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मैं कासे कहूं पीर...

न जाने कौन सा जादू था मां के हाथों में कि उनके छूने भर से खाने की लज़्ज़्ात बढ़ जाती। ख़्ाास मौकों पर लोग उन्हें बुलावा भेजते। लंबा सा घूंघट काढ़े मां लाल मलमल की थैली में बंद पिटारी लेकर चली जातीं। इसी में छुपा था वह रहस्य जो स्वाद-ग्रंथियों को रस से भर देता था। अंतिम यात्रा पर जाने से पहले मां ने बेटी को वह पिटारी सौंपी...।

By Edited By: Published: Thu, 20 Nov 2014 04:24 PM (IST)Updated: Thu, 20 Nov 2014 04:24 PM (IST)
मैं कासे कहूं पीर...

न जाने कौन सा जादू था मां के हाथों में कि उनके छूने भर से खाने की लज्ज्ात बढ जाती। ख्ाास मौकों पर लोग उन्हें बुलावा भेजते। लंबा सा घूंघट काढे मां लाल मलमल की थैली में बंद पिटारी लेकर चली जातीं। इसी में छुपा था वह रहस्य जो स्वाद-ग्रंथियों को रस से भर देता था। अंतिम यात्रा पर जाने से पहले मां ने बेटी को वह पिटारी सौंपी...।

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लग रहा था, जैसे दिल में चुभी फांस और गहरे धंसती जा रही थी। गले में रुलाई अटक कर रह गई और आंखों में उतर आई अजीब सी नमी, जो न सूख पा रही थी और न आंसुओं में बह पा रही थी। तडप उठ रही थी कि कुछ पल चुपचाप एक कोने में बैठ कर मन हलका कर लंू, पर लगा जैसे अम्मा कह रही हों, 'श्रेया बिटिया, पहले सारा ज्ारूरी काम निबटाय लो, फिर ही हमारा ध्यान मन में लाना।

पर ऐसा कहां संभव था। अभी तक कानों में फोन पर सुनी भैया की भर्राई आवाज्ा गूंज रही थी, 'अम्मा की तबीयत बहुत ख्ाराब है। आख्िारी बार जल्दी आकर मिल जाओ। लता दी और मीना दीदी भी पहुंचने वाले हैं। भाई साहब और भाभी तो यहां हैं ही। एक तुम ही इतनी दूर हो। अम्मा को तुम्हारी ही चिंता है।

एक बार गी तो मैं ढह गई। हाथ से फोन गिरने को हुआ कि चीख सी निकली, 'अम्मा!

चीख? अरे नहीं, ये तो प्रेशर कुकर की सीटी है... मैं जैसे होश में आई। दौड कर गैस बंद करूं, वर्ना सब्ज्ाी जल जाएगी। हाथों में लगा आटा सूख गया था। जल्दी से हाथ धोकर आटा गूंथने का अधूरा छोडा काम पूरा करूं। घडी पर आंखें टिका जल्दी-जल्दी रोटी बना लेनी थी, बच्चों के स्कूल से घर आने का समय हो रहा था। खाना बनाना हमेशा मुझे झंझटी काम लगता था। अम्मा ने अपनी इस लाडली को किताबों के पास और रसोई से दूर जो रखा था। भाई-बहन लाख बुरा मानते, पर लज्ाीज्ा खाने का पहला निवाला अपने हाथों से अम्मा मुझे खिलातीं। क्या वह स्वाद मुझे अब कभी नहीं मिलेगा...?

जैसे-तैसे तीनों बच्चों को खाना खिलाया। मेरा मूड देख कर आज मस्ती-मज्ााक करने की उनकी हिम्मत भी नहीं हुई। वर्ना स्कूल से लौट कर यूनिफार्म बदलने और हाथ-मुंह धोकर खाना ख्ात्म करने में जैसे उन्हें घंटों लग जाते थे। घर के बाहर तक शोर सुनाई पडता था, 'मम्मी, पता है आज क्लास में क्या हुआ? मेरी मैम ने ये कहा, सर ने वो किया... अपने फ्रेंड्स की शैतानी बताऊं..., पर आज मैंने एक बार कहा कि बच्चों आज मुझे परेशान मत करो। फटाफट खाना खाकर अपना काम करो। मैं हैरान रह गई कि बच्चों ने यही किया। अम्मा, आज आप मेरे अंदर आ गई हो? बाबूजी से तो हम सभी बहुत डरते थे, पर आपसे लाड लडवाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते। फिर भी जब कभी वह धीर-गंभीर आवाज्ा में एक बार कह देती थीं, 'अगर पार्टी में जाना है तो चली जाओ। पर आठ बजे भैया के साथ घर आ जाना। हम डरते हुए साढे सात बजे हाज्िार हो जाते। अम्मा, तुम्हारी आवाज्ा अब नहीं सुनाई देगी क्या?

रुलाई रोकने में पूरा शरीर कांपने लग गया है, लेकिन हां। पहले सतीश को फोन लगाना है। घंटी बजी, फोन उठा और सतीश की हैरानी भरी आवाज्ा सुनाई दी, 'हैलो श्रेया? मेरी रुंधी हुई आवाज्ा में कुछ टूटे-फूटे से शब्द ही निकले, 'सतीश... अम्मा...भैया का फोन... जल्दी जाना है...। हमेशा की तरह वे इतने में ही समझ गए। 'डोंट वरी श्रेया। मैं तो नहीं चल पाऊंगा, मगर तुम्हारे रिज्ार्वेशन का इंतज्ााम करवाता हंू। दीपू के एग्ज्ौम होने वाले हैं, गुडिय़ा का कथक का कंपिटीशन है... देख लो सब।

'काहे को ब्याही बिदेस? क्या ज्ारूरत थी अम्मा मेरी शादी ऐसे सरकारी पेशे वाले से करने की, जिसके तबादले इतनी दूर होते हों? लता दी की तरह रात टे्रन में बैठती, सुबह तुम्हारे साथ होती या मीना दीदी की तरह पैसे वाली होती, कार में बैठती और जब जी चाहता, आ जाती। न अम्मा, बुराई तो इनमें भी नहीं। पर अब रिज्ार्वेशन कहां आसानी से मिलता है, इंतज्ाार करना पडेगा। वैसे ही, जैसे तुम्हारी पिटारी से खट्टे-मीठे चूरन मिलने का किया करती थी। अम्मा, चली तो न जाओगी तब तक?

आंसू बांध तोड कर बहने को आतुर थे कि बच्चे आ धमके। उनको अपने मतलब की आधी-अधूरी ख्ाबर मिल चुकी थी। 'मम्मी मम्मी, हम नानी पास जाने वाले हैं? वहां राजी दीदी, छोटू भैया और मौसी लोग मिलेंगे न? गेंद की तरह उछलती यह छुटकी है, इसे क्या समझाना। 'मम्मा, मेरे डांस परफॉर्र्मेंस का क्या होगा? जरा मैम से बात कर लेना प्लीज्ा, वह बडी गुस्सैल हैं।

'मॉम, मेरे तो इस साल बोर्ड एग्ज़ैम हैं, मेरी ट्यूशन न मिस हो जाए, देख लीजिएगा। 'अच्छा ठीक है, अभी जाओ, कह कर टाल तो दिया, पर सच में सब मैनेज करना पडेगा। अम्मा देखो, कितने जंजाल में फंसी हंू। लेकिन सभी अलग स्वाद, गंध और तासीर वाले मसाले एक साथ रह कर ही अर्थपूर्ण होते हैं। अम्मा अपनी पिटारी खोल, गरम मसाला सुंघा कर तुमने यही सीख दी थी न!

अम्मा ख्ाुद बहुत पढऩा चाहती थीं, पर पढ न सकीं। उनकी साधना की बदौलत हम सभी ने उच्च शिक्षा हासिल की। चलो, बच्चों की किताबें रख लेती हंू, ताकि पढाई का ज्य़ादा नुकसान न हो। कपडे भी पैक करने होंगे, जाने कितना समय लगे। अलमारी खोली तो पिछली बार अम्मा की दी हुई साडी दिख गई। एक बार फिर उसे सूंघने का मन हो आया- वही चिरपरिचित सौंधी सी ख्ाुशबू, सांसों में बस गई, जो अम्मा की अलमारी से आया करती थी। एक बार मैंने अलमारी में सेंध लगाकर उस ख्ाुशबू का राज पता लगा भी लिया था- पीतल की चौकोर सी पिटारी, जिस पर राधा कृष्ण की सुंदर सी चित्रकारी थी... शायद मीने का लाल-हरा काम भी था। एक बार ज्िाद करने पर अम्मा ने उसे खोल कर दिखाया था...।

फोन की घंटी बजी तो दौडी। 'अच्छा सतीश, कल की ट्रेन से जाना हो पाएगा? ठीक है। मैं परसों शाम तक घर पहुंच सकूंगी। अम्मा प्लीज्ा रुकना मेरे लिए... चली मत जाना।

अपनी दोनों बहनों के साथ मैं कितना लडती थी कि कमरे में अपना एक कोना मिल जाए, जहां मेरा सामान वे न छू पाएं। तुमसे कितनी शिकायतें भी बढा-चढा कर की हैं मैंने। पर उनके विदा हो जाने के बाद उसी कमरे का अकेलापन मुझे डराता था। तरह-तरह के बहाने बना कर अम्मा को अपने संग रोके रहती। कहती, जब तक मुझे नींद न आ जाए, छोड कर मत जाना अम्मा। उनकी ठंडी हथेलियां मेरे हाथों की गिरफ्त में नरम तकिया बन जातीं। फिर कोई जादूगर, दुष्ट शैतान या राक्षस मेरे सपने की सिंड्रैला या स्नो व्हाइट जैसी राजकुमारी को परेशान करने की हिम्मत नहीं कर सकते थे।

'मम्मा क्या मैं अपने गैजेट रख सकता हूं?, बेटे के सवाल पर मेरी तंद्रा टूटी। मैंने गर्दन हिला कर हां कह दिया। 'मम्मी सुनो न... इस बार भी नानी ने लड्डू और मठरियां बनाई होंगी न। मुझे खूब सारी खानी है। आंखें फिर धुंधलाने लगीं। अम्मा के हाथों में एक जादू सा था, जो सीधे-सादे खाने को भी गज्ाब का स्वाद दे देता। पास-पडोस की चाची-ताई भी ख्ाास मौकों पर अम्मा को बुलावा भेज देतीं, 'राजे की अम्मा जरा चौका छू तो जाओ... बिट्टी को देखने वास्ते लोग आने वाले हैं...। अम्मा लाल मलमल की थैली में बंद पिटारा बगल में दबा घूंघट काढे मेरी उंगली पकडे चल देतीं। मैं ही जादू की पिटारी की अकेली गवाह होती। राधा-कृष्ण को हाथ जोड अम्मा जैसे ही पिटारी खोलतीं, तिलिस्मी संसार खुल जाता। अंदर गोल, चौकोर, तिकोने जाने कितने खांचे थे और उन पर अलग-अलग डिज्ााइन के ढक्कन लगे थे। उनमें जीरा, हींग, सोंठ, सुपारी, जाफरान, छोटी-बडी इलायची, दालचीनी, रतन जोत और भी जाने क्या-क्या होता...। बीच में लगी मूठ को पकड कर उठाने पर अंदर एक और खाना निकल आता। उसमें क्या था, यह मायाजाल तो आज भी मेरे लिए रहस्य है। मैं देखा करती थी कि अम्मा चूल्हे के ऊपर प्यार से हाथ फिरातीं और पिटारी से कुछ निकाल चुटकी सी बटलोई में पकते सालन में छिडक देतीं और बस करिश्मा हो जाता। मामूली से खाने का कालाकल्प करने वाली वह बक्सिया उन्हें जान से भी प्यारी थी। हम सबने कितनी चिरौरी की, पर उसे छूने का सौभाग्य न मिल सका। यहां तक कि समय-समय पर भाभियों ने भी अपने नेग के रूप में उसी पिटारी की मांग करने की जुर्ऱत कर डाली, पर याद नहीं आता कि उस एक मौके के सिवा कभी और किसी ने भी कभी अम्मा के मुंह से ना सुनी हो। आज भी मेरे लिए ठहर जाना अम्मा... ना मत करना।

बदन टूट रहा है और सर भारी है, लेकिन बच्चों के साथ लंबा सफर तय करना है, तैयारी तो करनी ही पडेगी। यहां सतीश के खाने-पीने का इंतज्ााम, महरी को ताकीद करनी है, अलमारी समेट कर सब बंद करना... उफ! काश मैं सोनचिरैया होती, उडके मां के आंगन पहुंच जाती। पर गृहस्थी का चक्का ऐसा पग में बंधा है कि जी तो अम्मा तुम्हारे में लगा है, बस यहां देह है जो ज्िाम्मेदारियां निभाए चली जा रही है।

....ट्रेन एक लय में दौड रही है और मैंने अपनी आंखें मूंद लीं। सांसें अटक-अटक कर चल रही हैं, थोडा रोकर जी तो हलका कर लेने दो न। अरे ये रोने की आवाज्ा कहां से आई? 'मम्मी, पेट में दर्द हो रहा है!

'दर्द तो होगा ही। तबसे चिप्स-बिस्कुट खाए जा रहे हो। छुटकी इतना मत उछलो, चोट लग जाएगी। दीपू तुम्हें दवा देती हंू, आराम से लेट जाना। गुडिय़ा ज्ारा बैग दे बेटा...।

ऐसा ही तो हम भी करते थे न अम्मा। रेलगाडी में बैठे नहीं कि खाना-पीना शुरू। उछलना-कूदना, खिडकी के बाहर गर्दन निकाल कर झांकना और अकारण ही रोना-चिल्लाना। फिर निकल आता तुम्हारा जादू का पिटारा। किसी बच्चे को जायफल चटाया, किसी के मुंह में हींग-अजवाइन। किसी के कान में लहसुन वाला तेल तो किसी की चोट पर हल्दी-चूने का लेप। मेरी आंखों में तो हर बार कोयले के कण गिर जाते और अम्मा अनोखी सी प्याली निकाल कर उसमें पानी भर मेरी आंखों को खोलती-बंद करवातीं। अम्मा, आज भी चैन नहीं आ रहा है, दिल में धुकधुकी सी लगी है। तुम ठीक तो होगी न!

....मुहल्ले तक पहुंचते-पहुंचते पता चल गया कि अनहोनी घट गई है। अजीब सा सूनापन पसरा था। घर का मोड आते-आते कलेजा मुंह को आने लगा। भैया बाहर थे, 'श्रेया, अम्मा तभी चली गईं थीं जब तुझे फोन किया था। बताया नहीं, इतनी दूर से आते परेशान हो जाती। ज्य़ादा समय नहीं रख सकते थे।

अंदर सब पहले जैसा था। दीदी, भैया, भाभी के आंसू सूख चुके थे। रिश्तेदारों, पडोसियों से घर पटा था। सामान कहां रखंू, समझ नहीं आ रहा था। सब लोग कल होने वाले हवन की तैयारी में लगे थे। खाने-पीने में क्या रहेगा, कैसा पंडाल लगेगा, कितनी कुर्सियां रखी जाएं..., कई बातें कानों में पड रही थीं। अम्मा, तुम कैसे सब कुछ संभाले रहती थीं? घर कैसा बिखरा-बिखरा लग रहा है। मैं अभी तक बैग कंधे पर टांगे दालान में एक किनारे हतप्रभ खडी हंू। देखा, भाभी इशारे से बुला रही हैं, 'श्रेया बीबी, आप तो जानती हैं, अम्मा के पास गहने-जायदाद तो थे नहीं, मगर आपके लिए वह एक पोटली छोड गई हैं, संभाल लें। मैंने कांपते हाथों से पोटली थामी। अंदर राधा-कृष्ण के चित्र वाली वही पिटारी थी। मैंने उसे सीने से लगा लिया।

'अम्मा तुम सचमुच चली गईं! ये कौन मेरे भीतर दहाडें मार कर रो रहा है! आंसुओं से भरी आंखें देख पा रही हैं कि सब तरफ लोग थम से गए हैं। शायद मुझे समझाने की कोशिश कर रहे हैं। पर मैं उन्हें कैसे बताऊं कि इस समय मुझे वैसी ही पीडा हो रही थी जैसे जन्म लेते समय नाल कटने और अम्मा से बिछुडते समय हुई होगी। मैं इस समय भी ठीक वैसे ही रो रही थी....।

डॉ. छवि निगम


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