वो इक रात का फसाना
गहनों के प्रति स्त्री का मोह तो जग-ज़्ााहिर है। आभूषण स्त्री के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं, साथ ही गाढ़े वक्त में भी काम आते हैं। स्त्रियों के लिए सुरक्षा कवच से कम नहीं होते गहने, मगर जब बड़ी जुगत लगा कर संभाले गए इन गहनों पर सेंध लग
गहनों के प्रति स्त्री का मोह तो जग-ज्ााहिर है। आभूषण स्त्री के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं, साथ ही गाढे वक्त में भी काम आते हैं। स्त्रियों के लिए सुरक्षा कवच से कम नहीं होते गहने, मगर जब बडी जुगत लगा कर संभाले गए इन गहनों पर सेंध लग जाए तो!
उफ! वो फसाना, वो िकस्सा तो कुछ ऐसा है जैसे कि सीने में कोई फांस सी गडी हो, जैसे हलक में कुछ ऐसा अटक गया हो, जिसे न निगलते बने न उगलते। कोशिश तो भरसक कर रही हूं कि भूल जाऊं...पर संभव नहीं लगता। कठिनाई में प्राण उलझे हैं। किसी को बता भी नहीं सकती और चुप रहना भी ज्ाहर पीने के बराबर होता जा रहा है। कह ही दंू क्या? नहीं नहीं....। क्या करूं, काश होती कोई ऐसी शक्ति जिससे मैं दोबारा भूतकाल में पहुंच सकती...ऐसा होने ही न देती जो हुआ मेरे साथ उस रात...।
यूं तो बात सुनने में बडी साधारण सी है मगर मेरे लिए वह असाधारण बन गई। चलिए बता ही देती हूं। िकस्सा शुरू होता है उस रात से, जब हम ट्रेन से वापस दिल्ली लौट रहे थे। हम-यानी पति राघव, बिटिया अक्षिता, बेटा सनी और मैं। मेरा नाम जानना यहां ज्ारूरी नहीं...जितना पर्दा पडा रहे, उतना अच्छा!
खैर, शाम को ट्रेन सही समय पर रवाना हो गई। लंबा सफर था। पूरी रात का सफर तय करके सुबह छह बजे ट्रेन दिल्ली पहुंचने वाली थी। हमारे साथ ढेरों सामान था। होता क्यों नहीं, आख्िार मैं भैया की शादी से वापस जो लौट रही थी। हमारे पास खाने-पीने केसामान, शादी की फल-मिठाइयों के इतने सारे डिब्बे थे कि उन्हें सलीके से रख पाना बडा दुष्कर था। ऐसा लग रहा था कि पूरे साल भर का राशन-पानी मां ने साथ ही बांध दिया था। ख्ौर ट्रेन चलते-चलते सब लोगों ने सारी अटैचियां, फटने को तैयार ठूंस-ठूंस के भरे गए बैग वगैरह सब सीटों के नीचे खिसका कर चेन डाल कर ताला लगा दिया। अपने सहयात्रियों के बारे में सोचकर कुछ बुरा सा लग रहा था कि हमारे सामान ने शायद बहुत ज्य़ादा जगह घेर ली थी। मगर उन्होंने भी कुछ नाराज्ागी नहीं दिखाई। मैंने तीनों से खाने के लिए पूछा, पर उन्होंने मना कर दिया। ट्रेन ने रफ्तार पकड ली। सभी लोग खाना-पीना ख्ात्म करके लेटने की तैयारी करने लगे...।
आदतन मैंने आसपास मुआयना किया। कुछ खास इंटरेस्ट नहीं आया। एक तो ख्ाुद भी थकान ज्य़ादा थी, दूसरे सहयात्री भी कुछ ज्य़ादा ध्यान देने लायक नहीं थे। एक अधेड उम्र के दंपती थे, जिन्हें शायद उनके बेटा-बहू और पोता बिठा कर गए थे। शायद उसी बच्चे को याद कर पत्नी की आंखें बार-बार नम हो जाती थीं और उनके पति भी बार-बार अपना चश्मा पोंछते हुए उन्हें दिलासा दे रहे थे। बेचारे इमोशनल बुज्ाुर्ग! नीचे वाली दोनों बर्थ उन्हीं की थी। बीच वाली दोनों सीटों में से एक तरफ तो मेरी थी, दूसरी और एक अधेड सा आदमी था जो बातचीत का कुछ ज्य़ादा ही शौकीन लगता था। उन्होंने बच्चों से बतियाना शुरू किया मगर जब उनकी कई कोशिशों के बावजूद अकी और सनी केवल हूं-हां में जवाब देते रहे तो वे भी चुपचाप लेट गए। बीच-बीच में कई आवाज्ों निकालते, कभी दवा निगलते, कभी चूरन फांकते और फिर कुछ समय के लिए शांत हो जाते। मगर तभी कोई न कोई स्टेशन आ जाता और वो झांक कर ज्ाोर से पूछते, 'अरे भाई कौन सा स्टेशन आ गया?
ऊपर की दोनों शयनिकाओं में से एक तरफ तो लैपटॉप में डूबे मेरे पति विराजमान थे। दूसरी ओर एक हिप्पी सा 20-25 की उम्र का लडका था, जो दीन-दुनिया से बेख्ाबर कानों में अपने हैडफोन लगाए, बैग सिर के नीचे रखे, च्यूंगम की जुगाली करता आंखें मूंदे लेटा था। दोनों बच्चे भी साइड की ऊपर-नीचे वाली सीटों में पसर गए। थोडा लडाई-झगडा हुआ हमेशा की तरह। फिर सुलह भी हो गई। टिकटचेकर भी इधर-उधर चक्कर लगा रहे थे। तिरछी निगाहें बार बार कहीं मेरी तरफ ही तो नहीं फेंकी जा रही हैं? सोचते ही हंसी आ गई। हां, सही है कि शादी के फंक्शन के लिए फेशियल वगैरह करवाया था...। हाथ-पैरों में ख्ाूब मेहंदी रचाई थी। सभी ने मेरी तारीफें की। कहीं सचमुच तो ये लोग मुझे ही नहीं देख रहे? सोचते ही हंसी आ गई। अरे नहीं, मुझे ग्ालतफहमी हो रही है। अब कहां वो ज्ामाने जो लोग हमारे दीदार को मंडराएं...।
चलती रेलगाडी में सोना वैसे तो मुश्किल होता है लेकिन आज तो हम चारों ही थकान से बोझिल थे। एक मिनट भी आराम नहीं किया पूरे हफ्ते। शादी के इतने हंगामे में कोई सो भी कैसे सकता है भला। वो भी मायके की शादी। दूर-पास के सारे रिश्तेदार पधारे थे। आख्िारी शादी थी मेरे घर की...सबसे छोटे लाडले भाई की। ख्ाूब रौनक, नाच-गाना, ज्ाबर्दस्त मौज-मस्ती...। सोचते ही मेरे चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान आ गई। क्या धमाचौकडी मचाई थी! हम्म ज्ाबर्दस्त! हां, लेकिन यहां मेरी मुस्कान के पीछे एक और राज्ा की बात थी...जो मैं किसी को नहीं बता सकती थी। गूंगे का गुड क्या होता है, उसका स्वाद मुझे आज समझ आ रहा था। मीठी सी चुभन का एहसास हो रहा था।
अब तक सभी लोगों का खाना-पीना ख्ात्म होने लगा था और पूरे कंपार्टमेंट में लाइट्स बंद होने लगी थीं। थकान तो मुझे बहुत थी...पर ठीक से नींद आने में अभी समय था। कुछ ऊंघती सी मैं विचारों के समुद्र में गोते लगाने लगी।
अम्मा की लाडली होने के साथ-साथ तीन भाइयों की मैं इकलौती बहन हूं, सो मायके में मेरे ठाठ-बाठ अलग ही रहे। ससुराल से भी ऐसी कोई ख्ाास शिकायत नहीं रही, पर बहू होने की ज्िाम्मेदारियां तो अलग होती हैं न! राघव स्वभाव के ठीक हैं, आम ज्िाम्मेदार पतियों की तरह। फिर भी मैं हूं आम पत्नियों की तरह ही, तभी तो लाख चाहने पर भी इस राज्ा की बात को मैं किसी से नहीं कह सकती... पति से भी नहीं।
छोटे-मोटे गहने और अच्छे कपडे-लत्तों का शौक हमेशा से रहा है मुझे। मैं ये तो नहीं कह सकती कि जीवन में मेरी इच्छानुसार सब मिलता ही रहा है मुझे...पर राघव उन्हें पूरा करने की कोशिश करते रहे हैं। मेरी दिली इच्छा डायमंड टॉप्स पहनने की रही है। मैंने उसे ज्ााहिर किया तो राघव ने समझाया कि दो साल इंतज्ाार कर लूं। तब तक कुछ बचत हो जाएगी। मैंने सोचा कि ठीक है, अभी ज्िाम्मेदारिया बहुत हैं। पर अब तो इसी दीवाली पर नए टॉप्स पहनूंगी। आस-पडोस, रिश्तेदारों में मेरी ठसक देखने वाली होगी.....
अरे वो टिकटचेकर फिर से मेरी ओर कनखियों से देखते हुए गुज्ारा....। क्यों? अब एक बार भी और निकला तो पूछ ही लूंगी कि भैया क्या कष्ट है आपको आख्िार? मगर छोडो... हो सकता है वाकई कोई और बात हो। फालतू झंझट कौन करे! जाने दो। मैं ही उधर पीठ करके लेट जाती हूं। बेचैनी में नींद भी तो नही आ रही। ज्ारा एक बार फिर से टटोल लूं... हम्म... सब ठीक है।
अब इन अंकल को न जाने क्या प्रॉब्लम हो गई है। पता है कि दिल्ली पहुंचते-पहुंचते सुबह ही होगी, फिर भी बार-बार पूछने से बाज्ा नहीं आ रहे कि कौन सा स्टेशन है? गाडी कहां रुकी है? अबकी उनकी आवाज्ा आएगी तो देखूंगी ही नहीं, ऐसे दिखाऊंगी जैसे गहरी नींद में हूं। एक बार दोनों बच्चों को देख लूं ज्ारा...सनी तो सो गया है, अकी अपनी नॉवल खोले ऊंघ रही है...। राघव को क्या देखना। एक-दूसरे की आंखों में आंखें डाल कर निहारना तो कब का बंद हो चुका। अब तो ज्य़ादातर अपने फोन में ही घुसे रहते हैं। कैसी ऊब सी होने लगती है, इस बारे में सोचो तो। पर अभी मैं ये सब बिलकुल नहीं सोचना चाहती। मेरा ध्यान तो उस ख्ाूबसूरत रहस्य पर है, जो इस समय दिल के आसपास कहीं चुभ सा रहा है।
नीचे वाली आंटीजी ज्ाोरदार खर्राटे मार रही हैं। इतनी ज्ाोर से कि हडबडाकर ख्ाुद ही बीच-बीच में उठ बैठती हैं। बोतल से पानी की चंद बंूदें गटकती हैं, फिर लेट जाती हैं। इसी वजह से अंकल लगातार करवटें बदल रहे हैं। क्या पता नींद न आने की बीमारी हो इन्हें? ऊपर हेडफोन लगाए लडका यूं तो आंखें मूंदे लेटा है, पर निश्चित ताल में अपना सिर और पैर हिला रहा है। यानी कोई गाना चालू है। मैं भी अब सोने का उपक्रम करूं....। एक बार फिर से साडी का पल्लू ठीक करने के बहाने अपने ख्ाज्ााने को महसूस तो कर लूं ज्ारा...।
पर आज नींद जैसे आंखों से रूठ गई थी। शायद ट्रेन की रफ्तार से भी तेज्ा मेरी यादों की रेल आज रफ्तार पकड रही थी। भैया का ब्याह तय होते ही अम्मा ने मुझे बुलावा भेजा और पूछा, 'क्यों बिटिया, नेग में क्या लेगी? अम्मा मेरी खुले हाथ की थीं, पर अब ज्य़ादा दिलदार इसलिए भी हो गई थीं, क्योंकि आने वाली बहू अमीर परिवार की थी। अच्छी कद-काठी, बढिय़ा नौकरी वाले भाई को आख्िारकार वो सब मिलने वाला था, जिसका हमने कभी सिर्फ सपना ही देखा था। शायद उससे भी कहीं ज्य़ादा। हां, तो अम्मा ने जब इतने लाड से पूछा, मैंने भी कह दिया कि मुझे तो हीरे के टॉप्स ही चाहिए। अम्मा ने भी उत्साह में आकर झट से हां कर दी। मारे ख्ाुशी के मैं पूरे घर में नाचती-फिरी। सोचा, चिल्ला-चिल्ला कर सबको बताऊं मगर फिर रुक गई। अगर बता दूं कि मुझे नेग में डायमंड टॉप्स मिलने वाले हैं...तो राघव चैन की सांस लेकर कहेंगे, 'चलो भई तुम्हारी दिली इच्छा तो हो गई पूरी। अब बचत के पैसों से घर का कोई सामान ले लेते हैं। हर दीवाली सासू मां भी कोई न कोई साडी या पायल देती ही हैं। इस बार वो भी मुझे कुछ ख्ाास देने वाली हैं। टॉप्स मिलने की बात सुनेंगी तो सोचेंगी कि अब मुझे क्या देना और वो मीनाक्षी यानी मेरी देवरानी को ही मेरे हिस्से के गहने दे देंगी।
शादी की गहमागहमी के दौरान भी मेरा ध्यान उन जगमगाते हीरों पर लगा रहा, जो मुझे नेग में मिलने वाले थे। मेरी गुज्ाारिश पर अम्मा ने एक रात पहले ही चुपचाप वे टॉप्स मुझे दे दिए थे। वो कट, डिज्ााइन और चमक देख कर तो मानो मेरी आंखें चौंधिया गईं। ख्ाुशी का ठिकाना न रहा। अभी तक बावरी हो रही हूं मैं...।
ये नीचे लेटी आंटी सोने का नाटक कर रही हैं क्या? अभी-अभी गहरी नींद में दिख रही थीं, पर अब खर्राटे बंद हो गए हैं। अरे ये तो बैठी हुई इधर-उधर ताक रही हैं। उनके पति भी ऐसे ही हैं। कई-कई बार उठते हैं, घडी देखते हैं, खिडकी की तरफ ताकते हैं, इधर-उधर नज्ारें दौडाते हैं, फिर लेट जाते हैं। मैंने धीरे से राघव को पुकारा मगर ऊपर से कोई जवाब न आया। लगता है, वह सो गए। बच्चे भी अब गहरी नींद थे। मैं कैसे सोऊं? आंखों में तो वही चमक बसी है न। अब और रुका नहीं जाता। चोर नज्ारों से इधर-उधर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा। ऊपर की बर्थ पर लेटा लडका भी अभी सीट पर नहीं है, शायद टॉयलेट गया होगा। अब तो बेसब्री सही नहीं जा रही। मैंने अपने ब्लाउज के भीतर छिपाई हुई वह नायाब पुडिय़ा निकाल ली। टॉप्स की झलक से ही मन में हिलोरें उठने लगीं। वैसे यह कोई अच्छा आइडिया नहीं है कि टॉप्स को इस तरह ब्लाउज्ा के भीतर छिपाया जाता मगर अम्मा ने समझाया था कि आजकल ट्रेनों में चोरी-चकारी बहुत होती है। अटैची, बैग, पर्स कुछ भी सुरक्षित नहीं है। गांव-देहात की सभी औरतें अपने बटुए ऐसे ही तो रखती हैं। मैंने उनकी ये सलाह मान ली थी। अब तो मुझे उबासियां आने लगीं थीं। पलकें भी नींद से बोझिल थीं। थोडा सो ही लिया जाए। एक बार फिर से सारे सामान पर नज्ार दौडा लूं। इस बार सबको ध्यान से देखा। अरे, ये ऊपर की बर्थ पर सोता हुआ लडका तो इस एंगल से आठ-नौ साल पहले वाले जतिन जैसा लग रहा है। स्कूल और फिर कॉलेज जाते समय हमेशा वो मेरा पीछा किया करता था। मेरे लिए ऊलजलूल कविताएं लिखता, बेसुरे गाने गाता और बात करने के बहाने ढूंढा करता था...। अभी शादी में आया था सपरिवार। शरीर कुछ भर सा गया था, पर स्मार्ट लग रहा था। सुंदर बीवी, तीन बच्चे...सब कुछ था मगर ऐसा लगा मानो उसकी आंखों में आज भी मेरे लिए वही कुछ था, जो मैंने उसकी आंखों में बरसों पहले स्कूल के उस सुनहरे गलियारे में देखा था, जब पहली बार... हम दोनों ने...।
जाने दो....अतीत को क्या कुरेदना। अब तो मैं पक्की गृहस्थिन हो चुकी हूं और जतिन भी बाल-बच्चेदार आदमी बन चुका है। दोनों अपनी ज्िांदगी में ख्ाुश हैं, और क्या चाहिए।
अब तक मेरी आंखें मुंदने लगी थीं। मैंने अनजाने में जतिन के साथ बिताए उसी वक्त को शायद सपने में जीना शुरू कर दिया था।
पता नहीं, मैं जागी थी कि सो गई थी। सपना तो था, पर शायद सच था। आख्िारकार थकन की मदहोशी मुझ पर हावी हो चुकी थी...और जतिन का फिर याद आना मुझे बेबस करता जा रहा था। मैं कुछ भूले-बिसरे लमहे फिर से जीने लगी थी...। ओह, कितना असली सा लग रहा था उसका स्पर्श, उसकी सांसों से आती ख्ाुशबू...।
मैंने वही स्पर्श सबसे पहले अपने पांवों पर महसूस किया। मेरी पिंडली सहलाता उसका हाथ मेरे घुटने की और बढा...फिर रुक गया। अच्छा हुआ। वरना ये सपना मैं यहीं रोक देती। अरे ये क्या, अब वह मेरी पीठ सहला रहा है। नहीं..ये ग्ालत है जतिन, रुक जाओ...। मैं चिल्ला रही थी, मना करना चाह रही थी...पर मुंह से आवाज्ा नहीं निकल रही थी। ज्ाुबान तालू से चिपक गई थी। पीठ, गर्दन और कंधों पर अब उसके हाथों का मादक दबाव बढता जा रहा था। नहीं-नहीं, अब और नहीं। ये सपना अब और नहीं। पर क्या करूं...., मैं बेबस थी। अब वह हाथ मेरे जूडे की पिन एक-एक कर निकाल रहा है। मेरे लंबे बालों से अठखेलियां सी कर रहा है। मैं हार गई। मैंने ख्ाुद को सपने के हवाले कर दिया....।
नींद ज्ाबर्दस्त आई। आंखें तब खुलीं, जब झिंझोडकर राघव ने जगाया, 'उठो! स्टेशन आने वाला है। मैं जल्दी से नीचे कूदी और हैरान रह गई कि मेरे जूडे की पिन इधर-उधर बिखरी हैं और बाल खुल कर लहरा रहे हैं। राघव को ये सब पसंद नहीं, मैंने जल्दी से बालों में गांठ सी लगा ली। सभी लोग अपना सामान बांध कर उतरने की तैयारी में थे। प्लेटफॉर्म बस आने ही वाला था....।
अचानक मेरी हृदयविदारक चीख निकली। सारे लोग हैरानी से मुझे देखने लगे। चिंतित होकर राघव पूछने लगे 'ठीक तो हो? क्या हुआ? पर मैं कुछ बोलने की अवस्था में कहां थी? आंखों से आंसू बह रहे थे और गला रुंध गया था। 'मम्मा, क्या नाना-नानी की याद आ गई? अक्की ने धीरे ने पूछा। मेरे होंठ कंपकपा रहे थे-बेआवाज्ा! आखों के आगे अंधेरा छा रहा था और मैं बावरी सी होकर एक-एक कर सबकी शक्लें घूर रही थी...। किसी के चेहरे पर शिकन न थी। सब कुछ पहले जैसा था, कुछ भी नहीं बदला था मगर मेरी दुनिया लुट चुकी थी। अंकल-आंटी, टिकटचेकर, जतिन सा दिखने वाला लडका...इनमें से न जाने किसने रात में मेरे हीरे के टॉप्स चुरा लिए थे।