Move to Jagran APP

एक नए मोड़ की तलाश

जिंदगी ने उसे बार-बार छला। फिर नियति उसे जहां ले गई, वहां से घर लौटना मुश्किल हो गया। वैभव व ऐश्वर्य उसके कदमों तले था, लेकिन अतीत रह-रह कर कचोटता था। एक दिन हर सुख को ठुकरा कर निचाट एकांत में बसने का निर्णय कर लिया उसने।

By Edited By: Published: Mon, 27 Jul 2015 02:48 PM (IST)Updated: Mon, 27 Jul 2015 02:48 PM (IST)
एक नए मोड़ की तलाश

जिंदगी ने उसे बार-बार छला। फिर नियति उसे जहां ले गई, वहां से घर लौटना मुश्किल हो गया। वैभव व ऐश्वर्य उसके कदमों तले था, लेकिन अतीत रह-रह कर कचोटता था। एक दिन हर सुख को ठुकरा कर निचाट एकांत में बसने का निर्णय कर लिया उसने।

loksabha election banner

बारहवीं का अंतिम पेपर देकर थकी-हारी अंबा लौट रही थी। बस का इंतज्ाार करती थक गई थी कि तभी करीब से चमचमाती कार आकर रुकी और एक प्रौढा ने झांक कर पूछा, 'कहां जाना है बिटिया? अंबा को आश्वासन मिला और जब उसने गंतव्य का नाम बताया तो ड्राइविंग सीट पर बैठे पुरुष ने कहा, 'हमें भी वहीं जाना है। तुम्हें छोड देंगे।

थकान इतनी हावी थी कि बिना कुछ सोचे कार में पिछली सीट पर प्रौढा के साथ बैठ गई। पल-भर में ही महसूस हुआ कि कार अनजानी राह पर ले जा रही है। उसे पानी के नाम पर कुछ ऐसा पिला दिया गया कि सोचने समझने की ताकत ही ख्ात्म हो गई। होश में आई तो मुंबई के लिए रवाना होती ट्रेन में थी। सामने बैठे एक वृद्ध दंपती ने उसे अपने संरक्षण में ले लिया था...।

उसे अभावग्रस्त अतीत से छुटकारा दिलाने और फिल्मों में जगह दिलाने का वादा करके दलाल ने उससे मौन स्वीकृति ले ली थी। उसे कुछ पता नहीं, पल भर में उसके साथ क्या हो गया। आख्िारकार वह मुंबई ही पहुंच गई। उसका निखरा हुआ रूप देख कर लोग मंडराते। शुरू में मन में कुछ चुभता था, मगर वक्त के साथ उसने समझौता कर लिया था। हर सांझ के बाद सुबह होती है। समय के साथ उसका अतीत धुलता गया। फिल्मों में छोटे-छोटे पात्र निभाने वाली अंबा यानी जयंती का नया जन्म हुआ।

***

व्यस्त अभिनेत्री बन चुकी थी जयंती। मां लक्ष्मी की कृपा से उसे आंचल भर-भर कर श्री समृद्धि मिली। संरक्षक बनकर साथ रह रहे वीरेंद्र और उसकी पत्नी सुभगतारण के लिए वह वरदान बनकर आई। ज्िांदगी का दूसरा अध्याय ख्ाासा आकर्षक था। निर्माता-निर्देशक सूर्यकांत उसे पत्नी बना कर अपनी मु_ी में कैद करने में सफल हो गया। पहली पत्नी को तलाक और दोनों बच्चों के निर्वाह के लिए भारी रकम देकर उसने जयंती के साथ रहने का फैसला कर लिया।

उम्र के 35वें बरस तक पहुंचते-पहुंचते वह शोहरत की बुलंदी पर पहुंच गई। सब कुछ था उसके पास, मगर पूर्णता का आभास नहीं होता। रात में नींद पलकों तक आकर ठहरती तो विगत की तसवीरें उभरने लगतीं। मामा के घर की धुंआती रसोई में सफेद साडी में लिपटी अम्मा की दुबली-पतली काया, जिसका आंचल पकड कर अंबा घूमा करती। ग्ारीबी, अभाव और वैधव्य के अपमान को सहन करती मां और नन्ही बच्ची...। इतने बरसों में बहुत-कुछ बदल गया होगा। जीवन की अंधी दौड में कभी घर का ख्ायाल ही नहीं आया। मगर अब रह-रहकर याद आती है, जहां अपमान के सिवा कुछ न मिला।

जयंती की बेचैनी बढऩे लगी थी। उसकी रातें घबराहट में कटतीं। सोचती, कैसे वह आज्ााद हो जाए। स्वयं को छलने की पीडा जागती और आंखों से झरने बह निकलते।

***

जयंती की बंद आंखों में हनुमान मंदिर का गर्भगृह उभर आया। जहां दो साल पहले 'आउटडोर शूटिंग के दौरान अपनी यूनिट के साथ मौजूद थी वह। ग्रामीण दुलहन के वेश में सजी थी जयंती। मेकअप धोने के बावजूद मांग की सिंदूरी रेखा रह गई थी। सूर्यकांत के साथ मंदिर में पहुंची तो उन्हें देख कर पुजारी ने सिंदूर का दीया आगे बढाया और स्नेह-आशीष दिया, 'सौभाग्यवती रहो, दूधो नहाओ पूतो फलो। स्नेह से ओतप्रोत उस स्वर की प्रतिध्वनि गंूजी तो लगा कि उसे उसके सवालों के जवाब मिलने लगे हैं।

पांच वर्षों के सहजीवन में केवल फिल्मों में ही प्रेयसी, मां बन कर नाते-रिश्ते निभाए, पर वास्तविक जीवन में उसका हाल 'जिस्म तनहा और जां तनहा... जैसा रहा। उम्र के चालीसवें वर्ष में जयंती के भीतर छिपी अंबा की बेचैनी बढऩे लगी तो महसूस हुआ कि अब कोई बडा निर्णय लेना ही होगा। सूर्यकांत उन दिनों आउटडोर शूटिंग के लिए एक सप्ताह के लिए बाहर था। जयंती ने एक प्रेस कॉन्फ्रें स बुला कर सूचना दी कि अब तक जो अनुबंध किए हैं, उन्हें पूरा करने के बाद वह अभिनय की दुनिया से संन्यास लेने वाली हैं। सबके लिए यह ख्ाबर झटके की तरह थी। जयंती ने हिसाब करके जान लिया था कि उसकी उपलब्धियां क्या हैं और आगे उसे क्या करना है। सूर्यकांत के साथ गुज्ारे पांच वर्ष मानो फिल्मों का अनुबंध मात्र थे। अपनी विशाल कोठी बेच कर संरक्षक दंपती के लिए छोटा फ्लैट ख्ारीदा। उनके लिए मासिक आय की व्यवस्था की और अख्ाबार में 'सत्या निकेतन के विज्ञापन को देख कर उसने अर्जी दे दी।

सूर्यकांत अब तक यही सोचता रहा था कि ख्याति व वैभव की ज्िांदगी का त्याग करना इतना आसान नहीं है, जितना जयंती समझ रही है। मगर जयंती के फैसले से उसे भी धक्का पहुंचा था। वह सुख-सुविधा से दूर जिस रास्ते की ओर चल पडी थी, उसकी तो सूर्यकांत ने कल्पना भी नहीं की थी।

***

बस का लंबा सफर तय कर पश्चिमी सरहद पर बसे उस गांव में उतरी तो वहां के उन्मुक्त वातावरण में सांस लेकर राहत महसूस हुई। कुहासे में दबी-ढकी सुबह सूर्योदय का इंतज्ाार कर रही थी।

'बाबा..., नारी कंठ की स्नेह-सिक्त आवाज्ा सुन कर पुजारी मणिशंकर ने बाहर झांक कर देखा तो द्वार पर खडी जयंती को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। सादी वेशभूषा, आभूषण नहीं, माथे पर कुमकुम की बिंदी, अपूर्व तेज से दीप्त मुखमंडल, हाथ में अटैची लिए खडी एक अपरिचित। कुछ पूछने से पहले ही वह चरण स्पर्श को झुक गई। 'कौन हो? कहां से आई हो? मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हंू? बाबा ने पूछा तो अपरिचिता की आंखें छलक गईं। बोली, 'ज्िांदगी में कई साथ छूटे। सूखी पत्तियों की तरह पुरानी यादें बिखर गईं। अपनापन खो गया। भटकते-भटकते थक गई। कोई राह न मिली तो यहां आ गई।

गहरी दृष्टि से मणिशंकर ने जयंती को देखा और बोले, 'तुम जानती हो कि यह गांव सरहद पर बसा है? हमेशा ख्ातरा रहता है?

'हां। यह तो मैं जानती हंू। दो बरस पहले मैं एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में आई थी और आपने सुख-सुहाग का आशीष भी दिया था...। जयंती ने कहा तो पल भर को मणिशंकर को कुछ याद आने लगा था।

'अंदर-बाहर से शुद्ध बनो, सेवा के लिए निरंतर तत्पर रहो पुत्री..., फिर से उनका स्नेह-आशीष पाकर आस्था जाग उठी।

'बिटिया, मुंह-हाथ धो लो। चाय पीकर आराम करो... फिर मैं तुम्हें 'सत्या निकेतन आश्रम ले चलूंगा। बाबा की आवाज्ा ने जयंती की विचार तंद्रा को भंग कर दिया।

पीतल के गिलास में तुलसी-अदरक वाली चाय की महक में खोकर कई पुरानी यादें पीछे हट गईं।

सुबह पूजा-अर्चना के बाद गउओं का दूध और बाडी की सब्ज्िायां लेकर मणिशंकर जयंती को साथ लेकर गांव के रास्ते पर चले तो जयंती के बारे में बहुत कुछ जान लिया। गुज्ारी ज्िांदगी के बारे में बाबा को बताते हुए उसे ऐसा लगा मानो किसी आत्मीय के सामने दबी हुई यादों का बोझ उतार दिया हो। वह राहत महसूस करने लगी थी।

जयंती को लेकर जब मणिशंकर 'सत्या निकेतन आश्रम पहुंचे तो डॉ. आदित्य प्रकाश पौधों की निराई कर रहे थे और उनके साथ आश्रम के बच्चे काम कर रहे थे। मणिशंकर ने जयंती का संक्षिप्त परिचय देकर कहा, 'जीवन के इस मोड पर अपने लिए ऐसे काम की तलाश में आई है, जिससे इसे मानसिक शांति मिले। अपने साथ यह कुछ धनराशि भी लाई है, जिसे आश्रम को दान करना चाहती है। जयंती को वहीं छोड कर बाबा चले गए। आदित्य प्रकाश ने कहा, 'आओ, आश्रम के लोगों से तुम्हारा परिचय करवा देता हूं। इसके बाद तुम कोई निर्णय लेना चाहो तो ले सकती हो।

यहां आने से पहले जयंती को इतना ही पता था कि कर्नल आदित्य प्रकाश सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पुश्तैनी गांव में आकर बसे हैं। एक छोटा सा दवाखाना खोलने के बाद ही उन्होंने यह आश्रम बनाया है।

फौज में रहकर डॉक्टर आदित्य प्रकाश ने कई हादसे झेले, मगर जब उनका एकमात्र फौजी बेटा शहीद हो गया तो सहनशक्ति क्षीण हो गई। वह फिर भी ख्ाुद को संभाल ले गए, मगर उनकी पत्नी सत्या हादसे के बाद उबर नहीं पाईं। सब कुछ खोकर अंत में गांव लौटे और लोगों की समस्याओं का हल ढूंढने में व्यस्त हो गए। उन्हें जीने का नया मकसद मिल गया।

सीमा पर बसे लोगों के परिवारों, उनसे बिछडे बच्चों के लिए एक छोटा सा आश्रम बनाया। मालगुज्ाारों के ज्ामाने की अपनी हवेली को नया रूप दे डाला। बीस बच्चों से शुरुआत हुई थी 'सत्या निकेतन की, जिसमें अब तक सौ बच्चे आ गए हैं। यहां वे स्त्रियां काम करती हैं, जिन्होंने हादसों में किसी अपने को खोया है।

जयंती ने उन्हें अपने बारे में सब कुछ बताते हुए कहा, 'जो कुछ भी मेरे पास है, उसे मैं आश्रम के ट्रस्ट में जमा करना चाहती हंू, फिर आप मेरे लिए जो भी काम सही समझें, सौंपें। मैं बीती यादों को भूल कर ख्ााली मुठ्ठी में सिर्फ आज को भरना चाहती हूं। यह सब कहते वक्त जयंती की आंखें भर आईं और जब डॉक्टर साहब ने पूछा, 'क्या तुम अपने घर नहीं जाना चाहोगी? तो उसने सिर्फ इतना ही कहा, 'मां ज्िांदा होती तो शायद यह ख्ायाल आता, मगर अब कौन है, जिसके पास जाना चाहूं।

डॉ. आदित्य प्रकाश आंखें मूंद कर विचारों में खो गए। पल भर मौन छाया रहा, फिर बोले, 'बारहवीं की परीक्षा दी है तुमने, मगर प्रमाण पत्र नहीं है। फिर भी बच्चों को सामान्य जानकारियां तो दे ही सकती हो। तुम्हारे रहने और खाने-पीने की व्यवस्था हम कर देंगे। यह सुन कर जयंती की आंखों में चमक उभर आई और बीती हुई बातें पत्ते पर ओस की बूंद की तरह फिसल गईं।

पुजारी मणिशंकर ने बताया कि एक दुर्घटना में उन्होंने भी अपने परिवार को खो दिया था। अब वह मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं और जो समय बचता है, उसे आश्रम के कामों में व्यतीत करते हैं। मंदिर के आंगन में महीने में एक बार शहर के समाजसेवी संस्था से चिकित्सक, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता आते हैं और तमाम समस्याओं का निदान करते हैं। जयंती ने गहरी सांस ली और बुदबुदाई, यही वह मोड है, जिसकी मुझे तलाश थी।

लीला रामचंद्रन


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.