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स्नेह निमंत्रण

अपनी-अपनी जिंदगी में मसरूफ लोग जो सबसे बड़ी चीज मिस कर रहे हैं, वह है रिश्तों की मिठास और प्यारी सी नोक-झोंक।

By Edited By: Published: Sat, 02 Jul 2016 11:58 AM (IST)Updated: Sat, 02 Jul 2016 11:58 AM (IST)
स्नेह निमंत्रण
रमेश जी, हम संगम होटल से बोल रहे हैं। आपके सभी गेस्ट्स चेक आउट कर गए हैं, केवल एक बुजुर्ग महिला बची हैं, उन्हें रिसेप्शन पर बिठाया है, आप प्लीज आकर उन्हें ले जाएं....। बुजुर्ग महिला कहीं शकुंतला भाभी तो नहीं? सुरेखा शकुंतला भाभी कहां हैं? ढूंढो तो जरा...चिल्लाता हुआ रमेश सुरेखा के कमरे में गया तो वह फोन पर किसी सहेली से विवाह वर्णन करने में व्यस्त दिखी। 'हां-हां अच्छी तरह निपट गई शादी। हमने शहर के सबसे मशहूर इवेंट मैनेजर को हायर किया था, खर्च तो हुआ लेकिन इंतजाम बढिय़ा हो गया। मेहंदी और जयमाला की तैयारियां तो जैसे मिसाल ही बन गईं, जिसे देखो वही तारीफ कर रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे किसी सलेब्रिटी की शादी हो रही हो। घरातियों से लेकर बारातियों तक सारे इंतजाम इवेंट मैनेजर सुमेर ने ही किए। नाश्ता, लंच, डिनर, रात में सोने की व्यवस्था और यहां तक कि चलते समय लंच पैक अरेंजमेंट भी उसी ने किया...', रमेश के चिंतित हाव-भाव देख पल भर को ठहरी सुरेखा। अपनी सहेली को 'अभी फोन रखती हूं, फिर करूंगी...' कहती हुई रमेश से पूछने लगी, 'क्या हुआ?' 'सुरेखा तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि शकुंतला भाभी वहीं होटल में रह गई हैं...' सुरेखा आश्चर्य से बोली, 'क्या? सुबह विधि की विदाई के बाद एक-एक कर सारे मेहमानों ने जाना शुरू कर दिया था। इन सबके बीच मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि भाभी कहां हैं। चलो खैर, सब राजी-खुशी निपट गया। छोटी-छोटी बातों पर टेंशन लेने से क्या फायदा...।' सुरेखा की बात पर रमेश बिना प्रतिक्रिया जताए भाभी को लेने होटल निकल गया। वहां रिसेप्शन पर रुआंसी सी बैठी भाभी रमेश को देखते ही रो पडीं और हाथ में पकडी डिबिया दिखाती बोलीं, 'देख पायल लाई थी विधि के लिए, सोचा था मौका देख कर अपने ही हाथ से पहनाऊंगी, मगर वो तो विदा भी हो गई और मैं बेवकूफ सोती रह गई। मुझे किसी ने जगाया भी नहीं।' 'कोई बात नहीं भाभी, पगफेरे के लिए आएगी तो मैं खुद उसे पहना दूंगा। अभी तो आप घर चलो...। घर आकर रमेश ने भाभी की दी हुई डिबिया सुरेखा को थमाई तो वह उसे तौलती हुई बुदबुदाने लगी, 'बडी हलकी और पुराने डिजाइन की है...' उपेक्षा से उसने डिबिया को ड्रेसिंग टेबल की दराज में रख दिया। फिर उसने शकुंतला भाभी के लिए एक साडी और श्रीकांत दादा के लिए कुर्ते वाला थैला और दो मिठाई के डिब्बे लाकर भाभी के सामने रख दिए। इस पर भाभी नाराजगी से बोलीं, 'ये कौन सी रीति है सुरेखा। बेटी की शादी में भी कोई लेता है भला?' आत्ममुग्ध सी सुरेखा बोली, 'अरे भाभी, आजकल बेटा-बेटी सब बराबर हैं।'फिर रमेश की ओर मुखातिब होकर बोली, 'सुनो जी, श्रीकांत दादा चार दिन से अकेले घर संभाल रहे होंगे, ड्राइवर से कहकर भाभी को घर छुडवा दो।' भाभी कुछ सकुचाते हुए रमेश से बोलीं, 'सोच रही हूं, इतनी दूर आई हूं तो छोटी चौक वाले मंदिर के दर्शन कर लूं। बहुत इच्छा थी। अब बुढापे में इतनी दूर आना तो होता नहीं...,' सुरेखा तुरंत खीजते हुए बोली, 'अरे भाभी, इन दिनों मेला चल रहा है वहां, भीडभाड होगी। बेकार परेशान हो जाओगी... और हां रमेश अभी बकाया भी निपटाना है न! जितनी जल्दी बिल्स क्लियर कर लो, अच्छा होगा। शाम को कुछ देर के लिए विधि और दामाद जी भी आएंगे तो पगफेरे की तैयारी भी करनी होगी। सुमेर से तय कर लो, किसी फाइव स्टार होटल में डिनर अरेंज करवा लो। मैं भी अकेले क्या-क्या देखूं। सुरेखा भाभी को नजरअंदाज करती हुई वह हडबडी में बोली तो रमेश संकोच से गडी भाभी को देख कर सोच में पड गया। सोचने लगा, चार दिन पहले वह कितने मान-सम्मान और मनुहार से भाभी को लिवाने गया था। वह तो आने को तैयार भी नहीं थीं, रमेश ने बहुत इसरार किया तो बोलीं, 'बडे धर्म संकट में डाल दिया है तूने, घर के कामकाज छोड कर मुझे लिवाने चला आया, मना करते हुए भी मुझे संकोच हो रहा है। सच तो यह है कि अब इन्हें (श्रीकांत दादा को) घर पर छोड कर कहीं आती-जाती नहीं। समय-समय पर दवाएं देनी होती हैं, परहेजी खाना बनाना पडता है।' इस पर रमेश बोल पडा, 'कौन सा बडा दूर है घर भाभी, एक-दो घंटे का ही तो रास्ता है। दो-चार दिन अकेले रह लेंगे तो कुछ नहीं हो जाएगा। जब चाहोगी, घर छोड दूंगा। शादी के बहाने सबसे मिलना भी हो जाएगा।' रमेश की बात पर भाभी उत्साहित हो गईं, सोचने लगीं, सच ही तो कह रहा है देवर। वह मन ही मन सुरेखा की तैयारियों की कल्पना में डूब गईं। बोलीं, 'सच, कैसे निभा रही होगी वह अकेले इतना काम। पहले हम लोग मिल-जुल कर कितना कुछ निपटा लिया करते थे। हफ्तों पहले से मोहल्ले के लोग जुट जाते थे। कितनी मिठाइयां बनतीं, गीत गाते, चुनरिया रंगते...। अबकी न गई तो मन तो वहीं रह जाएगा। चलो चली चलती हूं।' श्रीकांत दादा ने भी प्रोत्साहित किया तो भाभी ने अपना सामान पैक किया और रमेश के साथ निकल पडीं। रमेश के पिताजी और श्रीकांत दादा के पिता चचेरे भाई थे जो एक समय में संयुक्त परिवार में साथ रहते थे। समय बीतते-बीतते संयुक्त परिवार बिखरने लगा, फिर सबने अलग घर बसा लिए। रमेश की मां की विशेष स्नेहपात्र थीं शकुंतला भाभी, जिनकी उपस्थिति हर छोटे-बडे कामकाज में अपरिहार्य थी। रमेश के माता-पिता दुनिया से कूच कर गए, तब से यह संपर्क टूटने लगा। शकुंतला भाभी के विदेश में बसे बेटे और रमेश ने रिश्तों को जोडे रखने में कोई खास रुचि न दिखाई। ....बुजुर्गों के घरों से गायब होने से अगली पीढी की मुश्किलें बढऩे लगी हैं। यह पीढी न तो परंपराएं छोड पा रही है, न उन्हें सही ढंग से निभा पा रही है। नाते-रिश्तेदार पीछे छूट जा रहे हैं, लेकिन आउटसोर्सिंग के कारण इनकी कमी भी नहीं खलती। फिर भी शादी-ब्याह के समय कई रीति-रिवाज निभाए जाते हैं। उन्हें तो कोई बुजुर्ग ही बता सकता है। पंडित जी ने जब कहा कि किसी बुजुर्ग को बुला लें ताकि कुल-खानदान की रस्में वह बता सके तो रमेश ने कहा कि बूढे लोग तो शारीरिक अक्षमता के कारण आ ही नहीं सकते। रमेश ने पंडित जी से कहा कि जैसा उचित समझें, कर लें, रस्मों का ऐसा कोई दबाव नहीं है। रमेश ने पंडित जी को तो समझा दिया लेकिन स्त्रियों के दिमाग में कहीं न कहीं यह बात घूमती रहती है, लिहाजा सुरेखा भी सोचती रही कि शादी तो अच्छी तरह पूरे विधि-विधान से होनी चाहिए। उसे सास-ससुर की याद हो आई। जिठानी के बच्चे तो उनके सामने ही ब्याह दिए गए लेकिन अब उनकी बेटी की शादी हो रही है तो वे दोनों नहीं रहे। सुरेखा ने अपनी जिठानी को फोन किया तो वह भी जल्दी आने में असमर्थता जाहिर करने लगीं। ऐसे में रमेश को शुकंतला भाभी याद आईं कि चाहे जैसे हो, उन्हें तो वह लेकर ही आएगा। रमेश को थोडा संकोच हो रहा था क्योंकि कई सालों से उनसे संपर्क ही नहीं था। सिर्फ निमंत्रण पत्र भेज देने से तो वह आएंगी नहीं, उन्हें खुद ही लिवाना होगा। यह सोच कर ही वह निमंत्रण देने चला गया। भाभी को देख कर सुरेखा भी निश्ंिचत हो गई कि अब उसे शादी के दौरान होने वाली रस्मों की फिक्र नहीं करनी होगी। उधर विधि को उसकी फ्रेंड्स के बीच में ताईजी का बैठना अखर रहा था। शकुंतला भाभी लडकियों के बीच में बैठी रहतीं, उन्हें वहां से उठाना मुश्किल हो जाता, वह खुद भी हंसी-ठिठोली करने लगतीं। विधि चिढ कर अपनी मां से बोली, 'मम्मी, प्लीज इन्हें कहीं और बिठाओ न। मेरी सारी प्राइवेसी ही खत्म हो गई है।' अंतत: तय हुआ कि भाभी को होटल में ठहरा दिया जाएगा। सुरेखा ने इसके लिए भाभी को तैयार किया, 'भाभी यहां की अफरातफरी में आपको आराम नहीं मिलता। आप होटल चली जाओ, वहां चैन से सो सकोगी और नींद भी पूरी होगी। वहां से सुबह-सुबह आपको ले आएंगे। भाभी पंडित जी के आते समय ही होटल से आतीं और फिर पंडित जी के जाते ही उन्हें भी होटल पहुंचा दिया जाता। विधि को थोडा चैन मिला और सुरेखा भी संतुष्ट थी कि उसकी इकलौती बेटी की शादी विधि-विधान से हो पा रही थी। शकुंतला भाभी को भी लग रहा था कि उनका ध्यान रखा जा रहा है। वह तो शादी की व्यवस्था देख-देख कर ही अभिभूत थीं। शादी वाले दिन दबे शब्दों में सुरेखा ने पंडित जी से थोडा जल्दी रस्मों को निपटाने को कहा। शादी होटल से होनी थी, सो भाभी मंडप से लेकर शादी में लगाने वाली पूजन सामग्री को एकत्र करने में पंडित जी की मदद करती रहीं। दूसरी-तीसरी बार लिस्ट पढतीं कि कहीं कुछ छूट न जाए। भाभी सावधानीपूर्वक सामान जमाती जातीं। यही एक काम सौंपा था सुरेखा ने उन्हें। शादी वाले दिन घर मेहमानों से भर गया था। इवेंट मैनेजर के इंतजाम देख कर तो सभी प्रभावित थे। शाम को भाभी सबके बीच कुछ गुम सी हो गईं। उनके लिए सारे चेहरे अपरिचित थे, जो परिचित थे भी, उनके पास समय की कमी थी। सबसे मिलना हो जाएगा वाला सपना तो सपना ही रह गया। शादी की गहमागहमी के बीच लोग अपने में ही व्यस्त रहे। शकुंतला भाभी को अकेले मंडप के पास बैठा देखकर रमेश ने उनको आराम करने की सलाह दी तो वो मुस्करा कर बोलीं, 'अब तो कन्यादान के बाद ही आराम करूंगी। अरसे बाद तो ये मौका हाथ आया है।' सुरेखा के कन्यादान करने के बाद भाभी का नंबर आया तो बडे मनोयोग से उन्होंने कन्यादान किया। बाद में किसी ने उनको होटल के एक कमरे में पहुंचा दिया। जिम्मेदारी से फारिग होकर वह सोईं तो सोती रह गईं। जब सुबह नींद खुली तो खुद को कमरे में अकेले पाया। वहां न मंडप था, न सोफा और न सजावट....। रमेश को सोच में बैठा देख सुरेखा बोली, 'क्या सोच रहे हैं आप? अच्छा होगा कि किसी गाडी से भाभी को घर भिजवा दो। नाश्ते तक का ही कॉन्ट्रैक्ट है। अच्छा होगा कि सब लोग लंच से पहले ही निकल जाएं। इंदौर वाली मौसी के बच्चे भी हैं। उनकी ट्रेन तो दोपहर की है। यह तो अच्छा हुआ कि कुछ एक्स्ट्रा बनवा लिया लंच के लिए वरना मुश्किल हो जाती।' सुरेखा थोडा एकांत चाहती थी, ताकि बिखरे घर को समेट सके। रमेशा काफी देर तक हिसाब-किताब करता रहा। दोपहर बीत गई। रमेश बाहर आया तो देखा, शकुंतला भाभी चुपचाप बैठी सुरेखा को पगफेरे के सामान सहेजती देख रही थीं। रमेश ने भाभी से कहा, 'भाभी, आप तैयार हो जाओ, मंदिर के दर्शन करते हुए वहीं से निकल पडेंगे।' तभी सुरेखा बोली, 'अरे नहीं, आप थके हुए हो, ऐसे में ड्राइविंग ठीक नहीं है। ड्राइवर छोड आएगा भाभी को।' भाभी ने भी सुरेखा की बात का समर्थन किया, 'ठीक कह रही है बहू, रमेश तुम आराम करो।' 'अरे नहीं भाभी, आपको अकेले नहीं भेजूंगा। गाडी ड्राइवर ही चलाएगा, मैं तो बस साथ चलूंगा आपके। आपसे घंटा-दो घंटा बात करने को मिल जाएगा। अकेले भेज दिया तो श्रीकांत दादा मेरे कान खींच लेंगे।' रमेश के अपनेपन से गदगद शकुंतला भाभी चलने की तैयारी करने लगीं। तभी सुरेखा के चेहरे पर अजीब से भाव देख रमेश धीमे से बोला, 'बेटी की शादी इवेंट मैनेजर ने मोटी रकम की बदौलत यादगार बना दी। रही बात शादी के रीति-रिवाजों को निपटाने की तो शकुंतला भाभी ने उन्हें पूरे विधान से निपटाया। उन्हें पैसा नहीं, थोडा सा प्यार और स्नेह चाहिए। दो मीठे बोल से वह खुश हो जाएंगी। बस इतना ही तो खर्च होगा, मेरे हिसाब से यह सौदा बुरा नहीं है।' रमेश का कटाक्ष सुरेखा को जडवत कर गया। चलते समय वह भाभी के पैर छूने लगी तो भाभी ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'खुश रहो बेटा, बडा मान दिया तुम लोगों ने। बडे-बुजुर्गों का अभाव नहीं खला शादी में। जीती रहो, राजी-खुशी रहो...।' भाभी चली गईं तो सुरेखा कुछ भरे मन से घर में आई। एकाएक मानो घर का एकांत सूनेपन में बदल गया। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। पगफेरे के सामान जांचने लगी तो कुछ न कुछ कमी सी दिखने लगी। सब कुछ बढिय़ा होने के बावजूद कोई कमी सी दिखी सुरेखा को। तभी वह उठी और ड्रेसिंग टेबल की मेज तक गई। दराज से उसने डिबिया उठाई और शकुंतला भाभी की दी हुई पायल निकाल ली। छोटे-छोटे घुंघरुओं की रुनझुन सुनने के लिए उसने पायल हिलाई और फिर सावधानी से उसे आशीर्वाद के लिफाफे में रख दिया। सुरेखा को लगा, पगफेरे के सामान में पूर्णता आ गई है। मीनू त्रिपाठी की लगभग 150 कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद, दो कथा संग्रह प्रकाशित, एक प्रकाशनाधीन, अध्यापन और समाज-कार्यों में रुचि। आत्मकथ्य : एक परिचित रिश्तेदारों से दूरी बनाए रहते थे, लिहाजा उनकी बेटी की शादी में लोग ऐन शादी में पहुंचे। इससे शादी बेरौनक सी दिखी। यही विषय कहानी में ढल गया। कहानी मीनू त्रिपाठी कलाकृतियां : पीजूष कांति बेरा

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