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आओ नया ख्वाब बुनें

सपनों,उम्मीदों,महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की दुनिया स्त्रियों की भी उतनी ही है,जितनी पुरुषों की।स्त्री जीवन के कुछ अनदेखे पहलुओं को जानने की एक कोशिश इंदिरा राठौर के साथ।

By Edited By: Published: Wed, 05 Oct 2016 01:02 PM (IST)Updated: Wed, 05 Oct 2016 01:02 PM (IST)
आओ नया ख्वाब बुनें
आप महत्वाकांक्षी हैं? हां, कोई संदेह...? यह एक पुरुष का जवाब है। आप महत्वाकांक्षी हैं? शायद हां, नहीं, लेकिन...। यह एक स्त्री का जवाब है। ज्यादातर स्त्रियां इस सवाल का जवाब अटकते-झिझकते और सकुचाते हुए देती हैं। स्त्री और एंबिशन? आज भी समाज का एक तबका स्त्रियों से इस शब्द को जोडऩे में असहज हो जाता है। उनकी महत्वाकांक्षा को या तो संशय की नजर से देखा जाता है या चेतावनी की तरह। महत्वाकांक्षा का शाब्दिक अर्थ देखें तो यह वह ड्राइव है, जो किसी भी फील्ड में सफलता की ओर ले जाती है। यह विडंबना ही है कि पुरुषों को इसे लेकर कोई दुविधा नहीं होती मगर स्त्रियों के संदर्भ में यह शब्द आज भी टैबू बना हुआ है। इसे नकारात्मक ढंग से देखा जाता है। माना जाता है कि ऐसी स्त्री घर-परिवार की उपेक्षा करती होगी, रिश्तों को देने के लिए उसके पास समय नहीं होता होगा और सफलता के पीछे जरूर कोई 'कहानी' होगी....। यही वे कारण हैं, जो स्त्री के सपनों पर विराम लगा देते हैं। अपनी इच्छाओं व महत्वाकांक्षाओं को समझने से पहले उसका स्त्रीत्व उस पर हावी हो जाता है और वह दो कदम आगे बढाती है तो चार कदम पीछे भी कर लेती है। स्त्रीत्व की दुविधा पुस्तक 'नेसेसरी ड्रीम्स' में लेखिका अन्ना कहती हैं, 'एंबिशन शब्द के साथ एक दुविधा भी है। यह सीधे प्रतिस्पर्धा से जुडता है और प्रतिस्पर्धा स्त्रीत्व के परंपरागत ढांचे में फिट नहीं हो पाती। यही वजह है कि ज्यादातर स्त्रियां बाहर की परेशानियों, प्रतिस्पर्धा और संघर्ष को त्याग कर घरेलू व इमोशनल दुनिया में जीना चाहती हैं...।' समस्या यह है कि उन उपदेशों का क्या करें, जो स्कूल में दिए जाते थे, जिनमें कहा जाता था कि हर व्यक्ति को अपना बेस्ट देना चाहिए, अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए और अपने लिए संभावनाओं के द्वार स्वयं तलाशने चाहिए। बडों की दुनिया में आते-आते ये वाक्य लडकियों के लिए सिकुडऩे लगते हैं। पुरुष की महत्वाकांक्षा उसे जीवन और करियर में आगे बढाती है, उसे पद-प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाती है। इससे वह एक बेहतर पुत्र, भाई, पति या पिता बन सकता है मगर स्त्री की महत्वाकांक्षा को लेकर समाज के एक हिस्से की सोच इसके ठीक उलट जाती है। इस सोच के खिलाफ अब नई पीढी की लडकियां मुखर हो रही हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के बलबूते सफलता के मुकाम तय कर रही हैं। टैबू को तोडऩा होगा दूर से देखने पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री काफी प्रगतिशील नजर आती है लेकिन वहां भी इस पितृसत्तात्मक सोच वाले लोग मौजूद हैं। ऐक्टर रिचा चड्ढा ने कुछ समय पहले अपने एक इंटरव्यू में कहा था, 'स्त्रियों के मामले में एंबिशन शब्द को आज भी नकारात्मक तरीके से पेश किया जाता है जबकि पुरुषों के मामले में इसे गुण माना जाता है। ऐसी सोच से ग्रस्त लोगों को जानना चाहिए कि लडकियां अब स्त्री-पुरुष जैसे लेबल से बहुत दूर निकल गर्ई हैं। वे इन बातों की परवाह ही नहीं करतीं। महत्वाकांक्षा किसी की जायदाद नहीं है। मुझे जो चाहिए या जो पसंद है, उसे मैं किसी पुरुष की ही तरह हासिल करना चाहती हूं, उसके लिए रात-दिन मेहनत करती हूं तो इसमें क्या बुराई है?' करियर काउंसलर निकिता बताती हैं, 'करियर वर्कशॉप्स के दौरान भी मैं कई बार लडकियों में हिचकिचाहट महसूस करती हूं। वे किसी बात पर उत्साह से आगे बढती हैं लेकिन उतनी ही तेजी से उनका उत्साह ठंडा भी पड जाता है। अपनी बात को मजबूती से रखने की क्षमता होने के बावजूद वे हमेशा किसी न किसी की अनुमति की आकांक्षा करती हैं। मुझे उन्हें यह समझाना पडता है कि जीवन में आगे बढऩे की इच्छा होने का मतलब यह नहीं है कि आप बाकी पहलुओं को उपेक्षित कर देंगी। ऐसी झिझक लडकों में नहीं होती। वे स्पष्टता के साथ अपने सपनों के बारे में बात करते हैं। उनकी समस्या पेरेंट्स की अपेक्षाओं से ज्यादा जुडी होती है। कई लडकियां क्षमता होते हुए भी लीडरशिप के बजाय पीछे रहते हुए काम करना पसंद करती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि जीवन के हर स्तर पर संतुलन बिठाना उनकी जिम्मेदारी है। उन्हें लगता है कि प्रोफेशनल जीवन में जितनी अधिक जिम्मेदारी होगी, उतना ही घरेलू स्तर पर वे चूकने लगेंगी। यह एक वजह है, जो उन्हें आगे बढऩे से रोकती है। वे सफलता की अपेक्षा तो रखती हैं लेकिन उतनी ही, जितनी उनके रिश्तों में आडे न आए।' लीडरशिप में लडकियां यूके की एक यूनिवर्सिटी में हुए शोध के अनुसार करियर की शुरुआत में लडकियां भी लडकों की तरह ही महत्वाकांक्षी होती हैं लेकिन आगे जाते ही कई तरह के बैरियर्स उनके सामने आने लगते हैं। शोध इस विषय पर था कि स्त्रियां लीडरशिप में आगे क्यों नहीं आ पातीं। शोध में पाया गया कि जहां पुरुषों की महत्वाकांक्षा समय के साथ आगे बढती है, स्त्रियों की घटने लगती है। घर-परिवार या बच्चों के अलावा एक और बैरियर यह है कि उनके पास कोई मेंटर, रोल मॉडल या सपोर्ट सिस्टम नहीं होता। उनके प्रति कुछ पूर्वाग्रह भी होते हैं, जिससे उनके निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है। कार्यस्थल में सीनियर्स मेंटर का काम करते हैं जबकि रोल मॉडल वे होते हैं, जो लीडरशिप में हैं, जिन्हें भले ही वे व्यक्तिगत रूप से न भी जानती हों। इससे पहले हुए अध्ययन में यह पाया गया था कि कई बार वर्कप्लेस में भी स्त्रियों की काबिलीयत को संदेह से देखा जाता है। अगर कोई ऐसा प्रोजेक्ट विफल हो, जिसे स्त्री लीड कर रही हो तो तुरंत उस पर आरोप लगता है कि स्त्री होने के कारण ऐसा हुआ या स्त्री इसे चला नहीं सकती, जबकि पुरुष के नेतृत्व में भी कई बार विफलताओं का सामना करना पडता है। स्त्री की सफलता पर तालियां बजाने वाले हाथ बहुत कम होते हैं। एक कंपनी के मार्केटिंग हेड आशीष बताते हैं, 'महत्वाकांक्षा को स्त्री-पुरुष के दायरे में न बांधें। पुरुष महत्वाकांक्षी होता है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह जीवन में सुकून नहीं चाहता। मेरी पीढी के पुरुषों के लिए घर उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना स्त्रियों के लिए। स्त्री चूंकि मां भी है, इसलिए उसकी जिम्मेदारियां पुरुष से ज्यादा होती हैं। हमारी पीढी स्त्री-पुरुष के दायरे से आगे निकल आई है। मैं खुद पत्नी को प्रेरित करता हूं कि वह करियर में आगे बढे। मेरे विभाग में भी कई लडकियां हैं, जो ज्यादा ईमानदार और मेहनती हैं। मैं मानता हूं कि कभी-कभी उनके एंबिशंस पर ब्रेक लगता है। दरअसल जो समय उनके करियर का होता है, उसी में उन्हें शादी या मां बनने की जिम्मेदारी भी उठानी पडती है। कोई लडकी मातृत्व अवकाश लेती है तो उस दौरान उसका काम पुरुष सहकर्मी करता है। जाहिर है, अगली बार पदोन्नति में वह पिछड जाती है। इसके अलावा मैटरनिटी लीव के बाद जब वह काम पर लौटती है तो मेड या क्रेश के भरोसे रहना पडता है, बच्चे की चिंता करियर में उसकी परफॉर्मेंस को प्रभावित करती है। कामकाजी स्त्री को कई स्तरों पर संतुलन बिठाना पडता है। हमारे यहां सपोर्ट सिस्टम कम है।' महत्वाकांक्षा जरूरी है एक कंपनी में एच.आर. हेड साक्षी कहती हैं, 'हां, मैं महत्वाकांक्षी हूं। मेरे पेरेंट्स ने इतना खर्च करके एम.बी.ए. इसलिए नहीं कराया कि मैं घर बैठ जाऊं। आज के दौर में लडका-लडकी की परवरिश समान ढंग से होती है। माता-पिता बेटी के लिए भी उतनी ही मेहनत कर रहे हैं, जितनी बेटे के लिए। हां, शादी के बाद ससुराल और पति का सपोर्ट बहुत जरूरी है। अगर मैं इस पद पर हूं तो इसीलिए कि इसमें मुझे पति का पूरा सहयोग मिला है। यहां तक कि कई बार मेरे पति ने मेरी खातिर अपने करियर में भी समझौता किया है ताकि मैं आगे बढ सकूं।' यूनीक साइकोलॉजिकल सर्विसेज, दिल्ली की मनोवैज्ञानिक डॉ. गगनदीप कौर कहती हैं, 'महत्वाकांक्षाएं न होतीं तो क्या ओलंपिक में लडकियां मेडल जीत पातीं? मदर टेरेसा अगर घर-परिवार में सीमित रह जातीं तो क्या आज संत का दर्जा पातीं? कल्पना चावला, इंदिरा नूई, चंदा कोचर सबके सामने चुनौतियां आईं, इनमें से किसी को भी सफलता थाली में परोस कर नहीं मिली। उन्होंने सपने देखे और उनके लिए मेहनत की। बडे नामों को छोड दें तो आम लडकियां भी रोज ऐसी चुनौतियां झेल कर आगे बढती हैं। मेरी मां ही मेरे सपनों के खिलाफ थीं। उनका कहना था, काम करने जाओगी तो घर कौन संभालेगा? ससुराल वालों को खाना बनाकर कौन खिलाएगा? मैं उन्हें समझाती थी कि डोमेस्टिक हेल्प रख कर भी घर चलाया जा सकता है। घर-बाहर संतुलन बिठाना टेढी खीर नहीं, एक मैनेजमेंट है। अगर पति या परिवार वाले सहयोगी हैं तो स्त्री बखूबी हर स्तर पर संतुलन बिठा सकती है मगर सबसे पहले उसे अपने भीतर बैठी स्त्री से ही लडऩा होगा। जो स्त्रियां सफल हुई हैं, उन्हें अन्य लडकियों के लिए रोल मॉडल बनना होगा।' त्याग की देवी न बनें लेखिका-अनुवादक सोनाली मिश्रा कहती हैं, 'मैंने हमेशा यही सपना देखा कि लोग मुझे मेरे नाम से जानें। मैं पिता या पति के नहीं, अपने नाम से जानी जाऊं। मैं शोध छात्रा हूं और मेरे दो छोटे बच्चे हैं। कई बार उनकी देखरेख के लिए अपने लेखन को पीछे रखना पडता है लेकिन मेरा मानना है कि जिंदगी एक बार मिलती है, उसी में सब कुछ करना है। शुरुआत खुद से ही करनी होगी। मैं नहीं चाहती कि त्याग की देवी बनूं और अपनी कुंठा को बच्चों और संबंधों पर उतारूं। हमें अपने अपराध-बोध से उबरना होगा, खुद को पत्नी, मां या बहू के खोल से इतर इंसान समझना होगा। मेरे पहले की पीढी ने त्याग में जीवन बिता दिया मगर मेरी पीढी उनकी गलतियों से सीख रही है। मेरी चाची एथलीट थीं लेकिन घर-गृहस्थी में ऐसा फंसीं कि लोग भूल गए कि वे पढी-लिखी थीं या खेली थीं। ऐसी स्थिति पैदा ही क्यों हो?' लडाई खुद से है समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, 'ग्लोबलाइजेशन और भौतिकवाद की ओर बढ रहे समाज में स्त्रियों की नौकरी को तो स्वीकारा जाने लगा लेकिन इसमें उनकी चॉइस नहीं है कि वे काम करें या न करें या कब करें और कब छोडें। उन्हें परिवार के हिसाब से चलना होता है। जब घर को जरूरत होती है, वे कमाने निकलती है और फिर उसी घर की खातिर काम छोड भी देती हैं। हाल ही में एक यूनिवर्सिटी में अच्छे पैकेज पर मेरा चयन हुआ लेकिन उसके लिए मुझे ट्रांस्फर लेना पडता। सबने मुझे बधाई दी और जाना तय था। सारी तैयारियां हो गईं मगर तभी मेरे बेटे ने कहा, 'मम्मा, मुझे अपना यह स्कूल छोड कर नहीं जाना...।' बच्चे की यह बात मुझे अखर गई और मैंने जाना टाल दिया। बाहर की दुनिया भी बहुत संवेदनशील नहीं है। स्त्री बॉस को पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी बॉस मानने से हिचकिचाती हैं। अब तक उन्होंने सत्ता या पावर में हमेशा पुरुषों को देखा है। अकसर किसी स्त्री बॉस के बारे में लोगों को कहते सुनती हूं कि 'पहली बार पावर मिली है, संभाल नहीं पा रही...।' यही नहीं, स्त्रियां सैलरी में भेदभाव की भी शिकार हैं। मैं मानती हूं कि परवरिश के स्तर पर बहुत कुछ बदल चुका है लेकिन समाज के अन्य स्तरों पर बदलाव आने में अभी वक्त लगेगा।' जीवन से अलग नहीं सपने महत्वाकांक्षा क्या है, क्यों जरूरी है और इसके जरिये हम क्या साबित करना चाहते हैं, इसे भी समझना जरूरी है। जीवन है-तभी सपने, इच्छाएं और महत्वाकांक्षा हैं। सपनों को सीमित दायरे में कैद नहीं किया जा सकता। शायद आज के भौतिकवादी समय में कोई आइंस्टाइन बनना चाहे तो लोग मजाक उडाएं मगर किसी एक का सपना तो यह हो ही सकता है। सफलता की परिभाषा सबके लिए अलग है। किसी के लिए यह कॉरपोरेट वल्र्ड में तरक्की करना है तो किसी के लिए समाज के लिए कुछ करना। कोई गीत रचना चाहता है तो कोई नई खोज करना चाहता है। सपनों को पैसे, पद, शोहरत, ताकत या सत्ता तक सीमित नहीं रखा जा सकता। सपने भी तभी जिंदा रहेंगे, जब जीवन बचेगा। स्त्री हो या पुरुष, सभी आगे बढऩा चाहते हैं पर इसके लिए वे जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का आनंद उठाना नहीं छोड सकते। महत्वाकांक्षा नकारात्मक शब्द नहीं है, इसे सकारात्मक नजरिये से देखने की जरूरत है। सपनों की उडान अबाध जारी रहे, इसके लिए घर-परिवार-समाज को संवेदनशील होना पडेगा, साथ ही स्त्रियों को दुविधाएं त्याग कर अपने सपनों को ठोस आकार देने की पहल करनी होगी। खुद पर भरोसा है जरूरी मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं महत्वाकांक्षी हूं। स्त्रियों के एंबिशंस को आज भी समाज में नकारात्मक तरीके से देखा जाता है। महत्वाकांक्षी होने का यह मतलब नहीं है कि मैं अपने काम के लिए रिश्तों को अनदेखा करती हूं। मैं ऐसा नहीं कर सकती। अपनों के सहारे ही हमें आगे बढऩे का अवसर मिलता है लेकिन माना यही जाता है कि अगर कोई स्त्री बडे सपने देखती है तो वह घर-परिवार की उपेक्षा करती होगी। हम किसी की मानसिकता नहीं बदल सकते। जब तक मैं खुद अपने काम से संतुष्ट नहीं होती, तब तक बिना रुके निरंतर काम करती हूं। परिवार और समाज का दबाव महसूस करते हुए कोई भी स्त्री आगे नहीं बढ सकती। इसके लिए जरूरी है कि वह खुद पर भरोसा रखे। हम किसी के दबाव में आकर अपने सपनों को नहीं छोड सकते। मैं मानती हूं कि स्त्री किसी भी फील्ड में हो, उसे खुद को साबित तो करना ही पडता है, अपने अधिकारों के लिए लडऩा पडता है। उसे पुरुषों के मुकाबले ज्यादा मेहनत भी करनी पडती है। फिल्म इंडस्ट्री के बारे में कहूं तो यकीनन यहां की स्थितियां बाकी कई जगहों से अच्छी हैं। स्त्रियों का संघर्ष अन्य क्षेत्रों में यहां से कहीं ज्यादा है। सच कहूं तो भारत में स्त्रियों को आगे बढऩे के लिए आज भी कई बाधाएं पार करनी पडती हैं मगर अब स्थितियां बदलने भी लगी हैं। कट्रीना कैफ, अभिनेत्री लडकियां ही बदलेंगी हालात मैं बचपन में चांद के प्रति आकर्षित होती थी और एस्ट्रोनॉट बनना चाहती थी। हम छोटी उम्र से ही महत्वाकांक्षी तो होने लगते हैं पर कभी सोसाइटी का दबाव तो कभी खुद ही लक्ष्य से डगमगा जाना हमें कहीं और ले जाता है। मैं सिर्फ अपने मन की सुनती हूं मगर इसका यह मतलब नहीं कि दूसरों को हर्ट करूं। कई बार समान क्षमताओं के बावजूद लडकियों को ज्यादा स्ट्रगल करना पडता है। इससे घबराने के बजाय लक्ष्य के प्रति डटे रहना चाहिए। वैसे आज लडकियां हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं, सोसाइटी के बने-बनाए मापदंडों को तोड रही हैं, जो एक सकारात्मक बदलाव है। मुझे लगता है, महत्वा अंकिता शौरी, ऐक्टर प्रोफेशनल दुनिया में स्त्री-पुरुष बराबर हैं महत्वाकांक्षा किसके भीतर नहीं होती? स्त्री हो या पुरुष, सभी आगे बढऩा चाहते हैं। आज के समय में कोई ऐसा फील्ड नहीं है, जहां स्त्रियां आगे न बढ रही हों। पुरुषों से किसी भी मामले में वे पीछे नहीं हैं। फिल्म इंडस्ट्री में कास्टिंग से लेकर डायरेक्शन तक में स्त्रियों ने अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करवाई है। हाल ही में मैंने फिल्म 'बार बार देखो' में नित्या मेहरा के साथ काम किया। नित्या ने इस फिल्म से डेब्यू किया है लेकिन एक पल को भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह इंडस्ट्री में नई हैं। वह स्थापित डायरेक्टर्स की ही तरह काम कर रही हैं। जोया अख्तर, फराह खान जैसी तमाम महिला डायरेक्टर्स यहां पूरे जोश से काम करती हैं और कभी यह एहसास नहीं होता कि वे स्त्री हैं। मैं नहीं मानता कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों पर अधिक दबाव है या उन्हें कम मौके मिलते हैं। प्रोफेशनल जिंदगी में सभी के सामने कुछ न कुछ दिक्कतें हैं, चाहे पुरुष हो या स्त्री। हां, स्त्रियों के लिए घर संभालना हमेशा उनकी प्राथमिकता होता है। वैसे हम देख ही रहे हैं कि स्त्रियां बखूबी वर्क-लाइफ में बैलेंस बिठाते हुए आगे बढ रही हैं। सिद्धार्थ मल्होत्रा, अभिनेता सपनों पर हो खुद का अधिकार हम सब अलग हैं। सबकी अपनी सोच, सपने और महत्वाकांक्षाएं हैं। जो करना चाहते हैं, वह कर सकें, जैसे जीना चाहते हैं, वैसे जिएं, किसी दूसरे को खुश करने के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए। स्त्री कई रिश्तों में बंधी होती है और उसकी प्राथमिकताएं बदलती भी रहती हैं लेकिन अपने सपनों व इच्छाओं का सम्मान करें। हम जहां-जिस भी स्थिति में हैं, खुद को सुनें, जानें-समझें। अपने सपनों पर अपना हक रखें। किसी से होड में न रहें। जितना कर रहे हैं, उसमें खुश रहें। महत्वाकांक्षाओं को इतना भी न हावी होने दें कि जीवन मुश्किल हो जाए। थोडा सा चैन और सुकून भी जिंदगी में जरूरी है, तभी व्यक्तित्व का संतुलित विकास संभव है। विद्या बालन, ऐक्टर महत्वाकांक्षा बुरी नहीं पर दिशा सही हो मैंने 21 साल की उम्र में बॉलीवुड में अपना करियर शुरू किया था। लोग कहते थे कि अभिनेता अनिल कपूर की बेटी होने के कारण मैं चांदी की चम्मच के साथ पैदा हुई हूं। मुझे हर सुख-सुविधा मिली जरूर पर जब बात करियर की होती है तो मैं किसी की राय का इंतजार नहीं करती। हमारे यहां 21वीं सदी में भी हर लडकी को अपने फैसले खुद लेने की इजाजत नहीं है पर मैं इस मामले में अलग हूं। मैं हर चीज खुद सीखने में विश्वास करती हूं इसलिए फैसले भी खुद लेती हूं। मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूं और कुछ ऐसे लक्ष्य निश्चित कर रखे हैं जिन्हें पूरा करना अपनी जिम्मेदारी समझती हूं। मैं यह नहीं देखती हूं कि दूसरे क्या कर रहे हैं और क्या नहीं। मैं किसी रेस का हिस्सा नहीं हूं, बस अपने काम में सर्वश्रेष्ठ देना चाहती हूं। महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है, बस दिशा और भावना सही होनी चाहिए। ऐसा भी न हो कि अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए बाकी हर चीज को किनारे रख दिया जाए। मेरा मानना है हर लडकी में सेल्फ रिस्पेक्ट की भावना होने के साथ ही एक भरोसा भी होना चाहिए कि वह सोसाइटी में हो रही गलत चीजों के खिलाफ अपना मजबूत पक्ष रख सकती है। सोनम कपूर, ऐक्टर स्त्री के पास सपोर्ट सिस्टम की कमी है जो करना चाहती हूं, वह कर सकूं, मेरे लिए यही महत्वाकांक्षा है। पुरुष आगे बढता है तो उसके पीछे एक सपोर्ट सिस्टम होता है मगर स्त्री के साथ ऐसा नहीं होता। सबकी महत्वाकांक्षा अलग होती है। एक स्त्री के लिए करियर एंबिशन है तो दूसरी के लिए घर। गांव की स्त्री के सपने घर-परिवार-बच्चे तक सीमित हैं। कई लडकियां जानती भी नहीं कि वे चाहती क्या हैं। मैं अपने सपने पूरे करने जर्मनी से भारत आई। महज 16 की उम्र में मैं अंग्रेजी पढऩे यूएस जाना चाहती थी पर मां को लगा कि छोटी हूं। फिर उन्होंने एक साल बाद मुझे (सिंगल चाइल्ड को) बाहर पढऩे भेजा। शुरू में वह डरती थीं पर अब आश्वस्त हैं। मैंने पिछले छह वर्षों में कई बंगाली-मराठी और हिंदी फिल्मों में काम किया। मुझे मनपसंद काम करते देख पेरेंट्स खुश हैं। एलेना कजान, अभिनेत्री, ऐक्टिविस्ट खुशी पाना ही मेरी महत्वाकांक्षा है मैं बहुत कुछ करना चाहती हूं, घूमना-देखना-जानना-सीखना चाहती हूं। अगर इसे ही महत्वाकांक्षी होना कहते हैं तो हां मैं हूं। मेरा सपना जीवन में अव्वल आना नहीं, बेहतर जीवन जीना है। मेरे लिए सफलता के मायने खुशी है। मुझे कभी घूमकर, कभी कमा कर, कभी बच्चों को पढा कर, कभी खुद लिख कर, कभी खाना बना कर, कभी शॉपिंग कर, कभी नई भाषा सीख कर, कभी कोई नया काम कर, कभी दोस्त बना कर तो कभी अकेले रह कर खुशी मिलती है। मुझे सफलता में खुशी नहीं, खुशी पाने में सफलता महसूस होती है। जरूरी नहीं कि हर लडकी साक्षी, सिंधु या कल्पना चावला बने, एक साधारण लडकी को भी जीने का अधिकार है। अगले पांच साल में मेरा सपना साउथ अमेरिका, अफ्रीका और ईस्ट एशिया घूमना, स्पेनिश सीखना, हाफ मैराथन में भाग लेना, स्कीइंग सीखना, स्कूल खोलना और एक बच्ची को गोद लेना है। मैं नेशनल चेस प्लेयर रही हूं। विफल होने पर दुख हुआ, गुस्सा आया, यहां तक कि मैंने चेस छोड दिया। मगर यहीं से दूसरी राह निकली। मैंने दिल्ली के मिरांडा कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में पढाई की और आज लेखन में आ गई। विफलता के बीच से ही सफलता की राहें खुलती हैं। दरअसल पितृसत्तात्मक सोच महत्वाकांक्षा को गलत ढंग से देखती है। कई स्त्रियां भी इस सोच से ग्रस्त हैं। हमारे यहां विक्टिम शेमिंग बहुत है। लडकियों को अपने लिए गाडी, घर जैसी चीजें स्वयं लेनी होंगी, अपने फैसले लेने होंगे, तभी उनका आत्मविश्वास बढेगा। समाज तभी बदलेगा, जब वे खुद को बदलेंगी। मैं अपने काम में मर्दों से अच्छी रही हूं और हमेशा अच्छी तनख्वाह ली है मगर इसके लिए मुझे खुद को साबित करना पडा। लडकी का काम करना अभी हॉबी की तरह देखा जाता है। कई बार कार्यस्थल में भी उसे गंभीरता से नहीं देखा जाता। मुझे खुशी है कि ऐसा सोचने वाली मैं अकेली नहीं, कई अन्य लडकियां भी हैं, जो मुझे मजबूती देती हैं। लोग क्या कहेंगे की परवाह न करना ही खुश और सफल जीवन जीने का मंत्र है। अनुराधा बेनीवाल, चेस प्लेयर, ऑथर (आजादी मेरा ब्रैंड) इंटरव्यू : दिल्ली से दीपाली, इंदिरा, मुंबई से प्राची दीक्षित

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