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दस्तक

भरा-पूरा परिवार था कौशिक दंपती का, छोटी-छोटी ख़्ाुशियों में मगन। अचानक एक दिन कहर टूटा, जब उन्होंने बेटी को दुर्घटना में खो दिया। मगर फिर अतीत की एक याद ने ज़्िांदगी में नई उम्मीद जगा दी...।

By Edited By: Published: Thu, 31 Mar 2016 03:11 PM (IST)Updated: Thu, 31 Mar 2016 03:11 PM (IST)
दस्तक

चंद्रा जी दोपहर में घर में अकेली रहती थीं। घर में काम करने वाली बाई साढे ग्यारह बजे तक झाडू-पोंछा व बर्तन करने चली जाती थी। सुबह सबसे पहले जाने वालों में होता था बडा बेटा नवीन, जो एम.डी. कर चुका था और अब एक प्राइवेट हॉस्पिटल में िफज्िाशियन था। उसके बाद छोटा बेटा अरमान घर से निकलता था, जो एम.बी.ए. कर रहा था। सबसे अंत में चंद्रा जी के पति योगेश निकलते थे कोर्ट जाने के लिए। वे शहर के जाने-माने वकील थे। साल भर में वे चार-पांच केस ही लेते थे। उनका एक ही मकसद था, अपराधी को सज्ाा दिलवाना और निर्दोष को बचाना। कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति उन पर अपना केस लेने के लिए दबाव नहीं डाल सकता था।

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पूरे छह फीट हाइट वाले योगेश कौशिक का व्यक्तित्व शानदार था। अब तो वे उम्र के उस दौर में थे, जहां से आगे बस ढलान होता है, पर 54-55 वर्ष की आयु में भी उनके व्यक्तित्व का आकर्षण बरकरार था। उनके इसी आकर्षक व्यक्तित्व ने तो कई साल पहले चंद्रा जी को बांध लिया था। खिंचती चली गई थीं उनकी ओर और फिर उनकी विवाह न करने वाली प्रतिज्ञा भी टूट गई थी।

बडे-बडे लोगों में उठना-बैठना था योगेश जी का, जिनमें हर वर्ग के लोग थे। उद्योगपति, विधायक, पुलिस अधिकारी, डॉक्टर्स, प्रोफेसर्स और मीडिया से जुडे लोग, मगर फिर भी किसी से अंतरंगता नहीं थी। लोगों को सदैव एक दूरी पर रखना उनकी आदत में शुमार था। हाई सोसाइटी का हिस्सा होते हुए भी वे उसका अंग नहीं थे। सामान्य जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। चंद्रा जी को भी भव्य पार्टियों में जाने से परहेज्ा था। बच्चों को अच्छे संस्कार दिए थे पति-पत्नी ने।

चंद्रा जी बहुत अच्छी तरह घर संभालती थीं। पति और बच्चों का ख्ायाल रखती थीं। बच्चे भी पेरेंट्स पर जान छिडकते थे। लगता था, सब कुछ ठीक है, आनंद-मंगल है, पर एक दु:खद घटना इस परिवार को ता-उम्र के लिए ऐसा दर्द दे गई, जिससे उबर पाना हर सदस्य के लिए मुश्किल था।

कौशिक परिवार की तीसरी संतान उनकी 19 वर्षीय पुत्री दीक्षा थी। कहते हैं, बेटी की आभा से न केवल घर में रौनक होती है बल्कि वह अपने साथ घर-परिवार के लिए सौभाग्य भी लेकर आती है। वह अपनी हंसी से घर के माहौल को ज्िांदादिली से भर देती है। दीक्षा पूरे परिवार की लाडली थी। चंद्रा जी और योगेश जी तो बेटी पर जान छिडकते ही थे, दोनों भाइयों की भी वह आंखों का तारा थी। ज्ारा भी उदास होती तो भाई परेशान हो जाते। वह किसी चीज्ा की ख्वाहिश रखती तो भाइयों में उसे पूरा करने की होड सी लग जाती। भाई-बहन में नोक-झोंक भी ख्ाूब चलती। भाई जब उसे तंग करते या किसी बात को लेकर खिजाते तो वह रूठ जाती और फिर मुंह फुला कर एक कोने में बैठ जाती। इसके बाद नवीन और अरमान अपनी रूठी बहन दीक्षा को मनाने लगते। आख्िार काफी मिन्नतों के बाद वह मान जाती और फिर तीनों मिलकर मस्ती करते। प्राय: योगेश जी के सामने बच्चे कम बोलते थे, पर जब धमाचौकडी मचती तो वे भी बच्चों में शामिल होकर बच्चा बन जाते। वे हमेशा बेटी के पक्ष में बोलते थे, जबकि चंद्रा जी बेटों की तरफ हो जातीं। कोर्ट से आते ही योगेश जी सबसे पहले दीक्षा को आवाज्ा देते। उन्हें दीक्षा के हाथ की बनी हुई चाय पसंद थी।

चंद्रा जी का मानना था कि बेटी एक ऐसे मधुर गीत की तरह होती है जो कानों में तो रस घोलता ही है, मन और आत्मा को भी विभोर कर देता है। उन्होंने तो कभी कामना ही नहीं की थी कि उनके बेटे हों। दो बेटे नवीन और अरमान हुए तो अगली बार उन्होंने बेटी के लिए कामना की और इस बार ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली। उनके यहां एक सुंदर सी बिटिया ने जन्म लिया। लडकियां बहुत जल्दी बढती हैं। स्कर्ट और फ्रॉक में घर में फुदकने और रस्सी कूदने वाली छोटी सी दीक्षा कब युवावस्था में पहुंच गई, पता ही नहीं चला। यूं तो चंद्रा जी भी युवावस्था में बेहद सुंदर थी, पर दीक्षा तो बेमिसाल थी। जहां जाती, लोग देखते रह जाते। कॉलेज के फस्र्ट ईयर में ही थी, जब उसे कॉलेज क्वीन के खिताब से नवाजा गया था। कई लोगों ने चंद्रा जी को सलाह दी थी कि दीक्षा को मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में भेजें, मगर न तो चंद्रा जी ऐसा चाहती थीं और न ही घर का कोई और सदस्य, स्वयं दीक्षा भी नहीं।

.....कौशिक परिवार के लिए वह एक दुर्भाग्यशाली दिन था। दीक्षा कॉलेज से स्कूटी पर घर आते समय ट्रैक्टर की चपेट में आई और घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। किसी ने दीक्षा को पहचाना तो घर पर सूचना दी गई। कौशिक परिवार में हाहाकार मच गया। घर का हर सदस्य और पडोसी फूट-फूट कर रो रहे थे। चंद्रा जी तो रोते-रोते गश खाकर गिर पडीं। योगेश जी चाहते थे कि ट्रैक्टर चलाने वाले को कडी सज्ाा दिलवाएं लेकिन बाद में चंद्रा जी ने यह कह कर रोक दिया कि उसे सज्ाा दिलाने से अब उनकी बेटी तो लौट कर नहीं आ जाएगी।

घर का ख्ाुशनुभा माहौल मातम में बदल गया। दीक्षा की खिलखिलाती हंसी, उसका चुलबुलापन और बातूनी स्वभाव, सब उसके साथ चले गए। घर की रौनक ही मानो चली गई। रह गई सिर्फ ख्ाामोशी और नि:शब्दता। दो-तीन महीने गुज्ारने के बाद ही कौशिक परिवार सामान्य स्थिति में आ पाया। ज्िांदगी रुकती नहीं, मगर कुछ देर को ठहर सी जाती है, उसकी गति धीमी हो जाती है। बहरहाल एक बार फिर घर में सब सामान्य होने लगा और सभी दीक्षा के बिना जीने की आदत डालने लगे, फिर भी वक्त अपने निशान ज्ारूर छोडता है।

चंद्रा जी अकेली होतीं तो अपनी अलमारी से पुराना पर्स निकालतीं और एक तसवीर देखतीं, पोस्टकार्ड साइज्ा की फोटो। इसमें एक नन्ही सी बच्ची उनकी गोद में दिखाई देती। आज फिर कई दिनों बाद उन्होंने वह फोटो निकाली। देर तक उसे देखती रहीं और फिर रो पडीं यह कहते हुए कि मेरी बच्ची कहां होगी अब? कितनी बडी हो गई होगी? पिछले 25 वर्षों में कोई दिन ऐसा नहीं गया, जब उसे याद न किया हो। ईज्ाी चेयर पर बैठ कर आंखें मूंदें वह अतीत में खो गईं।

....उस वक्त उनकी उम्र रही होगी लगभग 20 वर्ष। बारहवीं के बाद कुछ अलग हटकर करने की उनकी चाह उन्हें कैनेडा ले गई, जहां के विख्यात कॉलेज में उन्हें एडमिशन मिला। उनका विषय था- एस्ट्रोनॉमी। पापा का अच्छा व्यवसाय था ज्यूलरी का। पैसे की कमी नहीं थी। कैनेडा के उस शहर में पापा के दोस्त श्रीधर शर्मा भी रहते थे जो बडे चाय व्यवसायी थे। श्रीधर अंकल व उनकी पत्नी अलका ने उन्हें बडे प्यार व स्नेह से अपने यहां रखा। वह तो यही चाहते थे कि चंद्रा उन्हीं के घर पर रह कर पढाई करें, मगर उन्होंने कॉलेज के पास ही अपनी ऑस्ट्रेलियन दोस्त और क्लासमेट रोशेल के साथ रूम शेयर कर लिया। रोशेल एक ज्िांदादिल और हंसमुख लडकी थी। अच्छी बात यह थी कि वह शाकाहारी थी। उनकी लैंडलेडी श्रीमती माग्र्रेट जिप्स सिंगल लेडी थीं और बडे से बंगले में अकेली रहती थीं। उनका एक बेटा रोनाल्ड था, जो सेना में था और यदा-कदा मां से मिलने आ जाया करता था। अपने एकांत को दूर करने के लिए ही उन्होंने बंगले के एक हिस्से को रेंट पर दे दिया था। अब रोशेल और चंद्रा जी साथ रह रही थीं।

मिसेज्ा माग्र्रेट बहुत अच्छे स्वभाव की थीं, शालीन और केयरिंग। रोशेल और चंद्रा जी को मां की तरह स्नेह देती थीं। विदेश की धरती पर कोई मां समान प्यार देने वाला मिल जाए तो कहना ही क्या! उन्हीं दिनों रोशेल और चार्ली जोंस के बीच प्यार पनप गया। चार्ली भी उसी कॉलेज में था, जहां चंद्रा जी ओर रोशेल थीं, पर वह किसी दूसरे सब्जेक्ट में पी.जी. कर रहा था। चार्ली साउथ अफ्रीका का था। रोशेल उसे दिलोजान से चाहने लगी। प्यार, जांत-पांत, ऊंच-नीच और देश की सीमाओं से परे होता है। दोनों प्यार की दुनिया में खो गए। प्यार के इस बहाव में उन्हें पता भी नहीं चला कि कब रोशेल पूरी तरह चार्ली के प्रति समर्पित हो गई। चार्ली ने शादी के लिए प्रपोज्ा किया तो रोशेल के लिए न कहने का कोई प्रश्न ही नहीं था।

तभी एक अनहोनी हो गई। एक रात गैंगस्टर्स केदो गिरोहों के बीच गोलियां चल रही थीं। उसी समय चार्ली मोटरसाइकिल से गुज्ारा और एक गोली उसके सीने में लग गई। उसकी वहीं मौत हो गई। रोशेल को यह पता चला तो वह मानो पागल ही हो गई। चंद्रा जी ने उसे संभाला और समझाया कि ज्िांदगी यूं ही ख्ात्म नहीं हो जाती। उसे अपने और चार्ली के बच्चे के लिए जीना होगा, जो अभी उसके गर्भ में पल रहा था। श्रीमती माग्र्रेट ने भी उसे बहुत सांत्वना दी।

समय पूरा होने पर रोशेल ने एक सुंदर सी बच्ची को जन्म दिया। दुर्भाग्य ऐसा कि बच्ची को जन्म देते ही मां को गंभीर संक्रमण हो गया। अपने प्रति लापरवाह हो चुकी रोशेल ने डॉक्टर को दिखाने में भी देरी कर दी, बदले में ज्िांदगी ही उससे ज्ाुदा हो गई। चंद्रा जी ने नन्ही सी जान को अपने सीने से लगा लिया।

अब तो चंद्रा जी ही बच्ची की मां बन गईं। उसे संभालने के लिए एक हेल्पर रखी, ताकि वह यूनिवर्सिटी जाएं तो बच्ची की देखभाल हो सके। मिसेज्ा माग्र्रेट को भी मानो जीने का मकसद मिल गया हो। वह इस तरह से उसकी केयर करती, जैसे उसकी दादी हों। बच्ची के बारे में चंद्रा जी ने अपने घर वालों को कुछ नहीं बताया था। आख्िार एक दिन आया, जब पढाई पूरी हुई और कैनेडा छोडऩे का वक्त आ गया। ढाई साल की नन्ही शालीन को मिसेज्ा मार्गेट के पास छोड कर वह भारत लौट आईं। पहले उन्होंने सोचा था कि बच्ची को चाइल्ड केयर सेंटर को सौंप देंगी लेकिन बच्ची को ख्ाुद से अलग करने का ख्ायाल ही उन्हें बोझिल कर देता था। उन्हें लगता था कि भारत लौटने के बाद भी वह उसके बिना जी नहीं सकेेंगी। शुरू में तो फोन और ख्ातों के ज्ारिये वह मिसेज्ा माग्र्रेट के संपर्क में रहीं, मगर वक्त के साथ-साथ यह रफ्तार धीमी पड गई। फिर एक दिन नन्ही बच्ची की फोटोज्ा के सिवा उनके पास कुछ न रहा।

उन्होंने शादी न करने का निर्णय लिया था लेकिन एक केस के सिलसिले में जब वे वकील योगेश कौशिक से मिलीं तो उनके व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुईं और योगेश भी उनकी सहज मुस्कान के मुरीद हो गए। फिर यह सिलसिला इतना आगे बढा कि उनके विवाह पर आकर ही थमा। घर वाले भी योगेश जैसे दामाद को पाकर निहाल हो गए। योगेश हर तरह से चंद्रा जी को प्रसन्न रखने का प्रयास करते थे। सुखद वैवाहिक जीवन, हर प्रकार की सुख-सुविधा और पति का अतुलनीय प्यार होते हुए भी चंद्रा जी के मन का कोई कोना सूना था। वह उस बेटी के बारे में सोचती रहतीं, जिसे उन्होंने अपनी कोख से जन्म तो नहीं दिया लेकिन जो उनकी दोस्त की कोख से जन्मी थी और जिसे वह सात समंदर पार एक विदेशी महिला को सिर्फ भरोसे के बल पर ही सौंप आई थीं। समय आगे ही बढता रहता है। शालीन की यादें ज्ारूर धुंधली पड गईं पर उसे भुला पाना उनके लिए संभव नहीं था। उनके तीन बच्चे हुए और उनके पालन-पोषण में वह व्यस्त हो गईं। बेटी दीक्षा में शालीन की छवि तलाशतीं। दीक्षा की मौत के बाद तो अकसर ही शालीन की तसवीर देखती रहतीं और सोचतीं कि शालीन कहां और किस हाल में होगी।

एक दिन बैठी फोटोज्ा देख रही थीं कि पीछे से आहट हुई। पति को देख वह हडबडा गईं। मुंह से निकला, 'अरे! आज आप कोर्ट से जल्दी आ गए?

'हां, आज एक सीनियर की मृत्यु हो गई है, इसलिए कोर्ट में छुट्टी हो गई है। उन्होंने चंद्रा जी के हाथ से अलबम उठा लिया। उनकी नज्ार बच्ची पर पडी, 'कौन है यह? बडी प्यारी बच्ची है...? चंद्रा जी को लगा, अब वह समय आ चुका है, जब उन्हें पति को सब कुछ बता देना चाहिए। आख्िार कब तक एक दर्द को सीने में छुपाए रहेंगी। उन्होंने दोस्त रोशेल और चार्ली के प्रेम प्रसंग, बच्ची के जन्म और रोशेल-चार्ली की मौत के बारे में सब कुछ बता दिया। यह सब बता कर वह रोने लगीं। बोलीं, 'भगवान ने हमें एक बेटी दी थी। कितना अच्छा होता, अगर शालीन हमारे पास होती! दीक्षा की कमी शायद भर पाती...। योगेश बोल पडे, 'तुम उसे अपने साथ भारत क्यों नहीं लाईं? आंसू पोंछते हुए वह बोलीं, 'कैसी बातें करते हैं आप? बच्ची को लाती तो लोग उल्टी-सीधी बातें न बनाते? क्या किसी को भी मेरी कहानी पर विश्वास होता? कैसे समझाती उन्हें कि यह मेरी दोस्त की पुत्री है। कौन यकीन करता?

योगेश जी ने कहा, 'हां, यह बात तो ठीक है। चंद्रा तुम िफक्र न करो, हम मिल कर उसके बारे में पता करते हैं। कहीं न कहीं उसका पता मिल ही जाएगा। अच्छा इस बच्ची का भारतीय नाम किसने रखा था?

'नाम तो मैंने ही रखा था। जन्म देने के कुछ घंटों बाद ही रोशेल ने उसे सौंप दिया था।

पति का स्नेहपूर्ण स्पर्श चंद्रा जी ने अपने कंधे पर महसूस किया। पति भावुक होकर बोले, 'भले ही दीक्षा नहीं रही, लेकिन मुझे ख्ाुशी है कि हमारी एक बेटी तो दुनिया में है। मैं आज ही कैनेडा में रहने वाले दोस्तों को फोन करके उसका पता लगाने को कहता हूं।

फिर शुरू हुई परिचितों व दोस्तों के माध्यम से शालीन की खोज। आज संचार क्रांति के युग में किसी व्यक्ति को ढूंढ निकालना इतना कठिन नहीं, जितना पहले था। योगेश जी के एक मित्र प्रणय राव ने जो कैनेडा में ही थे, शालीन को खोज निकाला। उनके माध्यम से योगेश जी ने शालीन को संदेश भेजा, 'बेटी हमसे शीघ्र संपर्क करो।

शालीन एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी। मेसेज पाकर ख्ाुशी से उछल गई और चिल्लाने लगी। उसकी चीख सुन कर पूरा स्टाफ उसके इर्द-गिर्द जमा हो गया। वह चिल्लाते हुए बोली, 'मुझे मेरे मॉम-डैड मिल ही गए। भले ही वे मेरे बायोलॉजिकल पेरेंट्स नहीं हैं, लेकिन वे मेरे लिए सब कुछ हैं...। भावातिरेक में वह रोने लगी थी।

फिर वह दिन भी आया, जब चंद्रा जी के पास मेल आया, 'मैं शालीन, आपकी बेटी... माग्र्रेट (ग्रैंड मॉम) ने मरने से पहले मुझे सब कुछ बताया था। मैं छोटी ही थी, जब वह मुझे छोड कर चली गईं। मुझे यकीन था कि एक दिन मैं इंडिया में रहने वाले अपने लोगों से ज्ारूर मिलूंगी। इसीलिए मैंने हिंदी सीखी। ऊपर वाले ने मेरी सुन ली...। अब मैं जल्दी ही आपसे मिलना चाहती हूं।

चंद्रा जी ने मेसेज पढा तो ख्ाुशी से झूम उठीं। सभी को लगा, शालीन के रूप में एक बार फिर दीक्षा परिवार में आ रही है। कौशिक परिवार में नई ख्ाुशियां दस्तक दे रही थीं। ग्ाम का कोहरा छंटता जा रहा था...। द्य

अरनी रॉबट्र्स


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