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मिर्च-मसाले

हर रिश्ते में कुछ खट्टा तो कुछ मीठा होता है, मगर सास-बहू के रिश्ते की बात ही अलग है। यहां तो खट्टे-मीठे के अलावा मिर्च-मसाला भी ख़्ाूब होता है। जिस तरह सेहत के लिए हर स्वाद ज़्ारूरी है, उसी तरह रिश्ते के इस कड़वे-तीखे स्वाद के बिना भी

By Edited By: Published: Mon, 27 Jul 2015 03:46 PM (IST)Updated: Mon, 27 Jul 2015 03:46 PM (IST)
मिर्च-मसाले

हर रिश्ते में कुछ खट्टा तो कुछ मीठा होता है, मगर सास-बहू के रिश्ते की बात ही अलग है। यहां तो खट्टे-मीठे के अलावा मिर्च-मसाला भी ख्ाूब होता है। जिस तरह सेहत के लिए हर स्वाद ज्ारूरी है, उसी तरह रिश्ते के इस कडवे-तीखे स्वाद के बिना भी ज्िांदगी बेमज्ाा है।

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यूनिवर्सिटी के काम से एकाएक मुझे मुजफ्फरपुर जाना पडा। मैं काम ख्ात्म करके सीधे अपने बचपन की सहेली निधि के घर जा पहुंची, जो वहीं अपने पति, बच्चों और सास के साथ रहती थी। बरसों बाद मुझे यूं आया देख उसकी ख्ाुशी का ठिकाना न रहा। वक्त की लंबी दौड में थोडी मोटी तो वह हुई थी, मगर चेहरे पर वही मासूम हंसी बरकरार थी। मुझे ख्ाुशी के अतिरेक से थामे घर के अंदर ले आई, जहां उसकी सास सुमित्रा देवी ने आत्मीयता से मेरा स्वागत किया। कुछ देर इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह मुझे लिए हुए सीधे अपने कमरे में आई। मेरा बैग एक ओर रखते हुए बोली, 'अच्छा हुआ जो ओम जी पंद्रह दिनों के लिए शहर से बाहर गए हैं। हम लोग यहां इत्मीनान से बातें करेंगे। जा तू हाथ-मुंह धो ले, मैं चाय बनाती हंू।

चाय के साथ बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। इतने दिनों बाद मिल कर एक-दूसरे को सब कुछ बता देने के लिए हम बेसब्र थे। बातें एकाएक करियर के पॉइंट पर आकर थमीं और निधि ने गहरी सांस भरते हुए कहा, 'अच्छा हुआ सुनंदा जो तू कॉलेज में पढाने लगी। कम से कम स्तवंत्र तो है। नौकरी करने वाली लडकियों को घर, परिवार और समाज में भी महत्व मिलता है। एक मैं हंू कि हर समय घर-परिवार के लिए मरती-खपती रहती हंू, सबकी ज्ारूरतों का ख्ायाल रखती हंू, फिर भी किसी को मेरी कद्र नहीं है। मुझसे काम लेना सब अपना अधिकार समझते हैं, मगर मेरे प्रति किसी को भी अपना फज्र्ा याद नहीं रहता।

'तुम ऐसा क्यों सोचती हो निधि? मुझे देखो, घर-बाहर दोहरी ज्िाम्मेदारियां निभाते-निभाते थक जाती हंू। बैंक बैलेंस चाहे बढे, मगर सुख-चैन का अनुभव कभी नहीं होता। कोई आर्थिक मजबूरी नहीं है तो नौकरी करना क्यों ज्ारूरी है? पहले जब मैं करियर के लिए दौड रही थी, मेरी समझ में ये बातें नहीं आईं, मगर अब समझ पा रही हंू।

'मेरी बातों का यह अर्थ नहीं है सुनंदा कि मैं सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हंू। अपनों के लिए जीने में मुझे सुख मिलता है, फिर भी यह सब मैं 'इमोशनल फूल बनकर नहीं करना चाहती। मैं चाहती हंू कि मेरे घर के लोग अधिकारों के साथ फज्र्ा भी याद रखें। मेरे पति का ऐसा स्वभाव है कि वह बाहर वालों से दो-चार लाइन बोल भी लेते हैं, मगर मेरे साथ तो सुबह से शाम तक साथ रहने के बावजूद दो शब्द मुंह से नहीं निकालते। तरस जाती हंू इनसे बात करने के लिए। सुबह उठते ही अख्ाबार से चिपक जाते हैं। ऑफिस जाते समय तैयार होंगे, नाश्ता रख दूंगी तो खा लेंगे, वर्ना यूं ही चले जाएंगे। न खाने की कभी तारीफ-न आलोचना। यूं ही लोग कहते हैं कि पति के दिल तक जाने का रास्ता पेट से होकर जाता है। अब तुम ही बताओ कोई कैसे ऐसे आदमी के दिल तक जाने का रास्ता बनाए। सभी कहते हैं, सीधा पति मिला है, सच कहूं तो सुन कर दिल जल-भुन जाता है। सीधे की तारीफ करना अलग बात है, उसके साथ निभाना अलग। मैं तो अपने दिल की बात भी ओम जी के साथ कभी शेयर नहीं कर पाई।

'वो नहीं बोलते तो तुम बोला करो। देखना, धीरे-धीरे वह भी बोलने लगेंगे।

'पंद्रह साल से कोशिश कर रही हंू, पर वही ढाक के तीन-पात। एक दिन मैंने इन्हें बहुत प्यार से समझाया भी कि ऑफिस से आकर कुछ देर साथ बैठा कीजिए, बात कीजिए, मुझे अच्छा लगेगा। अगले दिन ऑफिस से आते ही पूछने लगे, 'कैसी हो? सब ठीक है न!

मेरे तो तन-बदन में आग लग गई। जितना कम ओम बोलते हैं, उतना ही ज्य़ादा इनकी मां बोलती हैं। मेरे हर काम में मीन-मेख निकालना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।

इधर हमारी बातें थमने का नाम ही नहीं ले रही थी, उधर उसकी सास मां थोडी-थोडी देर पर किसी न किसी को पुकारती रहतीं। उनका यह व्यवहार मुझे कुछ अजीब-सा लग रहा था। शायद हम दोनों बातों में इतने मशगूल थे कि वह अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रही थी।

'ये क्या अम्मा जी, बार-बार बुलाए जा रही हैं, इतने दिनों बाद सनंदा आई है, कुछ देर तो चैन से बातें कर लेने दीजिए।

बोलते हुए निधि उठी और सब्ज्ाी का टोकरा उनके पास रख आई। तत्काल उनका अरण्य रोदन समाप्त हो गया। 'ये हुई न बात! बातें करने के लिए कौन मना कर रहा है बहू, जितना जी चाहे उतनी बातें करो, पर कुछ खिलाने-पिलाने का इंतज्ााम भी तो करो।

'आप मटर छील दें, मटर-पनीर बना दूंगी।

'मटर की दाल बनाओ न, शुद्ध घी का छौंक लगा कर...., मटर छीलते हुए उसकी सास मां ने झट से रेसिपी बदल दी।

मैंने भी सुमित्रा देवी का समर्थन कर दिया, जिससे उत्साहित होकर वह थोडी देर बाद रसोई में जाकर ख्ाुद ही दाल बनाने लगी थीं। खाने की मेज्ा पर सबके मुंह से दाल की तारीफ सुन कर ख्ाुशी से उनका चेहरा दमकने लगा था।

कुछ ही देर पहले जब मैं आई थी, उन्हें कमला के साथ धीमे-धीमे बातें करते देख मुझे लगा कि इतनी उम्रदराज होने के बावजूद बहू पर बडी निगरानी रखती हैं वह। जितनी देर मैं निधि से बातें करती रही, कमला मेरे आसपास मंडराती रही थी। निधि उसे डांटते हुए बोली भी, 'स्पाई का काम छोडो और जाके रसोई संभालो।

इस उम्र में बहू की गतिविधियों पर नज्ार रखने जैसी उनकी हरकत मुझे नागवार गुज्ार रही थी, लेकिन सबके साथ खाना बनाने में शामिल होने के बाद उनके मन की कडवाहट जाने कहां घुल गई और उनके होठों पर मासूम सी मुस्कराहट थी।

मगर निधि ने जिस सहजता के साथ अपनी वृद्ध सास को घरेलू कार्यों में शामिल कर लिया, वह मुझे खटका। रात में निधि के साथ उसके कमरे में सोई तो बातों का सिलसिला फिर चल निकला। निधि बार-बार मुझसे दो-चार दिन की छुट्टी लेने का इसरार कर रही थी, लेकिन सास-बहू के बीच यह सांप-नेवले वाला अंदाज्ा मुझे सहज नहीं रहने दे रहा था। निधि ने मेरे मन की बातें पढ ली थीं।

'तू शायद हमारी नोक-झोंक से घबरा रही है, पर ये तो जीवन के मिर्च-मसाले हैं जो नीरस जीवन में स्वाद भरते हैं। उसकी मात्रा ज्य़ादा हो तो गडबड होती है, जो मैं होने नहीं देती।

'लेकिन मैं उस निधि को ढूंढ रही हंू जिसने कॉलेज में 'हमारे बुज्ाुर्ग... विषय पर बोलते हुए उन्हें जीवन-संध्या में आराम व सम्मान देने की बातें कह कर प्रथम पुरस्कार के साथ ही ढेर सारी वाहवाही भी लूटी थी।

'तो अब कहां इंकार कर रही हंू। आज भी मेरा मानना है कि बुज्ाुर्ग घर की रौनक होते हैं। उनका अनुभव कई बार हमें जीवन में सफलता के गुरुमंत्र दे जाता है। अनुभवों से मैंने यही सीखा है कि उन्हें देवता बना कर उनके जीवन में इतनी मिठास मत घोलो कि उन्हें डायबिटीज्ा हो जाए। कुछ समझी कि नहीं? देखो, अति हर बात की बुरी होती है। बुज्ाुर्गों को पूजने के बजाय उन्हें जीवन की मुख्य धारा से जोडे रखना चाहिए, वर्ना ज्िाम्मेदारियों से अलग होते ही मोक्ष के लालच में वे धार्मिक कर्मकांडों में इतना उलझ जाते हैं कि घर-परिवार से कटने लगते हैं और यह बात उन्हें अकेला करने लगती है। उन्हें अनुपयोगी मान कर कई बार बच्चे ही उन्हें ऐसा जीवन अपनाने के लिए मजबूर कर देते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि बुज्ाुर्गों को भी अपने जीवन की सार्थकता अपने बच्चों के दुख-सुख से जुड कर ही होती है।

'तुम्हीं सोचो, जिसने बरसों तक घर का मुखिया बन कर उसे संभाला हो, जिसकी ईंट-ईंट से उसका अस्तित्व जुडा रहा हो, जिसने कभी बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए अपनी हर ख्ाुशी दांव पर लगा दी हो, वृद्धावस्था में उन्हीं के छोटे-छोटे काम करने के मौके भला वे कैसे चूकना चाहेंगे। उन्हें सेवा-मुक्त करना समस्या को और बढा देगा। सांसारिक संबंधों से विरक्त होकर कोई कैसे ख्ाुश हो सकता है।

'अपने बेटे की शादी कर मां कभी न कभी बहू से यह ज्ारूर करती है कि संभालो अपनी गृहस्थी, अब यह तुम्हारे हवाले। अब तो मैं पूजा-पाठ कर परलोक सुधारूं। बहू चाहे जितनी मेहनत से घर संवार ले, सामंजस्य बिठा ले, मगर सास हमेशा आलोचक की दृष्टि से उसे देखती है। उम्र के इस दौर में शारीरिक तौर पर अशक्त होने पर बहू से काम करवाना भी ज्ारूरी होता है, मगर बहू घर की मुखिया बने, यह सास को नहीं सुहाता। यह टकराव का मुख्य बिंदु होता है।

निधि लगातार बोल रही थी, 'ज्ारा सोचो, बहू अपनी सास को घर के राग-विराग से अलग कर पूजा-पाठ में ही लगे रहने पर मजबूर कर दे तो सास मानसिक अवसाद से घिर कर जल्दी ही दुनिया को अलविदा कह देगी। क्योंकि बहू को मात देने की अभिलाषा ही सास की जिजीविषा होती है। इसलिए मैं अपनी सास को जानबूझ कर कुछ काम सौंपती हूं, ताकि वह सक्रिय और उत्पादक जीवन बिता सकेें और धर्म-कर्म और मिथ्या ढकोसलों से दूर रहें। और सुनो, जब भी मेरा बेटा हॉस्टल से घर आता है, अपना सबसे ज्य़ादा समय दादी मां के साथ गुज्ाारता है। वह उसके साथ लूडो खेलती हैं, उसके बालों में तेल लगाती हैं और ख्ाुश रहती हैं। जबकि मेरी ग्ालतियों की फेहरिस्त बनाती रहती हैं, ताकि बेटे को एहसास दिला सकें कि उनकी बहू उनसे कमतर है। कई बार तो खाने की मेज्ा पर इतना बुरा मुंह बनाती हैं कि पति मुझे शिकायती अंदाज्ा में देखने लगते हैं, मानो खाने में मिर्च काफी डाल दी हो। दरअसल ऐसा वह बेटे का प्यार व सहानुभूति पाने के लिए करती हैं। हालांकि कभी-कभी मेरा धैर्य चुक जाता है और उन्हें जवाब दे देती हूं।

कुछ देर रुक कर निधि हंसते हुए बोली, 'जानती हो, कई बार तो सास यहां तक बोल देती हैं कि मैंने उन्हें कुछ कहा तो मीडिया में मेरी शिकायत कर देंगी। वह दिल की बुरी नहीं हैं, मगर ग्ाुस्से वाली हैं। कल्पना करो सुनंदा कि कल यदि सचमुच मेरी सास की शिकायत पर कोई चैनल वाले सास-बहू टाइप स्टोरी करने मेरे घर आ धमकें तो क्या होगा? दिन भर मेरी ख्ाबर चलती रहेगी और लोग कहेंगे, देखिए ज्ारा, कितनी बुरी बहू है, सास का जीना हराम कर दिया है।

निधि की बेतुकी सी कल्पना पर हम दोनों ही हंस पडे थे। निधि फिर बोली, 'सुनंदा, ज्िांदगी में हम हर रिश्ते को अपने अनुकूल तो चुन नहीं सकते। जो मिलता है उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए कोशिश करनी ही पडती है, ताकि घर में हर सदस्य के जीवन की थोडी ख्ाुशियां बची रहें। यह भी ठीक नहीं है कि बुज्ाुर्गों की बेतुकी व अतार्किक बातों को माना जाए और केवल उनका अहं तुष्ट करने के लिए बहू की ज्िांदगी बर्बाद की जाए। मैं घर की शांति के लिए हरसंभव उपाय करती हंू। सास को भी काम में मसरूफ रखती हूं। ख्ााली दिमाग्ा शैतान का घर जो होता है।

निधि के इस लंबे आख्यान के बाद मुझे महसूस होने लगा कि तमाम मत-विरोध के बावजूद इस सास-बहू में गहरा स्नेह-भाव भी है। निधि ने मुझसे कहा, 'जानती हो सुनंदा, मेरी सास मेरे साथ रहना चाहती हैं। एक बार मेरे देवर इन्हें साथ ले जाने आए तो शर्त रख दी कि एक हफ्ते में वापस लौट आएंगी। देवर बोले भी कि यहां भाभी तुम्हें हरदम काम पकडाती हैं, जबकि मेरे घर पर एक ग्लास पानी भी नहीं लेना पडता, फिर जाने से क्यों मना करती हो? इस पर सास बोलीं, 'अरे ये तुम क्या कह रहे हो अंजनी? आज भी मुझे ओम से ज्य़ादा निधि पर भरोसा है। जो अपनापन मुझे निधि से मिला है, वह तो अपनी बेटी से भी नहीं मिला। उसके कामों में हाथ बंटा कर मुझे खुशी मिलती है कि मैं भी अपने बच्चों के लिए कुछ कर पा रही हंू। तुम्हारी नज्ारों में निधि चाहे जैसी हो, पर उसके हर फैसले में मैं शामिल रहती हूं, जिससे मुझे लगता है कि मेरा भी वजूद है और मैं भी इस परिवार का हिस्सा हंू, जिसे मेरी सलाह की ज्ारूरत है।

इतनी लंबी बातचीत के बाद निधि थक कर सो गई, मगर मेरे दिमाग में संबंधों का यह ताना-बाना चलता रहा। बदलते समय के साथ जीने के तरीके और रिश्ते भी बदल जाते हैं। निधि अपनी नई सोच के साथ रिश्तों की डोर को मज्ाबूती से थामे नई चुनौतियों का सामना कर रही थी। सास-ससुर को देवता समान पूजने की धारणा से अलग वह उन्हें रोज्ामर्रा के कामों से जोडे रखने में यकीन करती है। इससे सास को उपयोगी होने का एहसास होता है। यहां मीठी नोक-झोंक के साथ सास-बहू का सहज रिश्ता दिखता है, जो उन परिवारों से लाख गुना बेहतर है, जहां बुज्ाुर्गों को सम्मान देने का दिखावा करके लोग उन्हें अकेला कर बैठते हैं। सास की बेवजह झिडकियां और बहू से उनका हलका-फुलका टकराव तो जीवन के मिर्च-मसाले जैसा है, जो संबंधों में स्वाद भर कर उन्हें मज्ाबूत बनाते हैं।

...मैंने दूसरे दिन ही निधि के घर चार दिन तक रुकने का कार्यक्रम बना लिया था।

रीता कुमारी


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