंदिर में भगवान के दशर्न मात्र से इंसान के समस्त पापों का नाश हो जाता है। प्राचीन मान्यताआें के अनुसार श्रीहरिदास जी के भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन में श्री बाँकेबिहारीजी स्वंय प्रकट हुये थे।उन्होंने ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का आदेश स्वप्न में दिया था। वही मूर्ति वर्तमान श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई। इस मूर्ति को मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। उस दिन विहार पंचमी के रूप में वृंदावन के इस मंदिर में भव्य उत्सव होता है। काफी समय तक निधिवन में ही भगवान की पूजा होती रही उसके बाद मंदिर का निर्माण पूरा होने पर बांके बिहारी जी को वर्तमान मंदिर में स्थापित किया गया।
हर चीज का होता है एक खास मौका
श्रीबाँकेबिहारी जी की हर बात में एक विशेषता है आैर उनसे जुड़ी तमाम घटनायें हर बार वर्ष में सिर्फ एक बार ही दोहरार्इ जाती हैं। जैसे मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। जबकि श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं, आैर केवल जन्माष्टमी के दिन ही उनकी मंगला–आरती होती हैं। कहते हें इस दिन उनकी आरती के दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं। इसी तरह बिहारी जी के चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही हो सकते हैं।
अनोखी हैं बिहारी जी की कथायें
बांके बिहारी से कर्इ रोचक आैर रहस्यमयी कथायें प्रचलित हैं। जैसे ये तो सभी जानते हैं कि स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक तानसेन के गुरु थे। एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी ने देखा कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा है। वे बोले कि अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा है। कहते हैं कि उस समय वहां स्वंय बिहारी जी सो रहे थे। स्वामी जी की आवाज सुन कर वे वहां से भाग निकले, किन्तु उनका चूड़ा एवं वंशी बिस्तर पर ही रह गया। स्वामी जी वृद्ध हो चुके थे आैर स्पष्ट देख नहीं पाते थे तो वो ये सामान नहीं देख पाये परंतु जब पुजारी ने मंदिर के पट खोल कर मूर्ति को देखा तो उसका चूड़ा आैर वंशी गायब थे। आश्चर्यचकित होकर पुजारी निधिवन में स्वामी जी के पास आये आैर सभी बातें बतायी। तब स्वामी जी बोले कि प्रातः कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था आैर जाते हुए कुछ छोड़ गया है। तब पुजारी जी ने देखा कि वो तो श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा आैर वंशी ही था। तब समझ में आया कि बिहारी जी रात को निधिवन जाते हैं, आैर इसी लिए रास की आवाजें भी आती हैं।
बंद हो गर्इ मंगला आरती
एेसी मान्यता है कि इस घटना के बाद ही प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती बंद कर दी गर्इ क्योंकि ये कहा जाने लगा कि रात्रि में रास करके बिहारी जी आते है आैर उनकी निद्रा में बाधा डालकर उनकी आरती करना उचित नहीं है। इसी तरह अपने भक्तों के लिए बिहारी जी के बार बार मंदिर से गायब हो जाने की भी कथायें हैं। इसीलिए श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं। इसका अर्थ ये है कि बिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता है और भगवान के दर्शन होते हैं।