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अपराजिता

कठिनाइयां तो हर एक के जीवन में आती हैं, मगर जो इन्हें पार कर लक्ष्य हासिल कर ले, वही सही अर्थ में अपराजिता है। यही संदेश देती है कहानी।

By Edited By: Published: Fri, 27 May 2016 04:38 PM (IST)Updated: Fri, 27 May 2016 04:38 PM (IST)
अपराजिता

आज शोभना की ट्रेनिंग का आख्िारी दिन था, परसों उसे नौकरी पर जाना था। अति उत्साह में अपनी बैचमेट्स को बता रही थी, 'मैं घर पहुंचकर सबसे पहले काशी विश्वनाथ जी के दर्शन करूंगी....। तभी सीमा ने याद दिलाया कि आज तो हम सबको मुरादाबाद की सैर करनी है और घरवालों के लिए तोहफे भी खरीदने हैं, ताकि मुरादाबाद के दुकानदार भी जान लें कि कितने सारे पुलिस वाले एक साथ उनकी दुकान पर मोल-भाव करने आ गए। इतना कहना था कि सारी सहेलियों के ठहाके छूट पडे और सब मस्ती से शॉपिंग के लिए निकल पडीं।

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दो महीने का साथ...और अब विदाई की बेला आ गई थी। सभी ने एक-दूसरे को अश्रुपूरित नेत्रों और बोझिल मन से विदा दी और अपनी-अपनी मंज्िाल की ओर चल दिए। ट्रेन पर बैठते ही शोभना की आंखें बहने लगीं। इतने दिनों की दोस्ती के बाद यह अकेलापन खल रहा था। हालांकि घर जाने की ख्ाुशी भी थी। इतने दिन बाद पति और चार साल की बेटी विभा से मिलने जो जा रही थी। उसका हृदय इस समय कई तरह की भावनाओं में डूब-उतर रहा था। बीते दिनों की सारी यादें एक-एक कर उसके दिमाग्ा में घूम रही थीं। उसने किसी तरह ख्ाुद को संयत किया। उसके कंपार्टमेंट में उसके अलावा एक और परिवार भी था। उनका छोटा सा बेटा शोभना की बेटी का हमउम्र रहा होगा। उसे देखकर बेटी याद आने लगी। पूरे ढाई महीने बाद वह केशव और बेटी से मिलेगी, यह सोच-सोच कर उसका मन बल्लियों उछलने लगा। उसने धीरे से आंखें बंद की और पीठ को सीट से टिका लिया।

आंखें बंद थीं पर मन की आंखों से उसने अपने अतीत के पन्नों को पढना शुरू किया। शोभना छह भाई-बहनों में माता-पिता की सबसे बडी संतान थी। पिता बैंक में मैनेजर थे, उसकी मां अपने मायके में रही थीं। इसके दो कारण थे, पहला यह कि मां नानी की इकलौती संतान थीं और नानी की देखभाल करने के लिए कोई दूसरा न था, दूसरा कारण यह था कि पिताजी का तबादला यहां-वहां होता रहता था तो बच्चों की पढाई एक स्थान पर ठीक से हो सके, इसके लिए उन्होंने नानी के घर पर ही रहना उचित समझा। शोभना बडी थी, नानी की दुलारी भी। उसे गुड्डे-गुडिया के खेल बडे पसंद थे। नानी का घर शहर के बीचों बीच था, जहां अगल-बगल मिठाइयों, समोसों एवं खिलौनों की दुकानें थी। जब भी शोभना एवं उसके भाई-बहनों का मन करता, नानी कचौडी, जलेबी, समोसों एवं मिठाइयों का इंतज्ााम करवा देतीं। एक तो नानी का लाड-दुलार, ऊपर से मां का प्यार...। घर में हेल्पर्स की कमी नहीं थी, लिहाज्ाा गृहस्थी के काम उसने सीखे ही नहीं। बचपन बडी बेिफक्री एवं मस्ती से बीता, जहां पढाई के अलावा सिर्फ गुड्डे-गुडियों की दुनिया थी। वैसे पिता का अनुशासन सख्त था। जब भी वह घर पर होते, सारे बच्चे किताबों में सिर घुसाए रहते।

....शोभना बारहवीं की छात्रा थी, तभी एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि वह जैसे ही खेल से घर लौटी, मां ने कहा, जाओ जल्दी से हाथ-मुंह धोकर अच्छे कपडे पहन लो, कुछ मेहमान आ रहे हैं। मेहमान आए और उनकी ख्ाूब ख्ाातिरदारी हुई। जब वे चले गए, तब शोभना को समझ आया कि उसकी शादी तय हो गई है। उसका कोमल हृदय असमंजस में था, समझ नहीं पा रही थी कि सबको ख्ाुश देख कर हंसे या रोए। धूमधाम से शादी हुई, उसके छोटे भाई-बहन भी ख्ाूब उत्साहित थे। शोभना विदा होकर ससुराल आ गई।

ससुराल में सभी सुख-सुविधाएं थीं। ससुर पुलिस अधिकारी पद से रिटायर हो चुके थे। सास भी उच्च शिक्षा प्राप्त थीं। पति केशव के दोनों भाई दूसरे शहरों में थे। सबकी शादी हो चुकी थी और शोभना घर की सबसे छोटी बहू थी। चूंकि ससुर जी चाहते थे कि छोटा बेटा साथ ही रहे, इसलिए रिटायरमेंट के बाद उन्होंने बेटे के साथ मिल कर बिज्ानेस शुरू कर दिया था। ससुराल में सबको उच्च-शिक्षित देखकर शोभना को कई बार हीनता-बोध भी होता। उसने पहले ही दिन पति से आगे पढाई जारी रखने को कहा तो उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी। फिर तो शोभना के सपनों को मानो नए पंख मिल गए। उसने पूरी लगन से पढाई जारी रखी लेकिन शायद उसके कई इम्तिहान अभी बचे हुए थे।

एक बडे हादसे ने परिवार की कमर तोड दी। एक भीषण कार हादसे में उसके सास-ससुर की मौत हो गई। पति केशव के साथ-साथ पूरे परिवार पर मानो वज्रपात हो गया। थोडे दिन तक तो पूरा परिवार एक-दूसरे को ढाढस बंधाता रहा लेकिन जीवन चक्र तो अविरल चलता रहता है। कुछ ही दिन में दोनों बडे भाई अपने-अपने काम पर लौट गए। अचानक पिता के न रहने से केशव का आत्मविश्वास डिग सा गया था। संभल पाता, तभी पता चला कि पापा ने बैंक से 50 लाख रुपये लोन पर लिए थे, जिसकी किस्त हर महीने जमा होती थी। यह सुन कर तो केशव मानसिक रूप से बिखर गया। शोभना ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की मगर वह संभल न सका। नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे बिज्ानेस ही डूब गया। भाइयों ने भी कठिन स्थिति में हाथ खडे कर दिए। बीच-बीच में शोभना के मां-पापा आकर उसकी आर्थिक सहायता कर देते लेकिन शोभना स्वाभिमानी थी और किसी से मदद लेना उसे गवारा न था। उसने खुद परिस्थितियों से लडने के लिए कमर कस ली और पढाई के साथ-साथ पार्टटाइम जॉब भी शुरू कर दी। शाम को वह मुहल्ले के बच्चों को घर में ही ट्यूशन देने लगी। फिर पति को विश्वास में लेकर बिानेस को बेच दिया और घर गिरवी रख कर बैंक का लोन भी चुकता कर दिया।

जब शोभना बीए तृतीय वर्ष की परीक्षा दे रही थी, तभी उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है। उसे खुशी तो बहुत थी लेकिन अचानक आने वाली परेशानियों से वह घबरा भी रही थी। संकट की इस घडी में उसे पति को अवसाद से बाहर निकालना था, सामान्य जीवन में उसे लौटाना था, साथ ही अपनी पढाई भी जारी रखनी थी। गर्भावस्था के नौ महीने काम करते हुए कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला।

समय पर उसने एक स्वस्थ-सुंदर बेटी को जन्म दिया। बेटी के जन्म पर पूरा परिवार इक_ा हुआ तो रिश्तों के धागे फिर से मज्ाबूती की ओर बढने लगे। इस बीच मां ने कई बार कोशिश की थी कि प्रेग्नेंसी के दौरान शोभना को अपने घर बुला लें, लेकिन शोभना पति को इस हालत में अकेले नहीं छोडना चाहती थी, साथ ही अपनी पढाई और ट्यूशंस की चिंता भी थी। बेटी को गोद में उठाते ही जैसे वह पूरा संघर्ष भूल गई। केशव भी पिता बनकर मानसिक रूप से ख्ाुश महसूस करने लगा था। शोभना नहीं चाहती थी कि कुछ धूमधाम हो, लेकिन परिवार ने बच्ची का नामकरण धूमधाम से किया। बच्ची के जन्म के कुछ समय बाद ही ग्रेजुएशन का रिाल्ट आया, जो चौंकाने वाला था। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी शोभना ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। उसे गोल्ड मेडल मिला, बहुत सी बधाइयां भी। पिता बनने के बाद केशव भी अपनी ज्िाम्मेदारी महसूस करने लगा था और उसने सेल्स का बिज्ानेस शुरू किया। शोभना ने तुरंत पोस्ट ग्रेजुएशन का फॉर्म भर दिया और हर जगह नौकरी के लिए आवेदन करने लगी, कई परीक्षाएं भी दीं। सुबह से शाम ट्यूशन, कॉलेज, घर के कामों और बच्ची की देखभाल में बीत जाता, रात में थोडा सा समय मिलता, तब वह टेबल लैंप जला कर पढने बैठती। वह अब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगी। उसके मन में एक ही साध थी कि बेटी को सुखद भविष्य दे सके। उसे यह भी पता था कि ज्िांदगी की राह में दुश्वारियां हैं मगर उसके हौसले भी कम नहीं हैं। उसे स्वयं पर यकीन था और यह विश्वास भी था कि वह मेहनत से कभी नहीं घबराएगी। शुरुआत में कई बार विफलता हाथ लगी लेकिन उसने प्रयास नहीं छोडे। वह जानती थी कि समय की कमी के कारण वह पढाई पूरे मन से नहीं कर पा रही थी, लेकिन वह हमेशा अपनी नानी की दी हुई एक सीख पर चलती रही। उसकी नानी कहा करती थीं कि कोशिशों से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि यही एक चीा है, जो अपने हाथ में है। इसी सोच के साथ उसने प्रतियोगी परीक्षाएं देने का सिलसिला जारी रखा। इस बार उसने बहुत अच्छी तैयारी की और परीक्षा के दो महीने पहले ही मां को बुलवा लिया ताकि बच्ची की देखरेख अच्छी तरह हो सके और वह पूरी तरह चिंता-मुक्त होकर इम्तिहान दे सके। केशव का बिज्ानेस चलने लगा था, लिहाज्ाा उसका भी काफी समय बाहर बीतता था लेकिन वह पहले की ही तरह हमेशा शोभना की हौसलाअफजाई करता था।

आख्िार परीक्षा के दो महीने पहले शोभना ने ट्यूशंस भी छोड दिए और सिर्फ पढाई पर ध्यान केंद्रित कर लिया। परिणाम आया तो सबकी आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं। शोभना पीसीएस परीक्षा में भी अव्वल आई थी। हर जगह उसकी ख्ाबरें प्रकाशित होने लगीं और वह लोगों के लिए एक मिसाल बन गई। सभी लोग बेहद ख्ाुश थे और बधाइयों के संदेश आते जा रहे थे लेकिन अभी तो जीवन-संघर्ष का एक ही चैप्टर पार हुआ था...। उसे नन्ही बच्ची को छोड कर 3-4 महीने की ट्रेनिंग के लिए जाना था।

उसकी बेटी विभा बहुत छोटी थी। जब उसे पता चला कि मां कुछ दिनों के लिए दूर जा रही है तो वह शोभना का पल्लू छोड ही नहीं रही थी। सबने शोभना को आश्वस्त किया कि बेटी की देखभाल अच्छी तरह करेंगे, तब वह ट्रेनिंग के लिए रवाना हो सकी। इसके बावाूद नन्ही सी बेटी को छोडते हुए उसे ऐसा महसूस हो रहा था मानो जिस्म का कोई हिस्सा अलग हो रहा है। किसी तरह ख्ाुद पर नियंत्रण रखा और अपनी ट्रेनिंग पूरी की। जीवन के लगभग हर इम्तिहान उसने अपने हौसलों के बलबूते पास कर लिए थे।

...अतीत में वह इस कदर डूबी थी कि ट्रेन की सीटी भी नहीं सुनाई दी। तंद्रा टूटी तो स्टेशन आ चुका था। उसने खिडकी से बाहर झांका। बाहर केशव के अलावा मां, पापा, जेठ-जिठानी और पडोसी तक उसके स्वागत में खडे थे। उसने एक बार फिर जीवन-संघर्ष में समस्याओं को पराजित कर ख्ाुद को अपराजिता साबित कर दिया था।

अरुणिमा दूबे


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