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वक्त की जवाबदेही

कहते हैं, जीवन में हमेशा अपना चाहा नहीं होता। शादी जैसे रिश्ते में भी कई बार ऐसा होता है पारिवारिक-सामाजिक मर्यादा के लिए लोग इस बंधन में । बंधे रहते हैं। ऐसे ही कुछ सवालों को उठात

By Edited By: Published: Sun, 03 Jul 2016 02:21 PM (IST)Updated: Sun, 03 Jul 2016 02:21 PM (IST)
वक्त की जवाबदेही
शहर की सबसे पॉश कॉलोनी में कोठी, तीन कारें, जेवर, कपडा बेशुमार, नौकर...सब कुछ तो है तुम्हारे पास। फिर भी तुम्हें शिकायत रहती है। कितने नाशुकरे होते हैं कुछ लोग।'यहां 'कुछ लोग' से परेश का तात्पर्य सीधा मुझसे ही था, मगर मुझे गहनों-कपडों की नहीं, पति के संग की चाह थी। जीवनसाथी के रूप में मित्र खोजती थी मैं, एक ऐसा मित्र जिससे अपने सपने बांट सकूं। सुख-दुख साझा कर सकूं। कॉलेज में परेश मुझसे दो वर्ष सीनियर थे और मेरा उनसे सीधा परिचय कभी नहीं हुआ था। मेरी दोस्ती तो कुणाल से थी। साधारण रूप-रंग और साधारण परिवार का कुणाल तेज बुद्धि वाला तो था ही, उसकी असल पहचान थी-स्त्रियों एवं लडकियों के प्रति उसका सम्मान। उसके यही संस्कार उसे आज की पीढी से अलग करते थे और मुझे लुभाते थे। संयत व्यवहार था उसका। उसे मेरी हर बात का ख्याल रहता था। मुझे खाने में क्या पसंद है, किस गायक के गीत पसंद हैं...। मुझ जैसी साधारण लडकी को उसने 'विशेष' बना दिया था। हमारा सपना भी एक जैसा था- समाजसेवा। अर्थ का लोभ नहीं, अर्थपूर्ण जीवन की लालसा हमें बांधती थी। एक-दूसरे के लिए शक्ति-पुंज का काम करते थे हम। अपनी हर परेशानी बांटते। विधाता ने मुझे सामान्य से कुछ अधिक रूप दिया और वही मेरे लिए अभिशाप बन गया। परेश के पिता विधायक थे, लिहाजा जेब में पैसा और रौब दोनों था उसके पास। मैं जानती थी कि परेश की नजर मेरे इर्द-गिर्द मंडराती है लेकिन यही मानती रही कि यदि मैं उसे नजररअंदाज करती रहूंगी तो वह खुद मेरा पीछा करना छोड देगा। जिंदगी के सच कितने कडवे होते हैं, ये कहां जानती थी मैं। परीक्षा का अंतिम दिन था और उसी दिन शिमला से मौसी का फोन आया। वह फिसल गई थीं और उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया था। वह चाहती थीं कि मैं छुट्टियों भर के लिए उनके पास चली जाऊं। कई बार हम वहां घूमने गए थे, इसलिए उनकी जरूरत के समय कैसे मना कर देती? परेश को मेरे जाने की खबर मिली तो उसके पिता ने फौरन मेरे बाबा को बुलवा भेजा और परेश से मेरे रिश्ते की बात की। विवाह बिना दहेज के होगा, ऐसा विधायक महोदय ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। बाबा ने कहा कि वह मेरी राय लेना चाहेंगे लेकिन परेश ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि एक ही कॉलेज में होने के कारण हम दोनों एक-दूसरे को जानते हैं और हमारी अच्छी अंडरस्टैंडिंग है। मां-बाबा तो फूले नहीं समा रहे थे, घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता जो मिल गया था। तुरंत यह खबर शिमला में मौसी के घर तक पहुंच गई और मुझे तुरंत वहां से वापस लौटना पडा। मेरे लौटने तक शहर में यह खबर आग की तरह फैल चुकी थी कि विधायक जी के बेटे की शादी मुझसे तय हो गई है। परेश के घर में तो जश्न की तैयारियां भी शुरू हो चुकी थीं। मैंने बाबा को समझाने की बहुत कोशिश की मगर सवाल बाबा के वचन का ही नहीं, विधायक जी की प्रतिष्ठा का भी था। मां-बाबा समझ ही नहीं पा रहे थे कि इतने आदर्श परिवार में शादी करने में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। उनके हिसाब से यह मेरी ही समझ की कमी थी। इधर विधायक महोदय ने एक साधारण परिवार में बिना दहेज विवाह करके अपने लिए साख तो बनाई ही थी, अगले वर्ष होने वाले चुनावों के लिए सीट भी पक्की कर ली थी। विवाह के दूसरे दिन स्वागत समारोह में एक भेद खुला। परेश के संगी-साथी जानते थे कि मैं उसे लिफ्ट नहीं देती। उन्होंने परेश से शर्त लगाई थी कि मुझसे दोस्ती करके दिखाए और परेश ने घमंड में आकर ऐलान कर दिया था कि दोस्ती तो क्या, वह मुझसे शादी करके दिखाएगा। यानी उसके लिए मैं एक ऐसी ट्रॉफी थी, जो उसने जीत कर दिखाई थी। जिस तरह ट्रॉफी को हर रोज झाड-पोंछ कर सजा दिया जाता है, ताकि हर आने वाले की नजर उस पर पडे, वैसी ही स्थिति मेरी भी इस घर में थी। परेश की रुचि राजनीति में नहीं थी। पिता की अकूत संपत्ति तो थी ही, उसी से पास के शहर में उसने एक फाइव स्टार होटल बनाया और उसे चलाने लगा। पैसे के साथ आने वाली सारी बुराइयां उसके भीतर थीं। शराब-शबाब हर वक्त मुहैया थे उसे। परेश के लिए स्त्री सिर्फ एक भोग्य वस्तु ही थी। नैतिक-अनैतिक जैसे शब्द उसकी डिक्शनरी में नहीं थे। पत्नी के लिए भी किसी तरह की भावनाएं नहीं थीं उसके मन में, क्योंकि उसके लिए सब कुछ सर्वसुलभ था, ऐसे में बीवी सिर्फ एक सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए थी। शानो-शौकत का मुझे मोह नहीं था और इसे छोड दूं तो मेरी स्थिति किसी गुलाम से बेहतर नहीं थी उस घर में। परेश की इजाजत के बिना तो मैं अपने मां-बाप से मिलने भी नहीं जा सकती थी। इसके बावजूद पारिवारिक मर्यादा के नाम पर मुझे पति के सारे व्रत-उपवास रखने होते थे। करवाचौथ का व्रत विधिपूर्वक रखने के लिए ससुराल से कडा आदेश था। शाम को जब पति के दर्शन करने का समय आता तो वही नदारद होते। ऐसे में एक और बात यह हुई कि मैं अपने घर को एक वारिस भी न दे सकी। मुंह खोल कर किसे बताती कि शुरू के कुछ महीने छोड कर पति का संसर्ग ही नहीं था मेरे पास। बच्चा हो जाता तो शायद मुझे भी जीने का कोई मकसद मिल गया होता। घरवालों के कहने पर मैंने अपने सारे चेकअप्स करवा लिए थे। मुझमें डॉक्टर्स को कोई समस्या भी नहीं दिखी थी लेकिन मेरे माथे पर यह एक दाग लगा ही दिया गया। इस पर भी परेश अपेक्षा करते कि मैं उनके प्रति कृतज्ञ रहूं और अपने भाग्य को सराहूं। बहुत कोशिश करती मैं कि परेश में कोई अच्छाई खोज सकूं। पति का सम्मान करना, उसके दुख-तकलीफ में साथ निभाना....ये सारे उपदेश मुझे विरासत में ही मिले थे। मैं यह सब करती भी थी लेकिन मुझे समाज के लिए कुछ करने की चाह थी। गहने और कपडे मुझे तृप्त नहीं करते थे। मैं जीवन में कुछ सार्थक करना चाहती थी। परेश मुझे किसी समाजसेवी संस्था से भी नहीं जुडऩे देना चाहते थे। उन्हें मेरा घर से बाहर निकलना ही नहीं भाता था। कई बार सोचती हूं, शादी होते ही पति मालिक कैसे बन जाता है? आज भी हमारे समाज में पति ही यह तय करता है कि पत्नी किस तरह का जीवन जिए। उसे कितनी आजादी हो। जेल क्या सिर्फ वही होती है, जहां लौह किवाडों पर मोटा ताला लटका हो? खुले किवाडों के भीतर भी कैद की सी घुटन महसूस की जाती है अनेक बार। लंबे अरसे बाद छोटे भाई के विवाह पर एक सप्ताह मायके जाकर रहने की अनुमति मिली थी मुझे। वहां जाकर पता चला कि हमारे कॉलेज बैच की रीयूनियन भी उसी हफ्ते है। इससे पहले भी यह हो चुकी थी लेकिन मैं कभी जा नहीं सकी। इस बार अपने शहर में थी तो जाने के बारे में सोच सकती थी। मेरे कुछ दोस्त तो उसी शहर में रहते थे। मेरे ही साथ पढी थी श्रद्धा। उसने मुझे बताया कि कुणाल को मेरे आने की खबर भी नहीं थी लेकिन मैं बहुत उत्सुक थी उससे मिलने को। अकेले जाने में हिचक हो रही थी, इसलिए सोचा कि श्रद्धा के संग जाऊं। जब हम वहां पहुंचे तो लोग आने लगे थे। कई साल बाद अपने सहपाठियों से मिलने का सुख ही अलग होता है। सभी लोग छोटे-छोटे ग्रुप्स में खडे होकर बातें कर रहे थे। धीरे-धीरे हॉल लगभग पूरा भर गया। तभी मेरी नजर कुणाल पर पडी। जैसे ही मैंने कदम बढाए, उसने मुझे देख लिया। उसके चेहरे पर उत्साह की चमक थी और वह तेज-तेज चल कर मुझ तक पहुंचना चाहता था। एकाएक मेरा दिल किसी युवा लडकी की तरह धडकने लगा। खुद पर आश्चर्य हुआ मुझे। मैं तो सोचती थी कि इतने वर्ष परेश के साथ बिता कर मेरा हृदय पाषाण हो चुका है लेकिन वही हृदय कुणाल की एक झलक पाकर मानो फिर से जिंदा हो गया। उसने मुझे इशारा किया और हम कोलाहल से दूर बरामदे में रखी कुर्सियों पर जा बैठे। कुणाल पास ही के किसी गांव में पढाता था, साथ ही 'गांव के हर बच्चे को शिक्षित करना' उसका लक्ष्य था। खाना खत्म होते ही वह एक प्लेट में दो रसगुल्ले लेकर आ गया और मैं विस्मित भाव से उसे देखती रह गई। उसे अब तक यह याद था कि मुझे दही में रसगुल्ले डाल कर खाना बहुत पसंद है। खाते-खाते उसने पूछा, 'और सब ठीक चल रहा है?' 'सब ठीक है,' कह कर मैंने बात टाल दी। उसने ध्यान से मेरी ओर देखा और फिर कहा, 'क्या कल का दिन मुझे दे सकती हो? वही म्यूजियम के साथ वाले पार्क में अपनी पुरानी जगह पर...,' मैंने फौरन हामी भर दी। मुझे भी उससे ढेरों बातें करनी थीं, जो अभी इतनी भीड में कर पाना संभव नहीं था। अगले दिन निर्धारित समय पर हम मिले। मिलते ही उसने सवाल पूछा, 'कल तुम कुछ परेशान लग रही थीं। अब बताओ क्या बात है?' वह अपने साथ मेरे पसंदीदा पॉपकॉर्न लेकर आया था। मन तो कर रहा था कि इतने वर्षों की पीडा उसके कंधे पर सिर रख कर बहा दूं लेकिन मैं अब लडकी नहीं, किसी की पत्नी थी। कॉलेज के दिनों में वह मुझे जरा सा भी परेशान नहीं देख पाता था। पर अब तो स्थितियां भिन्न थीं। अगर मैंने कुणाल के आगे अपनी व्यथा रखी तो वह भी परेशान हो जाएगा। अपनी परेशानियां उसे बताना निहायत ही स्वार्थ होगा। कुणाल के हाथ में एक पैकेट और था, जिसमें से बच्चों के कुछ खिलौने झांक रहे थे। मैंने ध्यान हटाने के लिए उससे पूछा, 'अरे, यह सब किसके लिए लाए हो?' श्रद्धा ने तो मुझे बताया था कि कुणाल ने अभी तक विवाह नहीं किया है। कुणाल ने उत्तर दिया, 'अपनी बेटी के लिए...। मैंने लगभग दो साल पहले गांव की ही एक लडकी मीरा से शादी की है। वह शिक्षित है और मेरे काम में सहयोग करती है। हमारी छोटी सी एक बच्ची भी है।' मैंने कुणाल से बच्ची का नाम पूछा तो उसने जवाब में कहा, 'ऋचा'। यह तो मेरा ही नाम था! मैं चकित रह गई। समय बडा बलवान होता है। उसकी मर्जी नहीं थी कि मैं कुणाल के संग रहूं तो फिर अपने कष्ट भी मैं उससे क्यों बांटूं, यह निश्चय कर मैंने अपनी सारी व्यथा किसी कडवी दवा की मानिंद भीतर गटक ली और चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बोली, 'अरे वाह ऋचा? इस बात पर तो पार्टी बनती है।' मैंने उसे विश्वास दिला दिया कि मुझे कोई समस्या नहीं और यह जो मेरे चेहरे पर दिख रहा है, महज एक थकान है। मैं जानती हूं कि कुणाल के साथ मैं नहीं रह सकती लेकिन मेरे दिल में तो वह हमेशा रहेगा और जब चाहूंगी अपने दिल में बैठे कुणाल से अपनी व्यथाएं कह दूंगी। कुणाल से मिलने के बाद एक खालीपन सा मन में घिर आया है लेकिन एक जिज्ञासा जरूर है। कहते हैं, ऊपर बैठा संसार का रखवाला सबके कर्मों का लेखा-जोखा रखता है और उसी के अनुसार हम अपने किए अपराधों का दंड पाते हैं तो क्या वह 'वक्त' से भी पूछेगा कि वह ऐसी परिस्थितियां क्यों खडी कर देता है जिसमें सीधी राह चलता मनुष्य अंधेरी गलियों में धकेल दिया जाता है- उम्र भर पीडा पाने के लिए। क्या वक्त को अपने कृत्यों का हिसाब किसी को नहीं देना पडता? कोई शिकायत नहीं, बस मन में यह एक सहज सवाल है...। कहानी उषा वाधवा कलाकृतियां : तीर्थकर बिस्वास

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