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संतुलित हो हर रिश्ता

कुछ रिश्ते सिर्फ नाम के लिए अपने होते हैं तो कुछ वाकई दिल के करीब होते हैं। कभी-कभी संतुलन बनाने के बजाय किसी रिश्ते के लिए हम बाकियों को नकारने लगते हैं, जो कि गलत है।

By Edited By: Published: Fri, 24 Jun 2016 06:07 PM (IST)Updated: Fri, 24 Jun 2016 06:07 PM (IST)
संतुलित हो हर रिश्ता

कल मामा के घर में पूजा है जिसमें तुम्हें भी चलना है... मां, मैं कैसे जाऊंगा? कल मुझे दोस्तों के साथ मूवी देखने जाना है...। दोस्तों व रिश्तेदारों के बीच चुनाव करना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता है। युवाओं के सामने अकसर ही ऐसी परिस्थिति आती है जब उन्हें दोनों में से किसी एक को वक्त देना होता है। दोनों ही रिश्ते खास होते हैं, इसलिए यह परिस्थिति उनके लिए किसी कठिन चुनौती से कम नहीं होती है। क्या है समस्या अकसर माता-पिता की शिकायत होती है कि बच्चे उन्हें व रिश्तेदारों को बिलकुल वक्त नहीं देते हैं और सिर्फ दोस्तों में ही लगे रहते हैं। वहीं बच्चों की शिकायत होती है कि उनके अभिभावक उन्हें दोस्तों के साथ एंजॉय नहीं करने देते हैं। ऐसे में दोनों के बीच मनमुटाव की स्थिति बनने लगती है जिसे जेनरेशन गैप भी कह सकते हैं। दोनों ही कोशिश करें तो इस समस्या को खत्म किया जा सकता है। जरूरी है तो एक-दूसरे को समझने की। रिश्तेदारों और दोस्तों के कारण अपने रिश्ते में परेशानी न लाएं। पेरेंट्स को समझना चाहिए कि बच्चों के लिए दोस्ती उतनी ही जरूरी होती है, जितनी उनके लिए रिश्तेदारी। वहीं बच्चों को भी पेरेंट्स की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए, हमेशा दोस्तों का सान्निध्य ढूंढने के बजाय कभी-कभी पेरेंट्स की खुशी के लिए रिश्तेदारों से भी मुलाकात कर लेनी चाहिए। दोस्त या रिश्तेदार? दोनों में से किसी एक को चुनना बहुत ही कठिन फैसला होता है। जहां पेरेंट्स के लिए उनके रिश्तेदार महत्वपूर्ण होते हैं, वहीं युवा बच्चों को दोस्ती ही अधिक समझ आती है। एक असर उम्र का है और दूसरा बदलती लाइफस्टाइल का। जानें इसकी कुछ वजहें। बच्चों को ज्यादा समय न दे पाने पर वे दोस्तों के करीब होने लगते हैं। फिर किसी रिश्तेदारी में जाने को वे अपनी मजबूरी समझने लगते हैं। रिश्तेदारों से बचपन से कम संपर्क होने पर वे उनसे कटने लगते हैं। ऐसे में अचानक से उनके घर या किसी समारोह में जाने की बातें सुनकर वे हिचकिचाते हैं। रिश्तेदारी में हमउम्र कजंस न होने पर किसी के घर जाने पर बच्चों का मन कम लगता है और वे उस समय को दोस्तों के साथ व्यतीत करना बेहतर मानने लगते हैं। उन्हें रिश्तेदारों के बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्नों से कोफ्त महसूस होने लगती है। हर बार मिलने पर एक ही तरह की बात होने से वे ऊबने लगते हैं। वहीं दोस्तों से वे अपने मनपसंद किसी भी टॉपिक पर विस्तृत चर्चा कर पाते हैं। दोस्ती में उन्हें अपने मन की बातें करने की आजादी मिलती है। वहां यह टेंशन नहीं होती है कि कोई बात शेयर करने पर घरवालों को भनक लग सकती है, जबकि रिश्तेदारों से कोई बात शेयर करने पर कभी-कभी वह इधर से उधर भी हो जाती है। कई बार बच्चे अपने जमाने और उनके जमाने के अंतर की बातों से भी विचलित हो जाते हैं। बदलाव तो निरंतर होते हैं, उसके लिए आज के बच्चों को मिल रहीं सुविधाओं या कल की असुविधाओं को कोसने से कुछ ठीक नहीं होगा। संतुलन रिश्तों का रिश्ता दोस्ती का हो चाहे परिवार का, संतुलन सबमें जरूरी होता है। अगर आज का युवा वर्ग दोस्ती को ज्यादा अहमियत दे रहा है तो उसके कई कारण हैं। कहीं आप उनके सामने रिश्तेदारों की बुराई तो नहीं करते? कहीं हर समय अपने बच्चोंकी दूसरे बच्चों से तुलना तो नहीं करते? समय के साथ कुछ बच्चों के मन में रिश्तेदारों की नकारात्मक छवि बनने लगती है और वे उनसे दूर होने के बहाने ढूंढने लगते हैं। ऐसे में पेरेंट्स की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों को रिश्तों के बीच सही संतुलन करना सिखाएं और उनके मन से हर तरह की दुर्भावनाओं को हटाने की कोशिश करें। इससे न सिर्फ वे सबकी इज्जत करना सीखेंगे बल्कि सही और गलत के बीच के फर्क को भी समझेंगे। बच्चों को भी समझना चाहिए कि हर परिस्थिति में दोस्तों का साथ ही सही नहीं होता है, उनसे आप हर मसले पर बातें तो कर सकते हैं पर हमउम्र होने के कारण वे आपको वह सही सलाह नहीं दे सकेंगे जो सिर्फ बडे ही दे सकते हैं। प्रश्न कैसे-कैसे रिजल्ट आ गया? आगे क्या करना है? शादी कब हो रही है? कोई पसंद है या हम लोग ढूंढें? जॉब लग गई? कितने पैकेज पर? आजकल क्या कर रहे हो? बहुत दुबले हो गए हो... खाना अच्छा नहीं मिलता क्या? हमारे टाइम पर तो कुछ था ही नहीं, तुम लोग तो सुविधाओं के धनी हो। हैं न? दोस्तों के साथ खुशी मुझसे अगर दोनों के बीच किसी एक को सिलेक्ट करने को बोला जाए तो मैं अपने दोस्तों को अहमियत दूंगा। मैं जब भी रिश्तेदारों के साथ होता हूं तो उनके क्वेश्चंस से परेशान हो जाता हूं। मुझे उनसे कोई परेशानी नहीं है पर सबकी एक जैसी जिज्ञासाओं को शांत करते हुए मैं बोर होने लगता हूं। दोस्तों के साथ मुझे अपना व्यवहार बनावटी नहीं करना पडता है... जैसा हूं, वैसा ही रहता हूं। हम एक जैसा सोचते हैं, इसलिए समान रुचि के विषयों पर नॉलेजेबल चर्चा भी कर पाते हैं।(ब्रजेश मिश्र) मैं जब जिसके साथ होती हूं, वैसे ही ढल जाती हूं। दोनों के बीच बैलेंस बनाना जरूरी होता है। सबकी अपनी अहमियत होती है। किसी के लिए दूसरे को इग्नोर नहीं कर सकते। जहां मुझे समझ आता है, वहीं बोलती हूं। रिश्तेदार हों या दोस्त, किसी के भी फिजूल के क्वेश्चंस को अवॉइड कर देती हूं। इससे शांति बनी रहती है। अगर किसी रिश्तेदार का नेचर मुझे कम पसंद होता है तो मैं घरवालों को बता देती हूं। मैं कोशिश करती हूं कि दोनों को ही समय दे सकूं। (सोनम अग्रहरि) दीपाली पोरवाल


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