लौट आओ शिशिर...
जरा सी बारिश ठूंठ को हरा कर देती है, पतझड़ को बसंत की उम्मीद होती है, मछलियां अपने पानी के सहारे ही जीती हैं, जरा सा प्यार और स्नेह इंसान को बदल देता है, उसे रचनात्मक बना देता है। लेकिन जब वही प्यार खो जाए तो? जल-विहीन मछली सरीखा हो
जरा सी बारिश ठूंठ को हरा कर देती है, पतझड को बसंत की उम्मीद होती है, मछलियां अपने पानी के सहारे ही जीती हैं, जरा सा प्यार और स्नेह इंसान को बदल देता है, उसे रचनात्मक बना देता है। लेकिन जब वही प्यार खो जाए तो? जल-विहीन मछली सरीखा हो जाता है जीवन....।
कहानी नहीं बन रही है शिशिर... एक सिरा उठाती हूं, दूसरा छूट जाता है, कहानी टूट कर बिखरना चाहती है... कारण कुछ भी हो सकता है। नदी का उद्गम स्थल पर सूख जाना, बेजान शब्दों का बंजर जमीन पर मछली-सा छटपटाना, पानी पाए शब्दों से रचना निखरती है शिशिर...। कोशिश कर रही हूं। बार-बार वही दृश्य अपने भीतर कैद कर रही हूं, जब तुम खिडकी से पार पारदर्शी कांच से बारिश की बूंदों का टिप-टिप गिरना देख रहे थे, आसमान में बादल चीख रहा था, जैसे भिगो देगा धरा का सूखा कोरा धरातल... चीख कर धरती को प्यासा छोडकर दूसरे छोर चला गया था, मैंने खिडकी बंद कर दी थी...।
इस होटल में हम अभी कुछ देर पहले आए थे। तुम दूसरे होटल में थे और मैं निशा के घर पर ठहरी थी। उस होटल में ही हुआ था शराब मािफया का मर्डर, इसी सिलसिले में तुम स्टोरी के लिए आए थे। आसपास दो कमरे बुक कराए तुमने। पत्रकार शिशिर और फ्रीलांसर अग्निशिखा....होटल मैनेजर ने एक प्यारी मुस्कान दी थी।
कहानी का एक और सिरा छूट गया, फिर भी कहानी की जमीन में कुछ तो ऐसा है शिशिर, जो लौट-लौटकर थमा देता है दूसरा सिरा... क्या कहूं इसे। प्यासी धरती की उम्मीद या बेरुखे बादल का लौट आना। तुमने हंसती आंखों से मुझे आलिंगन में लिया था, 'मैं क्या कहूं? तुम कहो- कहानियां लिखती हो, संवाद तुम्हारी कलम की नोक पर जन्म लेते हैं।
तो आओ शिशिर उडा दो मुझे भी इस तूफान में। फिर बरस जाओ सावन की घटा बन, भिगो कर रख दो समूचा अस्तित्व... बहती जाऊं मैं सृजन की नदी में, बिना थके बटोरती रहूं संवाद... पर मैं भूल जाती हूं। तुम मुझे तभी मिलते हो, जब मेरी जडें सूख कर उखडऩे को होती हैं। शिशिर हो न! बारह महीने में एक बार आता है यह मौसम, धरती की तप्त आत्मा पर बर्फ का फाहा रखने। यह तुम्हारी कहानी का एक पैराग्राफ है।
तुम कुछ देर यूं ही इधर-उधर चलते रहे, फिर नीचे घाटी में देखने लगे, जहां भागीरथी का गर्जन था...। रात्रि के अंधकार में बिजली की रोशनियों के बीच नदी का जल सोने सा चमक रहा था।
'कुछ बोलो शिशिर... मैंने कहा।
'शिखा, वे मेरे ही शब्द हैं। मैं तुम्हारा पाठक हूं। तुम पुस्तकों में होती हो, मैं तुम्हें पढता हूं और डूब जाता हूं तुममें...।
'देखो शिशिर, कहानी का यह सिरा भी छूट गया। कहीं सब कुछ छूट गया तो? मुझे तुम्हारे बेरुखेपन पर शंका होती है। मिलते हो तो पल दो पल लगता है कि हमेशा मेरे भीतर बहते हो, कभी जुदा ही नहीं हुए और जब महीनों या सालों तक नहीं मिलते तो लगता है, तुम थे ही नहीं। एक सपना था, आंख खुलते ही टूट गया।
'तो हम फिर से बोएंगे नया बीज, खिल-खिलाते हुए तुमने खिडकी बंद कर दी थी। चौंकी थी मैं, 'नया बीज...?
'हां नया बीज, हरे पेड का बीज, जिसकी झपझप हरी पत्तियों में बारिश की बूंदें पडती रहें टिप-टिप-टिप..., शरारती नजरों से मेरी आंखों में झांका था तुमने और मेरे लंबे केशों में उंगलियां फंसाते हुए मेरे माथे को चूम लिया था। एकाएक अंधड चला और खिडकी के कांच पर बारिश की बूंदें बजने लगी थीं। मैंने हाथ बढा कर खिडकी खोल दी। बाहर कुहासे में बारिश कांप रही थी, तभी हवा से तिरछी हुई मोटी बौछार ने हमें भिगो दिया। मेरे कंपकंपाते शरीर को लिहाफ से ढकते हुए तुमने खिडकी बंद कर दी। दरवाजे पर खट-खट हुई, 'मैडम कॉफी...।
आज हम पहाडी की ढलानों पर चिडिय़ा सी फुदकती नदी का सौंदर्य देख रहे हैं। यहां से नदी घाटी में रुख बदल देती है, छोटी-सी नदी का तीव्र वेग से कल-कल, छल-छल बहता जल... सफेद संगमरमरी पत्थर पर जल में पांव डुबाए मैं बैठ जाती हंू। बहुत ठंडा पानी था, मैं तुरंत पैर बाहर खींच लेती हूं। तुम एक नन्हे जलाशय में मछलियों का तैरना देखने लगे। दोनों हथेलियों को मिला कर अंजुरी भरी, नन्ही मछलियां जल के साथ हथेली पर आ गईं, दो-तीन उछल कर छूट गईं। एक ही बची, तभी तुम्हारे पांव में जूते के भीतर कोई कीडा घुस गया, तुमने एक हाथ छोड दिया। पानी रीत गया, मछली छटपटाने लगी। सहसा मैं चीखी, 'मछली को पानी में छोड दो शिशिर... ऐसा कैसे कर रहे हो, बडे क्रूर हो तुम...! लेकिन तुम आनंद ले रहे थे। मैंने उछल कर तुम्हारे हाथ से मछली गिरा दी, 'प्राण पा गई बेचारी जीव... इसी तरह मारोगे मुझे भी तडपा-तडपा कर.... तुम निरे पत्थर हो...! मेरी आंखें डबडबाने लगी थीं। मेरी बेवकूफाना सी लगती बातों पर तुम ठहाका लगाने लगे, 'ओह तो तुम भी मछली हो....?
'हां शिशिर तुम्हारे प्रेम के जल में तैरती मछली... तुम मुझसे दूर हुए तो ऐसे ही मरूंगी तडप-तडपकर..., तुम्हारे कंधे पर सिर टिका दिया था मैंने।
'और हम तुम्हें मरने देंगे जैसे..। पहाडी झरने सी पारदर्शी हंसी हंसे थे तुम। नदी को पार कर हम जंगल के भीतर घुसने लगे थे। आसपास ख्ाूब सारी चिडिय़ां, एक पेड से दूसरे पर फुदकतीं...। काश! हम भी चिडिय़ों की तरह होते। इसी तरह जंगल से आकाश की मुक्त उडानें भरते। मैंने पर्स से डायरी निकाली और एक पत्थर पर बैठकर कविता लिखने लगी-
आज तुम मेरे साथ हो...
यह हरा जंगल, यह कल-कल बहती नदी
यह खुला आकाश मेरा है आज...
कल क्या होगा, मुझे नहीं मालूम
यह सब ऐसे ही रहेंगे मेरे अपने
अगर तुम हां कह दो तो...।
'हमारे चाहने से कुछ नहीं होता शिखा..., तुमने मेरी पीडा में अपनी पीडा को उडेल दिया था। तुम्हारे भीतर छिपी गहरी पीडा का एहसास हुआ था मुझे उस पल। हालांकि तुम्हारा शरारती रूप ही देखा है मैंने, हंसने-हंसाने, मीठी बातों से छेडख़ानी करने का तुम्हारा प्यारा-सा अंदाज, उदासी को पल भर में छू कर देने वाला अंदाज। इस पर कौन न मर जाए ए ख्ाुदा। यही वाक्य उमगता है भीतर...'ऐसा क्यों होता है शिशिर? हमें अपनी इच्छाओं-उम्मीदों-सपनों के मुताबिक जीवन क्यों नहीं मिलता? क्यों झेलना पडता है इतना सब कुछ...! बरबस ही मुझे यातना भरे अनचाहे दांपत्य जीवन की स्मृति हो आई। शिशिर से मेरे अनुराग की परवाह न करते हुए घरवालों ने ऐसे व्यक्ति के पल्ले बांध दिया था, जिसके पास प्रेम की एक बूंद भी शेष नहीं थी, जिसने मेरे अतीत का अपमान करते-करते ख्ाुद को ही इतना गिरा दिया कि उससे अलग होकर ही मुझे चैन मिल सका। पांच साल की यातना भरी कैद से बाहर निकली तो शिशिर ने मुझे सहज करने में मदद की, वर्ना लोग तो मुझे अवसादग्रस्त लडकी ही समझने लगे थे। शिशिर ने लिखने को प्रेरित किया, ताकि मन में दबे नकारात्मक अनुभवों को रचनात्मक ढंग से बाहर निकलने का मौका मिल सके।
'निराश होना लेखक का परिचय नहीं है शिखा, तुम्हारे पात्रों से पाठक प्रेरणा लेते हैं और तुम्हीं ऐसे हार जाओगी तो उन्हें क्या दे पाओगी?
....हमारे पांवों के बीच पीले पत्तों का ढेर था। शायद पतझड आ चुका था, वही पतझड जिसमें बसंत के आने की उम्मीद छिपी होती है। फिर पेड हरे होंगे, ठूंठ टहनियों से कोंपले फूटेंगी....। हम और आगे बढऩे लगे। यहां चीड का घना जंगल शुरू होता है। तुम पानी के कल-कल स्वर की दिशा की ओर आगे बढऩे लगे, जहां झरना बह रहा था। एक लंबे चोंच वाली मेहंदी रंग की चिडिय़ा बौछारों से खेल रही थी। 'रुको...! उसके सुख में बाधा नहीं पहुंचाएंगे, मैंने तुम्हारी बांह पकड ली।
हम चीड के नीचे बैठ कर झरने का राग सुनने लगे। यहां से भागीरथी की पतली संकरी जलधारा दिखाई दे रही थी। तुम्हारी आंखों में सागर की लहरें ज्वारभाटा समेट रही थीं... तुम कुछ रोमैंटिक होने ही चले थे कि बांसुरी की मीठी धुन पर ठिठक गए। एक चरवाहा भेडों के झुंड के साथ नीचे आ रहा था। 'ऊपर मत जाना साहब, तूफान आ रहा है..., उसके वाक्य पूरा होने से पहले ही ऐन हमारे सिर के ऊपर एक काला बादल आकर ठहर गया। आंधी चलने लगी और चरवाहा तेजी से भेडों को लेकर अदृश्य हो गया। आंधी के साथ-साथ मोटी बूंदें हमारे सिरों में बजने लगी थीं। इन पहाडों का कोई भरोसा नहीं, मैं अब झल्ला सी गई थी। मौसम हमेशा अपनी उंगली पर नचाता है। अभी तक धूप थी खिली-खिली और अब घुप्प अंधकार। तुमने मेरा हाथ पकडा और नीचे उतरने लगे। फिसलने का ख्ातरा देखते हुए मैंने चप्पल उतार दीं और चलने लगी, मगर थोडी ही देर में एक कांटा आकर चुभ गया। तुमने मेरे पैर से कांटा निकाला और मुझे पीठ पर लाद लिया। मगर दस कदम चलने के बाद ही तुम बुरी तरह हांफने लगे थे, 'उतरो मैडम खच्चर अब थक चुका है।
कुछ ही दूर पर चाय की दुकान थी। लकडी के टुकडों को जोड कर बनाई गई दुकान, केतली में उबलती, भक-भक जलती आग, ठंड से सिकुडी हुई मैं हाथ सेंक रही थी। दुकान वाले से तुम उस मर्डर केस के बारे में जानकारी ले रहे थे, जिसकी लाश पास की खाई में पडी मिली थी। चाय वाले ने हमें पीतल के गिलासों में चाय पिलाई।
उसी समय तुम्हारे पास कोई फोन आया था, शायद मर्डर केस में कोई और सुराग हाथ लगा था। तुम तुरंत ही चले गए। अगले दिन होटल के मैनेजर से पता चला कि तुम रात को ही वापस चले गए थे। फिर पता चला कि ऑफिस की ओर से तुम्हें इलाहाबाद भेज दिया गया है। मेरे पास तुम्हारा फोन नंबर और पता कुछ था ही नहीं। फिर एक दिन अचानक तुम लाइब्रेरी में मिले मुझे। मैं चीख कर ख्ाुशी जताना चाहती थी कि तभी पुस्तकालय का ध्यान हो आया।
'कौन-सी किताब ढूंढ रही हो? तुमने आहिस्ता से पीछे सरकते हुए आलमारी की आड में मेरी हथेली दबा दी थी। काफी देर हम आंखों में ही बात करते रहे फिर तुम बोले, 'चलो तुम्हें घर छोड दूं...।
किताब लेकर हम बाहर आए और रेस्तरां में घुस गए। 'मैं कहानी पूरी नहीं कर सकता शिखा..., लाचारी तुम्हारे स्वर में बह रही थी। टेबल पर वेडिंग कार्ड चमक रहा था।
'तुम आओगी न शिखा शादी में? तुम्हारी आवाज भीग गई थी।
...इसके बाद हम नहीं मिले और फिर एक लंबे अंतराल के बाद तुम मुझे दिखे। तुम्हारी कनपटी पर सफेद बालों का गुच्छा, चेहरा भाव-विहीन और तो और तुमने मुझे 'विश भी नहीं किया, तुमने ऐसे जताया मानो मुझे पहचानते भी नहीं हो। क्या हो गया तुम्हें....? तुम्हारी बच्चों-सी किलकती आवाज कहां खो गई? कहां गए तुम्हारे बेलौस ठहाके? क्या तुमने मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा? मैं तुम्हारा यह रूप देख कर दंग रह गई। कभी सोचा शिशिर कि पूरी जिंदगी तुमसे अलग होकर कैसे जी सकूंगी मैं? ठंूठ पेड को देखा है कभी? वैसी ही हो गई हूं मैं। अपनी जडों से धीरे-धीरे उखडते पेड की तरह बन चुकी हूं। इसकी जडें सींचो शिशिर... शायद पानी पाकर वह फिर से हरा हो उठे...। तुमने ही तो कहा था न कि हम फिर से बोएंगे एक हरे पेड का बीज..., जिसकी सघन हरी पत्तियों पर बारिश की ताजी बूंदें टपकती रहें...।
कुसुम भट्ट