कम होते फासले
आपाधापी का यह दौर लोगों से उनके मन का सुकून छीनता जा रहा है। शायद यही वजह है कि आज की युवा पीढ़ी अपने परिवार और रिश्तों के बारे में ज्यादा संजीदगी से सोचने लगी है। इसी सुखद सामाजिक बदलाव पर सखी की एक नज़र।
आपाधापी का यह दौर लोगों से उनके मन का सुकून छीनता जा रहा है। शायद यही वजह है कि आज की युवा पीढी अपने परिवार और रिश्तों के बारे में ज्यादा संजीदगी से सोचने लगी है। इसी सुखद सामाजिक बदलाव पर सखी की एक नजर।
शानदार करियर, लग्जरी अपार्टमेंट में फोर बेडरूम फ्लैट, महंगी कार, अच्छा बैंक बैलेंस, ब्रैंडेड कपडे, छुट्टियों में विदेश यात्रा... पर इसके आगे क्या? इतना सब कुछ हासिल करने के बाद भी मन उदास क्यों होता है? रात भर नींद क्यों नहीं आती? आख्िार जिंदगी से हम और क्या चाहते हैं? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है हमारे मन का अकेलापन। पैसे से हम महंगा बेड और मैट्रेस खरीद सकते हैं, बेडरूम में ए.सी. भी लगवा सकते हैं, पर कई बार ये चीजें भी सुकून की नींद नहीं दिला पातीं। आज की युवा पीढी मन के इस ख्ाालीपन को समझने लगी है। इसीलिए अब वह अपने सभी रिश्तों को नए सिरे से संवारने की कोशिश में जुट गई है।
दोस्त बनते भाई-बहन
आज के व्यस्तता भरे दौर में मन का सुकून ढूंढने के लिए भाई-बहन भी अच्छे दोस्त बनते जा रहे हैं। आज वे जिस तरह ख्ाुलकर अपने दिल की बातें शेयर करते हैं, बीस साल पहले उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मनोवैज्ञानिक सलाहकार गीतिका कपूर कहती हैं, 'अब परिवारों में आमतौर पर बेटे और बेटी के बीच भेदभाव नहीं किया जाता। इसीलिए आज का भाई अपनी बहन की भावनाओं को समझते हुए उसके साथ दोस्ताना व्यवहार करता है। अब वह जमाना गया जब बहनें कमजोर और निरीह होती थीं। आज कई परिवारों में ऐसी सक्षम बेटियां आसानी से देखने को मिल जाती हैं, जो आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से भरपूर हैं। ऐसी लडकियां जरूरत पडऩे पर भाई और माता-पिता की मदद करने से भी पीछे नहीं हटतीं। इसी तरह दो भाई भी सुख-दुख में एक-दूसरे के साझीदार होते हैं। अब पहले की तरह उनके मन में परस्पर प्रतिद्वंद्विता या ईष्र्या की भावना दिखाई नहीं देती क्योंकि अब उन्हें अपने जीवन में इस रिश्ते की अहमियत समझ आने लगी है।
दोस्ती देती है सुकून
रोजगार की तलाश में छोटे शहरों से महानगरों में आने वाले युवाओं के भाई-बहन और रिश्तेदार पीछे छूट गए। ऐसे में उनके पास दोस्तों का ही एकमात्र सहारा होता है, जो हर सुख-दुख में साथ निभाते हुए उनके परिवार का जरूरी हिस्सा बन जाते हैं। रिश्तेदारी के मामले में फ्रेंडशिप फैक्टर का असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस संबंध में सॉफ्टवेयर इंजीनियर कविता जैन कहती हैं, 'रिश्तेदारी में भी उन्हीं लोगों से अपनापन होता है, जिनके साथ हमारी ट्यूनिंग अच्छी होती है। जीवनशैली और विचारों की समानता की वजह से दूर के रिश्तेदारों के साथ भी हमारे अच्छे संबंध बन जाते हैं।'
गृहिणी बनी होममेकर
बदलते वक्त के साथ पति-पत्नी के रिश्ते में कई सकारात्मक बदलाव नजर आ रहे हैं। आज के पति अडिय़ल के बजाय सहयोगात्मक रवैया अपनाने लगे हैं। आज 'केयरिंग पिता के रूप में भारतीय पुरुष के व्यक्तित्व का सौम्य और स्नेहपूर्ण रूप नजर आ रहा है। इस संबंध में समाजशास्त्री
डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, 'वक्त के साथ पुरुषों को इस बात का एहसास होने लगा है कि घर संभालना भी कोई मामूली काम नहीं है। जहां पति-पत्नी दोनों शिफ्ट ड्यूटी में होते हैं वहां गाहे-बेगाहे पति को भी किचन और बच्चे संभालने की जिम्मेदारी निभानी पडती है। इसीलिए पुरुषों के मन में घरेलू कार्यों के प्रति सम्मान की भावना विकसित हुई है और अब घर संभालने वाली स्त्री को हाउसवाइफ के बजाय होममेकर कहा जाने लगा है।
सास-बहू का रिश्ता
आज की सास-बहू शोषक और शोषित की पारंपरिक छवि की कैद से पूरी तरह आजाद हो गई हैं। यह बदलाव अचानक नहीं आया, बल्कि दो दशक पहले से ही समय के साथ दोनों पीढिय़ों ने एक-दूसरे की भावनाओं और जरूरतों को समझना शुरू कर दिया था। उसी सतत प्रयास की वजह से आज उनके रिश्ते में इतना ख्ाुलापन दिखाई देता है। दरअसल शिक्षित होती पुरानी पीढी की स्त्री ने बदलते समय की नब्ज को पहचान लिया था। उसे यह मालूम था कि जीवन में ख्ाुश रहने के लिए अब हमें नई पीढी के साथ कदम मिलाकर चलना होगा। यही वजह है कि आज की कामकाजी बहू जब शाम को ऑफिस से घर लौटती है तो सास न केवल उसके लिए चाय बनाती है, बल्कि उसकी अनुपस्थिति में अपने पोते-पोतियों का भी ख्ायाल रखती है। यही वजह है कि आज की बहू कभी सास को अपने साथ शॉपिंग के लिए ले जाती है तो कभी पार्लर। दोनों एक-दूसरे की आजादी का सम्मान करते हुए साथ मिलकर घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वाह करती हैं।
इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार गीतिका कपूर आगे कहती हैं, 'आजकल ज्य़ादातर परिवारों में एक या दो ही बच्चे होते हैं। ऐसे में माता-पिता को भी इस बात का अंदाजा होता है कि अंतत: हमें इन्हीं के साथ रहना है तो फिर छोटी-छोटी बातों के लिए रोक-टोक करके बेवजह रिश्ते में कटुता क्यों लाई जाए? इसी वजह से आज के माता-पिता अपने बेटे-बहू के निजी जीवन में जरा भी हस्तक्षेप नहीं करते। संतानें भी परिवार में बुजुर्गों की अहमियत समझने लगी है। अब दोनों पीढिय़ां अपने अहं और पूर्वाग्रहों को त्यागकर, 'दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें का सिद्धांत अपना रही हैं। हालांकि, उम्र की वजह से उनकी सोच का फासला तो बना ही रहता है, फिर भी पुराने जमाने की तरह अब दोनों पीढिय़ों में टकराव नहीं दिखता। अब वह दौर ख्ात्म होता नजर आ रहा है, जब माता-पिता अपनी संतान को मनचाहा जीवनसाथी चुनने की आजादी नहीं देते थे और प्रेम-विवाह करने वाली संतान से हमेशा के लिए अपने रिश्ता तोड लेते थे। आज तसवीर पूरी तरह बदल चुकी है। आज के माता-पिता अपनी युवा संतान की पसंद को बहू या दामाद के रूप में खुले दिल से स्वीकारते हैं।
सिक्के का दूसरा पहलू
हालांकि रिश्तों की इस धूप-छांव में आत्मीयता की मीठी धूप के साथ कभी-कभी स्वार्थ की काली बदली भी देखने को मिलती है। कडी प्रतिस्पर्धा ने इंसान को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया है। पहले किसी को उदास देखकर आसपास के लोग उससे कई सवाल पूछ डालते थे, पर आज अगर कोई अपनी परेशानियां शेयर भी करना चाहता है तो लोगों के पास सुनने का वक्त नहीं होता। तभी तो आज परेशान लोगों को काउंसलर की जरूरत पडती है। समाज तेजी से आत्मकेंद्रित होता जा रहा है, पर इसका कम से कम एक फायदा तो जरूर हुआ है कि मुश्किल हालात में अगर कोई किसी की मदद नहीं कर पाता तो कम से कम उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप करके उसे परेशान भी नहीं करता। बदलाव एक सहज प्रक्रिया है और इसे रोक पाना संभव नहीं है। सच तो यह है कि हर बदलाव में कोई न अच्छाई जरूर छिपी होती है। बस, जरूरत है उसके सकारात्मक संकेतों को पहचानने की।
सखी फीचर्स