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काठ की हांड़ी

काठ की हांडिय़ां बार-बार नहीं चढ़तीं मिस्टर आशुतोष, आप जा सकते हैं। ध्यान रहे, इस देश में भी कानून बाकी है...,'

By Edited By: Published: Sun, 09 Oct 2016 12:14 PM (IST)Updated: Sun, 09 Oct 2016 12:14 PM (IST)
काठ की हांड़ी
काठ की हांडिय़ां बार-बार नहीं चढतीं मिस्टर आशुतोष, आप जा सकते हैं। ध्यान रहे, इस देश में भी कानून बाकी है...,' राधिका ने लगभग डपटते हुए आशुतोष को कहा और उठ कर जाने लगी। 'बिटिया...,' राजीव जी ने कुछ कहना चाहा। 'प्लीज पापा...,' राधिका ने अपने पापा को रोकते हुए कहा। वह जानती थी कि पापा फिर उसे सोचने को कहेंगे। ऐसा वह पिछले दो वर्षों से कहते आ रहे हैं। राजीव जी आशुतोष को बाहर तक छोडकर आए, तब तक राधिका अपने कमरे में जा चुकी थी। वे दबे पांव उसके कमरे में दाखिल हुए। उन्हें लग रहा था कि वह शायद रो रही होगी। इसके विपरीत वह तो इयरफोन लगा कर अपना मनपसंद संगीत सुन रही थी। इस कारण वह पापा के आने की आहट भी न सुन पाई। राजीव जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा, हालांकि वे समझ रहे थे कि वे अपनी बेटी से ज्य़ादा खुद को ही दिलासा दे रहे हैं। 'मैं आप पर बोझ तो नहीं हूं पापा, फिर आप मुझे उस नर्क में क्यों धकेलना चाहते हैं?' राधिका ने राजीव जी का हाथ पकडकर उन्हें सोफे पर बिठाया और उनके कंधे पर सिर रखते हुए बोली। 'तू नहीं समझेगी बिटिया। ब्याह के बाद बाबुल के घर वापस लौट आई बेटियां जेब पर नहीं, मन पर भारी होती हैं...,' इतना कहते-कहते राजीव जी का गला भर आया। 'ऐसा है तो मैं यहां नहीं रहूंगी। अलग घर लेकर रह लूंगी अकेली,' राधिका ने कहा। 'तुम्हारे घर बदल लेने से मेरा मन तो नहीं बदल जाएगा...,' राजीव जी की आंखों से आंसू बहने लगे थे। उनके साथ अब यही हो रहा है। वह भावनात्मक रूप से कमजोर हो चुके हैं। एक तो राधिका के वैवाहिक जीवन में आई दरार और फिर उसकी मां और अपनी धर्मपत्नी सुषमा के न रहने से वे भीतर तक टूटने लगे थे वर्ना तो एक दौर वह भी था, जब वे रोने को, खासकर पुरुषों के रोने को पागलपन कहा करते थे। राधिका उनके इस बदले रूप और व्यवहार के कारण उन्हें जीवन की इस सांध्य बेला में अकेला नहीं छोडऩा चाहती थी और अब तो भाग्य ने ही यह व्यवस्था कर दी है कि वह अपने पापा के साथ ही रहे। राधिका का फोन बज उठा था। अपरिचित नंबर था, इसलिए राधिका ने नहीं उठाया। दोबारा फिर फोन बजा तो उसने उठाया और झट से काट भी दिया। दूसरी ओर आशुतोष था। अच्छा तो पापा ने मेरा यह नंबर भी उसे दे दिया! उसने सोचा मगर पापा की स्थिति समझते हुए कुछ कहा नहीं। पापा हमेशा यही चाहते हैं कि उसके और आशुतोष के बीच फिर से सब कुछ ठीक हो जाए। यह एक संयोग ही है कि आज राधिका की मां सुषमा जी की पहली पुण्य तिथि है। राधिका ने भावुक हुए पिता को इस अवसर पर पूजा-अनुष्ठान करने को कहा। इस पर राजीव जी फूट-फूट कर रो पडे। राधिका ने उन्हें किसी तरह मनाया और शांत किया। पुरुष चाहे बहादुरी की कितनी डींग हांक ले, भीतर से वह खोखला ही होता है और कमजोर समझी जाने वाली स्त्री भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक रूप से मजबूत होती है। पुरुष का पूरा जीवन एक स्त्री पर निर्भर होता है। मां, बहन, बेटी हो या पत्नी, उनका सहारा पुरुष को हमेशा चाहिए होता है। राधिका अपने पापा को जिस तरह समझा रही थी, मानो उनकी बेटी नहीं, मां बन गई थी। पूजा-स्थल पर जल रहे दीप की परछांई पीछे रखी सुषमा जी की फोटो पर ऐसे चमक रही थी जैसे दिव्य ज्योति में लीन सुषमा फिर से घर में अवतरित हो गई हों। राधिका और राजीव आंखों में आंसू लिए उनसे बातें कर रहे थे। 'अब तुम ही समझाओ अपनी लाडली बेटी को, कैसी जिद कर रही है, कहती है अब यहीं रहेगी। बताओ जरा अपनी बेटी को, शादी तोडऩा हमारे समाज में आज भी इतना आसान नहीं है...,' राजीव जी सुषमा जी को संबोधित करते हुए बुदबुदाए। 'मां, आपको तो सब पता है न कि मेरे साथ क्या-क्या हुआ वहां....फिर से उसी नर्क में जाऊं मैं?' राधिका ने भी मन की बात सुषमा से कह दी। मानव मन की यह जगजाहिर कमजोरी है कि मौत के बाद भी प्रियजनों की मौजूदगी का एहसास होता है और उनसे लोग इसी तरह बात करते हैं, मानो वे अभी जीवित हैं। उनका दिल यही मानता है कि आत्मा अभी भी उनकी बात सुन रही है, जबकि दिमाग कहता है कि वह जो कभी अपना था, आज नहीं है और न अब कभी वापस आएगा। राजीव जी घुटनों के असहनीय दर्द के कारण जमीन पर ज्य़ादा देर नहीं बैठ सके और वहां से उठ गए लेकिन राधिका वहीं बैठी रही मौन और शांत लेकिन ऊपर से शांत दिख रही राधिका के मन में कडवी यादों का तूफान उठ रहा था। राधिका, राजीव और सुषमा की इकलौती संतान है, बेहद लाड-प्यार में पली-बढी। मां-पिता दोनों ने संस्कारों के साथ उसका पालन-पोषण किया और यही वजह थी कि उसके व्यक्तित्व में गरिमा थी लेकिन साथ ही आत्म-सम्मान की भावना भी बहुत थी। राजीव उच्च-पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी थे और सुषमा प्रोफेसर। राधिका भी मेधावी छात्रा रही थी। उसने मेडिकल की पढाई की और डॉक्टर बन गई। इस प्रोफेशन में आए तमाम बदलावों के बावजूद वह सिद्धांतवादी थी और अपने प्रोफेशन को पूरी ईमानदारी से निभाती थी। कई बार तो उसके साथ वाले डॉक्टर्स ही उसके सिद्धांतों के कारण उसे पिछडा साबित करने पर तुले रहते। उसके सहपाठी अविनाश ने जब उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो घर-बार, पैसा, प्रतिष्ठा सब कुछ होने के बाद भी उसने सिर्फ इसलिए इंकार कर दिया था कि अविनाश पैसे को बहुत महत्व देता था। अगर कभी नैतिकता, सिद्धांत और संपत्ति में से किसी चीज को चुनने का अवसर आता तो उसकी प्राथमिकता पैसा होता। 'पैसा हो तो नैतिकता भी खरीदी जा सकती है...,' अविनाश सामान्य बातचीत में अकसर कहता। 'नैतिकता खरीदी नहीं जाती अविनाश जी, वह संस्कारों से मिलती है...,' राधिका हमेशा अविनाश की बात का प्रतिवाद करती। राधिका के इंकार को उसने रूटीन की तरह लिया और अपनी दुनिया में खो गया। राधिका को तो ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो उसकी तरह संस्कारवान और सिद्धांतवादी हो। 'पैसा कमाना अपराध नहीं है लेकिन वह अनैतिक तरीकों से नहीं कमाया जाना चाहिए...,' राधिका का स्पष्ट मत था। पापा उसे पैसे का महत्व और प्रकारांतर से दुनियादारी के बारे में अकसर समझाते। इस पर राधिका पापा से भी कहती, 'मम्मी ने मुझे संस्कार ही ऐसे दिए हैं कि मेरे लिए दुनिया में पैसे से ज्य़ादा भी बहुत कुछ है।' कई बार राजीव भीतर ही भीतर परेशान भी हो जाते कि आज की दुनिया में राधिका जैसी सिद्धांतवादी लडकी के लिए समझौता करना कितना मुश्किल होगा लेकिन राधिका की बातों का साफ जवाब भी नहीं दे पाते। वे स्वयं ऐसे विभाग में थे, जहां थोडा-बहुत सिस्टम से 'एडजस्ट' किए बिना काम ही नहीं चल सकता। सुषमा शिक्षा क्षेत्र में थीं और बेहद अनुशासित और नियमों पर चलने वाली थीं। कई बार राजीव और सुषमा में इस वजह से विवाद भी होता। जब वह पूछतीं कि राजीव जी क्यों इस तरह के समझौते करते हैं, जो उनकी आत्मा को गवारा नहीं होते तो वे तुरंत कहते, 'यह सब तुम लोगों की खातिर ही तो करना पडता है।' ऐसे में सुषमा बिफर जातीं और कहतीं, 'मुझे या मेरी बेटी को आपकी काली कमाई से एक फूटी कौडी भी नहीं चाहिए। हम सक्षम हैं, अपनी रोजी-रोटी खुद कमा सकते हैं।' ऐसे में कई बार राजीव असहज हो जाते। यही एक बात थी, जो राजीव और सुषमा के बीच नोक-झोंक की स्थिति पैदा करती थी। वैसे तो दोनों के बीच गहरी समझदारी थी और सुषमा भी समझती थीं कि सरकारी विभागों में ऊपर से नीचे तक व्यवस्था ही इतनी बिगड चुकी है कि कोई चाहे, तो भी इससे बहुत नहीं बच सकता। हालांकि सुषमा जी की बातों का असर इतना तो हुआ कि धीरे-धीरे राजीव जी ने भी अपना एक अलग व्यक्तित्व बनाना शुरू कर दिया और उनके विभाग में उन्हें ऐसा व्यक्ति माना जाने लगा जो किसी भी स्थिति में 'एडजस्टमेंट' के खिलाफ है। उनकी गिनती एक ईमानदार अधिकारी के रूप में की जानी लगी। यूं भी आखिर इंसान डरता किस बात से है? इसी से न कि नौकरी नहीं रहेगी? अब तो राजीव जी की पत्नी और बेटी आत्मनिर्भर थीं तो फिर उन्हें डर ही किस बात का होता? राधिका सरकारी हॉस्पिटल में डॉक्टर थी और उसके लिए कई रिश्ते आ रहे थे। मुश्किल यही थी कि उसके पैमानों पर खरा उतरने वाले लडके मिल नहीं रहे थे। अंतत: राजीव जी के कलीग संजय का इकलौता बेटा आशुतोष मिला, जो लंदन में अपनी ही एक कंपनी चला रहा था। राधिका को वह विकल्प तो ठीक लग रहा था लेकिन इसके लिए उसे सरकारी नौकरी छोड कर यूके जाना पडता। राधिका अपने मम्मी-पापा को छोड कर विदेश बस जाने के खिलाफ थी। कई बार पापा-मम्मी परंपरागत पेरेंट्स की तरह उसे समझाते तो वह खूब हंसती। आखिरकार वह इस शर्त पर शादी के लिए तैयार हुई कि नौकरी नहीं छोडेगी, केवल लंबी छुट्टी लेगी। शादी हो गई और राधिका बेमन से यूके चली गई। कुछ दिन हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा रहा और दिन पंख लगा कर उड गए मगर हनीमून पीरियड खत्म होते-होते उसे आशुतोष का असली चेहरा दिखने लगा था। राधिका को पता चल गया था कि उसकी मान-प्रतिष्ठा का एक दूसरा पहलू भी है, जो उसे पियक्कड, अय्याश किस्म का व्यक्ति बनाता है। वास्तव में तो वह विदेश में अपने पापा की काली कमाई को मैनेज करता था। उसके पापा संजीव मंत्रालय में बडे ओहदे पर रहे थे। उन्होंने अकूत दौलत कमाई थी, जिसे सीधे-सीधे भारत में निवेश नहीं कर सकते थे, लिहाज उन्होंने विदेश में इस पैसे को निवेश किया था। इसी दिखावे के लिए उन्होंने यूके में एक कंपनी बनाई थी। राधिका को पता चला तो उसका गुस्सा परवान चढ गया। उसने आशुतोष का विरोध किया तो वह पहले गाली-गलौज और फिर मारपीट पर उतर आया। जब उसे पता चला कि राधिका उसे छोड कर भारत लौट सकती है तो उसने उसका पासपोर्ट और वीजा सहित सारे डॉक्यूमेंट्स अपने कब्जे में ले लिए और धमकाने लगा कि बिना डॉक्यूमेंट्स के वह चाहे भी तो विदेश में कुछ नहीं कर सकती। राधिका ने उसे समझाने की कोशिश की मगर सब बेकार हो गया। जब अत्याचार बहुत बढ गया तो एक दिन वह पुलिस तक पहुंची और अपनी आपबीती सुनाई। पुलिस ने न केवल उसके डॉक्यूमेंट्स वापस दिलवाए बल्कि आशुतोष को सजा भी मिली। किसी तरह वह वापस स्वदेश लौटी अपने मम्मी-पापा के पास। भारत लौटते ही जैसे महीनों का गुबार आंसुओं में बह गया। पापा ने भी उससे माफी मांगी कि अगर वह उस पर दबाव न डालते तो शायद वह इस तरह शादी न करती। उन्हें खुद पर बडा गुस्सा आ रहा था कि इतने साल साथ काम करने के बावजूद वह अपने कलीग संजीव और उसके बेटे का चरित्र न समझ सके। भला हो राधिका की सरकारी नौकरी का, जो बुरे वक्त में उसके काम आई और उसे आत्मनिर्भर होकर जीने में मदद मिली। उसने जल्दी ही दोबारा अपना हॉस्पिटल जॉइन कर लिया और धीरे-धीरे जीवन पटरी पर लौटने लगा। उसे आए कुछ ही समय बीता था कि संजीव और आशुतोष के लगातार फोन आने लगे। वे चाहते थे कि शादी न टूटे और राधिका वापस ससुराल आ जाए लेकिन राधिका ने आशुतोष को इतना जान लिया था कि अब वापस जाना अपनी जान को जोखिम में डालने जैसा ही दिखता था। ...फिर एक दिन ऐसा कुछ घट गया, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सुषमा और राजीव डिनर के बाद टीवी समाचार देख रहे कि एकाएक सुषमा जी को घबराहट हुई। जब तक वे समझ पाते कि यह हार्ट अटैक है, वह सोफे पर ही लुढक चुकी थीं और हॉस्पिटल ले जाने तक उन्होंने दम तोड दिया था। डॉक्टर होने के बावजूद राधिका कुछ न कर सकी। कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ लोग किसी को भी संभलने या कुछ कर पाने का मौका दिए बिना ही दुनिया से चले जाते हैं। परिवार को यह टीस हमेशा बनी रहती है कि काश कुछ कर पाते....लेकिन मौत कब और कैसे आएगी, यह तो कोई नहीं जानता। समय किसी के न रहने से रुकता कहां है! सुषमा जी को गए भी अब एक साल हो गया था। पत्नी के जाने के बाद राजीव पूरी तरह राधिका पर निर्भर हो गए थे। इस हादसे ने उन्हें समय से पहले ही बूढा बना दिया और उनकी सेहत भी बिगडऩे लगी थी। खुद राधिका भी बेहद टूट गई थी, हालांकि यह बात वह कभी पिता के सामने जाहिर न करती। हमेशा मजबूत होने का दावा करती और अकेली कमरे में होती तो रोने लगती। आशुतोष और उसका परिवार मां की मृत्यु के समय भी मिलने न आया। राधिका ने ऐसी अपेक्षा भी नहीं की थी, बल्कि वह इसे अपने लिए अच्छा ही समझती थी। कौन जाने, उस दौरान आशुतोष आ जाता तो मौत के सदमे में वह भावनात्मक रूप से उससे फिर जुड जाती। यह अच्छा ही हुआ, अकेलेपन ने उसे मजबूती ही दी। आज फिर आशुतोष आया था। उसका कहना था कि अगर राधिका साथ नहीं रहना चाहती तो म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग से तलाक ले। वह चाहता था कि उस पर कोई आर्थिक बोझ भी न पडे और राधिका स्वयं आत्मनिर्भर है, लिहाज ऐसी कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। राधिका ने इस विकल्प पर देर तक सोचा मगर फिर लगा कि उससे तलाक लेकर आशुतोष फिर किसी न किसी लडकी की जिंदगी बर्बाद करेगा। इसलिए इतनी जल्दी तो उसे छुटकारा नहीं मिलना चाहिए, इसलिए उसने साइन करने से मना कर दिया। वैसे, वह यह भी जानती थी कि उसका इंकार आशुतोष और उसके पापा को किसी भी हद तक जाने पर आमादा कर सकता है। हुआ भी यही। राधिका ने सोचने के लिए वक्त मांगा तो आशुतोष उसे देख लेने की धमकी देने लगा। 'मम्मी, बस आप मेरे साथ बनी रहना, मैं हर मुसीबत से लड लूंगी...,' राधिका ने सुषमा जी की फोटो पर पुष्पांजलि अर्पित करते हुए आशीर्वाद मांगा। फिर वह उठी, पापा को खाना खिलाया और खुद भी खाया। घडी देखी, ड्यूटी का समय हो चला था। वह पापा को दवाएं समय पर लेने की हिदायतें लेकर दरवाजे की ओर दौडी ताकि वहां जा सके, जहां उसकी सबसे ज्य़ादा जरूरत है, जहां मरीज उसका इंतजा कर रहे होंगे। कहानी के बारे में : कहानी की नायिका मेरे आसपास की लडकी है, जिसके साथ एक कटु अनुभव हुआ मगर उसने हिम्मत से स्थितियों को पक्ष में किया और अपनी जिंदगी का फैसला लिया। लेखक के बारे में : महू, इंदौर में जन्म और शिक्षा। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन। एक व्यंग्य संग्रह 'आया किधर वसंत' प्रकाशित। लेखन के साथ रंग-कर्म भी। संप्रति : सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, इंदौर में सेवारत।

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