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ईर्ष्या के कांटों के बीच प्रेम के फूल

कामयाबी हासिल करने के लिए थोड़ी प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है लेकिन जब इंसान हमेशा इसी होड़ में लगा रहता है तो उसकी यह चाहत ईर्ष्या में बदल जाती है।

By Edited By: Published: Fri, 24 Jun 2016 04:48 PM (IST)Updated: Fri, 24 Jun 2016 04:48 PM (IST)
ईर्ष्या के कांटों के बीच प्रेम के फूल
प्रेम जीवन की जमा पूंजी है। जिस व्यक्ति के हृदय में प्रेम का फूल खिलता है, वह स्वयं तो सुवासित होता ही है, उसके आसपास का वातावरण भी प्रेममय हो जाता है। उसके सभी संबंधों में सहज भाव के साथ मधुरता आ जाती है। इसके लिए उसे कोई अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत नहीं होती। तुलना है सबसे बडा शत्रु दुनिया में सभी लोग प्रेम की भावना को महसूस करते हैं लेकिन यह अनुभूति सदा विद्यमान नहीं रहती, बल्कि शाम के सूरज की तरह जल्दी ही तिरोहित हो जाती है। ऐसा तब होता है, जब हम अपने मित्रों, संबंधियों और यहां तक कि अजनबियों से भी अपनी तुलना या उनके साथ किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं। ऐसी मनोदशा में हम प्रेम को भूल जाते हैं और ईर्ष्या से भर उठते हैं। दूसरों से अपनी या अपने परिवार की तुलना करने की आदत ही इंसान के मन में छिपा सबसे बडा शत्रु है। हमें जल्द से जल्द उसे निकाल कर बाहर करना चाहिए, तभी हमारे मन के उपवन में खुशियों के फूल खिलेंगे। क्या है सच्ची सफलता हमारे हृदय में खिला प्रेम का फूल प्रतिस्पर्धा की पथरीली दीवारों से टकरा कर ईर्ष्या का रूप धारण कर लेता है। प्रेम के फूल के आसपास ईर्ष्या के कांटे उग जाते हैं। हृदय की संवेदनशीलता और प्रेम की मधुरता प्रतिस्पर्धा की संवेदनहीनता और ईर्ष्या की कटुता में परिवर्तित हो जाती है। हमारे जीवन की सुख-शांति और रचनात्मकता पर विध्वंस हावी हो जाता है। प्रतिस्पर्धा करने वाले को ऐसा आभास होता है कि वह जिससे प्रतिस्पर्धा करता है, उससे वह बहुत आगे बढ सकता है। बहुत लोग तथाकथित सफलता भी हासिल कर लेते हैं लेकिन ऐसी जहरीली उपलब्धि से कहीं अधिक मूल्यवान जीवन में कुछ और भी होता है, जिससे वे वंचित रह जाते हैं। आख्रिर वह क्या है जो कामयाबी और शोहरत से भी अधिक मूल्यवान है? पहचानें प्रेम की कीमत अगर इस सवाल का जवाब सिर्फ एक शब्द में दिया जाए तो वह प्रेम है, जो व्यक्ति की आत्मा का भोजन है। हमारी आत्मा पोषित और विकसित होती है प्रेम से। प्रेमपूर्ण व्यक्ति आत्मवान होता है। ठीक उसी तरह, जैसे एक खिला हुआ फूल अपनी सुगंध को बिना किसी शर्त के सबके साथ बांटता है। जब किसी व्यक्ति का मन इस आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुंच जाता है तो उसके संपर्क में रहने वाले लोगों की चेतना भी ऊपर की ओर उठती है। ऐसे मनुष्य चेतना के जगत में पर्वतराज हिमालय के शिखरों जैसे हैं, जिनमें अहिंसा, सत्य, प्रेम और करुणा के अद्भुत फूल खिले हैं और पूरी दुनिया उनकी सुगंध से सुवासित हो उठी। बांटने से बढेगा प्यार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन की एक घटना उल्लेखनीय है, इसका जिक्र ओशो ने भी अपने एक प्रवचन में किया है। टैगोर को जब नोबेल पुरस्कार मिला और उसे लेकर वह कलकत्ता लौटे तो वहां के कुछ बुद्धिजीवी रवींद्रनाथ के प्रति ईर्ष्या से भर गए। ऐसा ही एक व्यक्ति, जो किसी अखबार का संपादक भी था, इतना जल-भुन गया कि रवींद्रनाथ का स्वागत करने के लिए जूतों की माला लेकर पहुंच गया लेकिन उसे गुरुदेव की संवेदनशीलता का अनुमान नहीं था। टैगोर ऋषितुल्य व्यक्ति थे। वह फूलों की माला छोड कर उस व्यक्ति के पास गए और कहा कि अब ले ही आए हो तो पहना भी दो। वह आदमी लज्जा से भर गया। वह जूतों की माला पटक कर भाग खडा हुआ तो टैगोर ने उसमें से एक जोडी चुन ली, जो उनके पैरों के बराबर की थी और वह उसे पहन कर चल पडे अपने घर की तरफ। उन्होंने कहा कि इस व्यक्ति ने ठीक ही किया, मेरे जूते रास्ते में खो गए थे, वह आदमी सही वक्त पर ले आया, मुझे जूतों की दुकान पर जाने के झंझट से मुक्त कर गया। गुरुदेव का यह व्यवहार प्रेम की सुगंध से भरा है, जिसमें ईर्ष्या को रूपांतरित करने की कला और संवेदनशीलता है। जिस व्यक्ति के पास जो है, वह वही तो बांट सकता है। जूतों की माला पहनाने आए व्यक्ति के पास ईर्ष्या, क्रोध और घृणा थी और वह उसी को देने आया था। टैगोर के पास विकसित चेतना, उदार हृदय, क्षमा, करुणा और संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुण थे, जिनका मिला-जुला रूप ही प्रेम कहलाता है। इसीलिए वह आजीवन प्रेम बांटते रहे। बांटने से प्रेम में अभिवृद्धि होती है, हृदय विस्तीर्ण होता है। इसके विपरीत जिसके पास ईर्ष्या है, यही नकारात्मक भावना उसके हृदय को संकुचित कर देती है। ऐसे व्यक्ति को पहले Hate Attack आते हैं, जो जल्द ही heart attack में बदल जाते हैं। ईर्ष्या दूसरों को कम, स्वयं को अधिक जलाती है। समझें प्रेम की गहराई प्रेम का अर्थ समझाते हुए ओशो कहते हैं, प्रेम की बडी कुशलता यह है कि यहां लेने वाला भी कुछ देता है और देने वाला तो देता ही है। जब तुम किसी को कुछ देते हो और अगर वह स्वीकार कर लेता है तो उसने भी तुम्हें मालिक बना दिया। उसने तुम्हें दाता बना दिया। अब और क्या चाहते हो? तुमने जो दिया, वह कुछ नहीं था। उसने जो दिया, वह बहुत ज्य़ादा है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ऐसी परंपरा है कि पहले दान दो, फिर दक्षिणा दो। दक्षिणा का अर्थ है, उसने तुम्हारा दान स्वीकार किया तो इसका भी धन्यवाद दो। अकेले दान से काम नहीं चलेगा। पहले तुम दो तो सही, लेकिन यह जरूरी थोडे ही है कि दूसरा व्यक्ति उस दान को सहजता से स्वीकार ले। हो सकता है, वह लेने से इनकार कर दे तो फिर ऐसे में तुम क्या करोगे? प्रेम की अभिव्यक्ति से पहले भी व्यक्ति के मन में यह सवाल जरूर उठता है। कठिन है डगर पनघट की प्रेम का पहला कदम ही जोखिम से भरा है। इसका सबसे पहला जोखिम यह है कि जब तुम दूसरे को अपना हृदय देने जाते हो तो इंकार भी हो सकता है। अगर दूसरे ने स्वीकार किया तो केवल तुमने ही कुछ नहीं दिया बल्कि दूसरे ने स्वीकार करके तुम्हें भी बहुत कुछ दे दिया। प्रेम में लेने वाला भी देने वाला है और देने वाला तो दाता है ही। प्रेम की बडी अपूर्व महिमा है। वहां दोनों दाता हो जाते हैं। इससे बडा जादू और कहीं भी घटित नहीं होता। यहां गणित के सारे नियम टूट जाते हैं क्योंकि वहां अगर एक दाता होगा तो दूसरा लेने वाला होगा। अगर एक का हाथ ऊपर होगा तो दूसरे का नीचे लेकिन प्रेम दोनों हाथों को समान स्तर पर ला देता है। यहां दोनों ही दाता बन जाते हैं और लेने वाला जो देता है, वह देने वाले से भी बडा है। इसलिए प्रेम गणित और अर्थशास्त्र की सीमाओं से परे है। वास्तव में यह सुंदर भावना थोडी-थोडी रहस्यमय भी है। कई वर्षों से ओशो विचारों के प्रचार-प्रसार में लगे स्वामी चैतन्य कीर्ति ने ध्यान और जागरूकता की अलग-अलग स्थितियों पर काफी काम किया है। समय-समय पर इस बारे में लिखते रहे हैं। इसके अलावा वह विभिन्न कार्यशालाओं के माध्यम से जन-जागरण का कार्य भी कर रहे हैं। संप्रति : संपादक, ओशो वल्र्ड, पुणे अध्यात्म स्वामीचैतन्यकीर्ति

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