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सातवां घोड़ा

लड़की से स्त्री बनने की यात्रा बड़ी कठिन होती है। कर्तव्यों की लंबी सी सूची पकड़ा दी जाती है लड़की को। पति को समझते, ससुराल के हर सदस्य का मन जानते-बूझते और सबका अहं तुष्ट करते लड़की मां भी बन जाती है। मगर उसके मन में सपनों से भरी एक

By Edited By: Published: Mon, 01 Jun 2015 11:35 AM (IST)Updated: Mon, 01 Jun 2015 11:35 AM (IST)
सातवां घोड़ा

लडकी से स्त्री बनने की यात्रा बडी कठिन होती है। कर्तव्यों की लंबी सी सूची पकडा दी जाती है लडकी को। पति को समझते, ससुराल के हर सदस्य का मन जानते-बूझते और सबका अहं तुष्ट करते लडकी मां भी बन जाती है। मगर उसके मन में सपनों से भरी एक लडकी हमेशा ज्िांदा रहती है।

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आदमकद शीशे के सामने खडी थी वह। चेहरे पर उभर रही हलकी से गहरी बनती रेखाओं को समय के तराजू पर तौलने लगी। कितना समय बीत गया है! उसके अक्स के पीछे बहुत-सी दूसरी छायाएं आ-जा रही थीं। उसकी छाया के ठीक पीछे संदीप खडा था। सिद्ध महाराज का मंदिर था। बीच में पडऩे वाली पासा नदी और उस पर बना पुल...। वे दोनों चले जा रहे हैं। पीछे-पीछे संदीप के दो-तीन साथी हैं। ठंडी-ठंंडी हवा है और हंसी-ठिठोली चल रही है। नदी के उस पार राधामोहन के बगीचे केे सामने वे लोग कुछ देर ठहर जाते हैं। उसका इंतज्ाार करते हैं। राधामोहन हंसते हुए आता है। संदीप से कहता है, चलो भैया! राजेंद्रनाथ की तरह ऐक्टिंग मारता है। हाथ मसलता है और वे सब हंस पडते हैं। धीरे-धीरे सिद्ध महाराज पहुंचते हैं। लगातार दो-तीन दिन पानी बरसा। कीचड है, कहीं सूखी मिट्टी दिखती है। संभल-संभल कर वे पैर आगे बढाते हैं। फिर भी फिसलते-बचते वे सिद्ध महाराज पहुंच जाते हैं। वह संदीप से कहती है, 'तुम लोग नहा लो। मैं किनारे से शंख और सीपियां बटोर लेती हूं। संदीप मुस्कराता है। उसकी मुस्कराहट पर ही तो वह फिदा है। उसे खडी-खडी देखने लगती है। वह कहता है, क्या देख रही हो लल्ली? प्रत्युत्तर में वह मुस्करा कर रह जाती है। पलट कर रेत पर नज्ार डालती है। चारों तरफ साफ-सुथरी चमकती हुई रेत बिछी है। एकदम नई-नई है। करीने से जमी हुई। किसी अदृश्य कलाकार की ताज्ाा कृति लगती है। प्रकृति के निर्मित चित्रों से छेडछाड का उसका मन नहीं करता, लेकिन सीपियां, शंख और कुछ चमकदार पत्थर तो उसे बटोरने ही हैं। पता नहीं कितने रंगों में... विचित्र! वह कदम आगे बढाती है। तभी झाडी से एक खरहा निकल भागता है। रेत से होता हुआ गुज्ारता है। उसके नन्हे-नन्हे पैरों से रेत पर आधा चांद बन जाता है। वह खडी-खडी देखती है और फिर शंख-सीपियां बीनने में जुट जाती है। उधर कुंड में हो-हल्ला होता रहता है। वे सब नहा रहे होते हैं। गहरे और गहरे जाने का प्रयास करते हैं।

धीरे-धीरे सूरज हलका पडऩे लगता है। संदीप पानी से बाहर आता है। 'कितने बटोर लिए? उससे पूछता है। 'बहुत सारे! वह झोली फैला देती है। क्या करोगी इनका? वह लल्ली के चेहरे की तरफ देखता है। लल्ली उसे एकटक देखती है, 'बहुत काम की चीज्ा हैं संदीप। इन्हें अपने डिब्बे में रखूंगी। बस यही तो कलेक्शन है मेरा। एक पत्थर निकाल कर संदीप को दिखाती है, 'देखो इसे, बिलकुल नारियल की गिरी जैसा लगता है। संदीप हाथ में उठा लेता है। 'आश्चर्य है! इसे तो मुंह में रखने का दिल करता है। किसी बच्चे को मत दिखाना, वह कहता है।

एक-एक कर सभी पानी से बाहर निकलते हैं। सबका लीडर लक्ष्मेंद्र कहता है, 'चलो लौट चलें, मेरे पापा आ गए होंगे। झटपट सभी कपडे पहन कर वापस लौट पडते हैं....।

दरवाजे पर खटखटाने की आवाज्ा से वह चौंक जाती है। अचानक शीशे में उभरी सभी आकृतियां गायब हो जाती हैं। जैसे किसी ने ठहरे पानी में कंकड फेंक दिया हो। 'मेम साहब! संतो पीछे खडी है। उसने शीशे से देख लिया। शायद संतो के कारण ही वे आकृतियां लुप्त हो गईं। कभी-कभी तो समय मिलता है उसे शीशे के सामने खडे होने का। संतो उसे विलेन की तरह लगी। चीख पडी, 'क्या बात है? 'कुछ नहीं मेम साहब, जीजा जी आए हैं। वह बाहर की ओर भागी। कुछ ही देर पहले वह शीशे के सामने मेकअप करने खडी हुई थी...। लिपस्टिक लगाई थी। पाउडर लगा कर उन गहरी रेखाओं को हलका करना चाह रही थी कि....।

बाहर आई तो मधुप खडे थे। एक हाथ में लिफाफा था। चेहरे पर ख्ाुशी थी। उसे कुछ खटका हुआ। जब भी मधुप आते हैं, चेहरा लटका रहता है। ऐसा लगता है कि बचपन से ही ऐसे हैं। उदासी उनका स्थाई भाव है। उसने कभी उनकेे चेहरे पर हास्य की कोई लकीर नहीं देखी। कभी-कभार हंसते हैं तो उसे संदीप केचेहरे का आभास होता है। अचानक वह ख्ाुद को संदीप केे साथ देखने लगती है। सिद्ध महाराज पहुंच जाती है सीपियां और शंख बटोरने। पर ऐसे अवसर कम ही आते हैं। जब मौका मिलता है, संपूूर्णता से जी लेती है। 'ऐसे ही देखती रहोगी या कुछ....? मधुप ने उससे पूछा। अचानक वह वर्तमान में लौट गई। 'क्या हुआ? ये लिफाफा?

'ख्ाुशी की बात है। मधुप ने झोले से मिठाई का बडा-सा डिब्बा निकाला, 'अरे, प्रोफेसर हो गया हूं इंजीनियरिंग कॉलेज में...। अचानक उसे न जाने क्या हुआ कि लिपट गई मधुप से। ऐसा कभी हुआ नहीं, पर जब-जब मधुप में उसे संदीप दिखा, वह अपने आपको रोक नहीं पाई। हकीकत में लौटते ही वह अलग हट गई। उसने सुना, मधुप कह रहे हैं, 'कल ही जयपुर जाना है। सुनते ही अचानक उसे काठ मार गया। अपने उभरे हुए पेट पर हाथ फेरते हुए बोली, 'जयपुर जाओगे....? और इसका क्या? तुम नहीं जा सकते। जयपुर बहुत दूर है। माना कि तुम्हारा वेतन मुझसे कम है, पर घर तो आराम से चल रहा है न...। मधुप चुप हो गए। वह भी चुप हो गई। उसे आदमकद शीशे में फिर से दरारें नज्ार आने लगीं। वैसे भी उस पर कट ग्लास के बेलबूटे हैं। मधुप बोले, 'सोचने के लिए वक्त है, पर मेरे करियर का सवाल है। समझौता नहीं कर सकता। समय रहते तुम्हें भी वहीं बुला लूंगा। नौकरी छोड देना। वहीं कहीं कुछ देख लेंगे। वह उदास हो गई। एक रेखा और बन गई उसकेचेहरे पर।

....धीरे-धीरे पेट बडा होता गया। उसका चेहरा फूल गया। लडकी से औरत की सीढी पर चढऩे लगी वह। उसका वश नहीं चला था। सामने मधुप के बाबू जी थे। उनके साथ पूरा घर था और वह अकेली खडी थी। उसने अपना बडा-सा सवाल रखा था बाबू जी के सामने, 'क्या फर्क पडता है अगर मैं सरकारी नौकरी में हूं और ये प्राइवेट में। आजकल तो लोग प्राइवेट को ज्य़ादा प्राथमिकता देते हैं। बाबू जी ने उसे घूर कर देखा, 'फर्क पडता है। बहू बडे पद पर और पति छोटे पद पर....। लोग क्या कहेंगे! जोरू के पैसों पर कौन मर्द जीवन-यापन करना चाहेगा? कम से कम मेरा बेटा तो हरगिज्ा नहीं...! तुम्हें उसके साथ रहना है तो तुम नौकरी छोड सकती हो। पता नहीं, उसमें कहां से इतनी ताकत आ गई। दृढता से बोली, 'हरगिज्ा नहीं बाबू जी!

'तो हम तुम्हारे साथ चल रहे हैं। वहीं रहेंगे। लेकिन मधुप को नहीं रोक सकते, उसके भविष्य का सवाल है। वह निरुत्तर हो गई।

अंतत: मधुप जयपुर चले गए और वह मधुप के मां-बाबू जी के साथ अपने घर। बूढे माता-पिता और गर्भावस्था की अपनी समस्याओं से अकेले ही जूझती रही। यही उसकी नियति बन गई। अब कभी फुर्सत मिलने पर शीशे के सामने खडी होती तो उसे अपना शरीर भद्दा-मोटा और बेडौल सा नज्ार आता है। अब शीशे में संदीप की मुस्कान नहीं दिखती, चेहरे दिखते हैं मधुप और मां-बाबूजी के। वह जैसे कोई पशु हो, जिसके गले पर रस्सी का फंदा है, जिसके एक छोर को पकडे खडे हैं मां-बाबूजी। पीछे से संदीप के खिलखिलाने की आवाज्ा सुनाई देती है। उसकी खिलखिलाहट में व्यंग्य का पुट होता है।

नौ महीने के शरीर को आख्िारी बार उसने शीशे में देखा और फिर हॉस्पिटल आ गई। मधुप भी आ गए थे जयपुर से। उनकेे सूटकेस में साडिय़ां थीं महंगी। मां-बाबू जी के लिए कपडे थे और आने वाले बच्चे के लिए कुछ खिलौने और कपडे। उसने न चाहते हुए भी पूछा लिया, 'अभी रहोगे न एकाध महीने? हमेशा की तरह उनके चेहरे पर ख्ाुशी नहीं दिखी। तनावग्रस्त माथे पर बल पड गए, 'नहीं, बस एक हफ्ते की छुट्टी मिली है! यह सुनते ही उसने बिस्तर पर करवट बदली। कैसा निर्मोही और स्वार्थी बाप है इस बच्चे का। पेट पर हाथ फेरते हुए उसने धीरे से कहा, 'बेटा, अपने बाप पर मत जाना। उसके बाद उसके आंसू निकल पडे। उसने तकिये को छूकर देखा तो वह भीग चुका था। ऐसा महसूस हो रहा था मानो पांच घोडे खींचे लिए जा रहे हैं कहीं अनंत में...। उसके हाथ बंधे हैं और वह न चाहते हुए भी घिसटती चली जा रही है। इन घोडों में उसके माता-पिता, मधुप के मां-बाबू जी और मधुप हैं। साथ में एक बच्चा है। पता नहीं बच्चा भी कितनी दूर तक खींचेगा उसे। थोडी ही देर में वह लेबर रूम पहुंच गई...।

बच्चे के दुनिया में आने के चार-पांच दिन बाद मधुप वापस चले गए थे। वह घर लौट आई थी। बेडरूम में कदम रखा तो बासी हवा का एक झोंका महसूस हुआ। उसके अस्पताल जाने केे बाद से बंद था कमरा। वह शीशे के आगे खडी थी। गोद में नवजात था। शीशे पर गर्द-गुबार की परतें छा गई थीं। उसने बच्चे के साथ शीशे में ख्ाुद को निहारा तो लगा मानो वह महज्ा परछाई है। ख्ाुद से ही दूर होती जा रही है उसकी परछाई। चिल्ला पडी वह, 'संतो! संतो दौडती-भागती आई। 'क्या बात है बीबीजी? 'देखो, ज्ारा शीशे पर कितनी धूल जमी है? 'बीबी जी, आपके जाते ही बाबू जी ने कमरा बंद करवा दिया था। मुझे उसमें न घुसने की हिदायत थी। अचानक उसे महसूस हुआ शीशे के भीतर से घोडे हिनहिना रहे हैं।

अब मां-बाबू जी के साथ नवजात शिशु की ज्िाम्मेदारियां भी उसके कंधे पर आ गईं। मां-बाबूजी की बढती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण वह व्यस्त हो गई थी। किसी काम में कोर-कसर रह जाए तो बाबू जी चीखने लगते थे। उधर सासू मां को बात-बेबात ताने-उलाहने देने की आदत थी। इधर बच्चा रोता तो उधर बाबू जी की दहाड और मां की चीख-पुकार। कभी बाबू जी को अस्पताल ले जाना तो कभी मां को। मधुप से कुछ भी कहने का कोई फायदा नहीं था। बाबूजी के अहं की वजह से मधुप पांच सौ किलोमीटर की दूरी पर थे और ऐसे थे जैसे चिकना घडा, जिस पर पानी की एक बूंद भी न ठहरती थी। कभी ज्िाम्मेदारियों के बारे में बताने का मन होता तो सीधा सा जवाब मिलता, 'मैं मजबूर हूं। रोज्ा तो घर आ नहीं सकता। तुम्हीं को संभालना होगा सब-कुछ। कभी घर आते भी तो मानो बडा एहसान कर रहे हों, एक-दो दिन में ही वापस चले जाते। ख्ााली क्षणों में शीशे के सामने खडी होती तो संदीप की धुंधली सी छवि दिखती। पता नहीं कहां था वह। पर बचपन की वे यादें उसे थोडा हौसला देतीं। खेल-खेल में वह अकसर बोलता था, 'बढे चलो बहादुरों! 'बहादुर शब्द उसके कानों में गूंजने लगता। वह कितनी बहादुर है कि चुपचाप सब सहन कर रही है। ऐसा लगता था कि मधुप की पत्नी नहीं, आया है, जिसे विधिवत मंत्रोच्चार और सात फेरों के बाद नौकरी पर रखा गया है। घर-गृहस्थी और नौकरी के बीच इस तरह पिस रही थी कि अपने बारे में सोचने का भी वक्त नहीं था उसके पास। सोचती, इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं पति-पत्नी के संबंध। मधुप जब भी घर आते, त्याग की कहानियां सुना कर उसे चुप करा देते। कहते, बुज्ाुर्गों की सेवा करने से आशीर्वाद मिलता है। उस समय उसके मन में बहुत से जवाब आते, मगर वह चुप ही रहती।

समय की गति तेज्ा होती है। हर पडाव पर निशान छोडता चलता है वक्त। वही निशान उसके चेहरे पर उभरे हैं। समय से पहले गहरे पड गए हैं, जिन्हें वह बाहरी आवरण से ढके रहती है। बाबू जी अस्पताल में भर्ती हैं। डॉक्टरों ने कह दिया है औपचारिकता है, पूरी कर लें। मधुप खडे हैं। मां, बाबू जी के सिरहाने रो रही हैं। बाबू जी इशारे से उसे बुलाते हैं। फिर उसके सिर पर हाथ रखते हुए फुसफुसाते हैं, 'बेटा, मुझे माफ करना। मैं पाप का भागीदार हूं। अपने अहं के कारण मैंने तुम दोनों को दूर कर दिया। काश, मैं समझ पाता कि तुम्हारी मज्र्ाी क्या है। उनकी आंखें डबडबाने लगीं। उसे लगा, बाबू जी के सिर पर घोडे का एक और सिर उग आया है। सातवें घोडे का सिर! वह नया घोडा भी उसे घसीटने के लिए तैयार है।

हेमंत कुमार पारीक


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