Move to Jagran APP

ट्रिपल तलाक, जंग जारी है

तीन तलाक को लेकर इन दिनों बहस छिड़ी हुई है। स्त्री के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने वाली कुप्रथाओं को बदलना क्यों जरूरी है, बता रही हैं सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट कमलेश जैन।

By Edited By: Published: Tue, 09 Aug 2016 03:26 PM (IST)Updated: Tue, 09 Aug 2016 03:26 PM (IST)
ट्रिपल तलाक,  जंग जारी है
भारत में संविधान सर्वोच्च है। इसके बावजूद मुसलिम स्त्रियां कई बार समानता, भेदभाव रहित जीवन, समान अवसरों और सम्मान के साथ जीने के अधिकार का उपयोग नहीं कर पातीं। भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) नामक संस्था का अध्ययन बताता है कि लगभग 92 प्रतिशत मुसलिम स्त्रियां तीन तलाक की पीडा और लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं। सायरा बानो की याचिका तीन तलाक पर यूं तो बहस हमेशा से रही है लेकिन देहरादून की सायरा बानो की याचिका के बाद यह और बढ गई है। इसी वर्ष अप्रैल महीने में सायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में ट्रिपल तलाक को प्रतिबंधित करने की गुहार लगाते हुए मुसलिम स्त्रियों को भी संविधान द्वारा प्रदत्त समानता का अधिकार दिलाए जाने की मांग की थी। बीएमएमए की अगुआई में लगभग पचास हजार स्त्री-पुरुषों ने ट्रिपल तलाक के विरोध में राष्ट्रीय महिला आयोग के समक्ष हस्ताक्षरयुक्त पिटिशन दिया। संस्था की सह-संस्थापक जाकिया सोमन कहती हैं, 'मौखिक तलाक स्त्री के लिए अभिशाप है। उन्हें न तो भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता मिलता है और न एकमुश्त पैसा। स्त्री बच्चों सहित बेघरबार हो जाती है। 'निकाह हलाला' यानी तलाक के बाद यदि पति फिर पूर्व पत्नी से शादी करना चाहे तो स्त्री को एक बार फिर पीडादायक स्थिति से गुजरना होगा। उसे दूसरे व्यक्ति से विवाह कर उसे तलाक देना होगा, तभी वह पहले पति से पुनर्विवाह कर सकेगी। यह व्यवस्था स्त्री के स्वाभिमान और मर्यादा के खिलाफ अमानवीय अपराध है।' विरोध के स्वर हैं हर जगह भोपाल की सादिया वकास कहती हैं, 'देश में ट्रिपल तलाक के कई मामले हुए हैं। कुछ लोग सोशल साइट्स, एसएमएस और फोन के जरिये तीन बार तलाक दे देते हैं। स्त्री इसके खिलाफ कहीं फरियाद नहीं कर सकती। उन्हें कानून से कोई अधिकार नहीं मिलता।' संस्था का मानना है कि तलाक की प्रक्रिया तीन महीने तक चले और उसमें समझौते की गुंजाइश हो। मुसलिम स्त्रियां भी भारत की नागरिक हैं तो उन्हें संविधान प्रदत्त अधिकारों से क्यों वंचित रखा जाए! मुसलिम पर्सनल लॉ को ऐसे संशोधित किया जाए कि उसमें लैंगिक आधार वाले भेदभावपूर्ण अंशों को निकाला जाए और संविधान एवं कुरान द्वारा प्राप्त अधिकारों को स्थापित किया जाए। मनमानी व्याख्या न हो सर्वोच्च न्यायालय में कहा गया है कि जब कई इस्लामिक देशों में मुसलिम पर्सनल लॉ में ट्रिपल तलाक जैसी कुरीतियां नहीं हैं तो फिर भारत में ही क्यों 'शरीयत' की व्याख्या स्त्रियों के खिलाफ की जाए, जिनका कुरान से कोई लेना-देना नहीं है और कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए इनकी व्याख्या कर ली है। ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल बोर्ड भी एक एनजीओ है। उसे भारतीय मुसलमानों के रीति-रिवाजों को इस तरह प्रतिस्थापित करने का अधिकार नहीं है। बहुविवाह, बाल-विवाह, एकतरफा तलाक और लैंगिक भेदभाव जैसी कुरीतियां किसी भी धर्म का अंश नहीं हो सकतीं। अगर कोई मनमाने ढंग से इनकी व्याख्या करता है तो यह ठीक नहीं है और समय रहते इसे सुधारा जाना चाहिए। स्त्री 'ऑब्जेक्ट' नहीं वर्ष 2005 में मुज्फ्फरनगर (उप्र) में ससुर ने अपनी बहू से दुष्कर्म किया और व्यवस्था यह की गई कि बहू को अपने पति के बजाय ससुर के साथ रहना होगा। दूसरी ओर मुसलिम लॉ के नियम कहते हैं कि पिता-ससुर के लिए बेटी-बहू 'हराम' है। वे साथ नहीं रह सकते। कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान की एक नाबालिग विवाहित लडकी के साथ दुष्कर्म की घटना हुई। पति ने साथ देने या पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने के बजाय उसे ट्रिपल तलाक दे दिया। पंचायत में कहा गया कि अब तो तलाक हो गया है, इसलिए इद्दत (पति से अलग होने के बाद तीन महीने तक का समय) पीरियड में लडकी को उसके ससुराल से प्रतिमाह 4000/ रुपये और 60 किलो गेहूं दिया जाएगा। इस बीच वह विवाह नहीं कर पाएगी...। विडंबना यह कि दुष्कर्म के आरोपी को कोई सजा नहीं हुई मगर लडकी को तलाक दे दिया गया। समान कानून की व्यवस्था इंडो केनेडियन फिल्मकार शाजिया जावेद ट्रिपल तलाक पर एक फिल्म बना रही हैं। इसे '3 सेकंड्स का तलाक' भी कहा जाता है। हजारों मुसलिम स्त्री-पुरुषों ने राष्ट्रीय महिला आयोग में इस संबंध में याचिका दी है मगर कई लोग इसका विरोध कर रहे हैं। भारत सहित दुनिया के कई हलकों में धीरे-धीरे मुसलिम स्त्रियां मुखर हो रही हैं। मिसिसिपी में घरेलू हिंसा को तलाक का आधार माने जाने के कारण आंदोलन चल रहा है। मुसलिम स्त्रियों की मांग है कि ट्रिपल तलाक और हलाला को प्रतिबंधित किया जाए और मुस्लिम लॉ को 'कोडिफाई' यानी सुव्यवस्थित किया जाए ताकि सबके लिए समान कानून की व्यवस्था की जा सके। हिंदू स्त्रियों के अधिकारों के लिए भी भारतीय न्यायालयों ने हस्तक्षेप किया है। कई बार कानूनों में संशोधनों की जरूरत पडी है। हाल में ही स्त्री को पति की सहमति से बच्चा गोद लेने का अधिकार मिला। वह संयुक्त परिवार की कर्ता भी बन सकती है। सामाजिक बदलाव के रास्ते भी तब खुलते हैं, जब कानूनों में समय-समय पर संशोधन हों। अदालतों के लिए चुनौती सायरा बानो केस के बाद कई अन्य याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में आई हैं। इनमें एक है 30 वर्षीय गुलशन परवीन की, जो अंग्रेजी भाषा में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। ट्रिपल तलाक ने उन्हें दो वर्षीय बेटे सहित बेघरबार बना दिया। बीती 29 जून को ही उनका पिटिशन दाखिल किया गया है। उनका कहना है कि दहेज-उत्पीडऩ की शिकायत के बाद उन्हें तीन तलाक कह कर तलाक दिया गया। पिटिशन दाखिल करने वाले दिन ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस्लामिक कानून में विवाह संबंधी कानूनों की समीक्षा भारतीय संविधान के तहत करने की आवश्यकता है। यह देखना होगा कि कहीं यह कानून स्त्री के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं कर रहा? हालांकि भारत जैसे देश में कानूनों में संशोधन करना अदालतों के लिए बडी चुनौती होगा। लडाई लंबी है तलाक, हलाला, बहुविवाह और भेदभाव जैसी कुरीतियों को संविधान के तराजू पर तौलना होगा। हिंदू विवाह, उत्तराधिकार, संपत्ति अधिकारों में बदलाव वर्ष 1950 से ही शुरू हुआ और अब तक चल रहा है मगर मुसलिम पर्सनल लॉ में ऐसा कोई बदलाव नहीं हुआ है। शाहबानो केस में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद कानून लागू नहीं किया जा सका। मुसलिम स्त्रियों की यह लडाई मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं है। (आलेख में चित्रों का प्रयोग केवल प्रतीकात्मक उद्देश्य के लिए किया गया है।)

Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.