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दया नहीं मौके चाहिए: इरा सिंघल

वह मस्त, ख़्ाुशदिल और सकारात्मक सोच वाली लड़की हैं। परिस्थितियों से शिकायतें करने के बजाय उन्हें बदलने का हौसला रखने वाली इरा सिंघल के लिए राहें आसान नहीं रहीं। यूपीएससी परीक्षा में पहली महिला टॉपर बन कर इरा ने एक नया इतिहास रचा है। उनके संघर्ष, सपनों और उम्मीदों को

By Edited By: Published: Mon, 27 Jul 2015 02:33 PM (IST)Updated: Mon, 27 Jul 2015 02:33 PM (IST)
दया नहीं मौके चाहिए: इरा सिंघल

वह मस्त, ख्ाुशदिल और सकारात्मक सोच वाली लडकी हैं। परिस्थितियों से शिकायतें करने के बजाय उन्हें बदलने का हौसला रखने वाली इरा सिंघल के लिए राहें आसान नहीं रहीं। यूपीएससी

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परीक्षा में पहली महिला टॉपर बन कर इरा ने एक नया इतिहास रचा है। उनके संघर्ष, सपनों और उम्मीदों को लेकर हुई एक लंबी बातचीत।

देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में उत्तीर्ण होना कइयों के लिए सपना होता है, लेकिन इरा सिंघल ने इसमें पहली महिला टॉपर बनकर नया इतिहास रच दिया है। सहज, स्पष्ट, पारदर्शी, आत्मविश्वास से भरपूर 31 वर्षीय इरा एक नज्ार में किसी भी आम लडकी जैसी दिखती हैं, लेकिन इस कामयाबी के पीछे मेहनत और संघर्ष के वे कई साल छिपे हैं, जिन्होंने इरा की शख्सीयत को मज्ाबूत बनाया है। बचपन से ही उन्हें स्कॉलियोसिस यानी स्पाइन संबंधी समस्या थी, लेकिन इससे उनकी हिम्मत टूटी नहीं। इरा से दिल्ली स्थित उनके घर पर लंबी बातचीत हुई। उसके कुछ अंश।

इरा, आइएएस टॉपर बनने पर आपको बधाई! सबसे पहले बताएं कि इस फील्ड में आने के बारे में कब सोचा?

ये तो बचपन में ही सोच लिया था कि आइएएस, आइएफएस या डॉक्टर बनना है, पर रास्ता थोडा घूम कर लिया मैंने। दरअसल मैं सोशल सर्विस में आना चाहती थी और इसके लिए यही तरीका सही लगता था।

आपने इंजीनियरिंग की, एमबीए किया, फिर प्रशासनिक सेवा में आ गईं?

हां, मैंने कहा न कि रास्ता घूम कर लिया मैंने। मेरी स्कूलिंग मेरठ से हुई। फिर दिल्ली में लॉरेटो कॉन्वेंट और आर्मी पब्लिक स्कूल से पढाई हुई। बीटेक व एमबीए किया। लगभग दो साल नौकरी की। पहली बार आइएएस एग्जैम्स में बैठी थी तो कोचिंग भी की। इस बार मेरा चौथा प्रयास था। मैंने बचपन से ही सोचा था कि समाज के लिए कुछ करना है। लोगों को सिस्टम की शिकायतें और आलोचना करते देखती थी। मेरी सोच थोडी अलग है। मुझे कुछ बुरा लगता है तो मैं ख्ाुद पहलकदमी लेकर उसे ठीक करने की कोशिश करती हूं। मैं जानती थी कि मैं जो भी काम करूंगी, उसमें सौ फीसद दूंगी और जहां भी रहंूगी, समाज के लिए कुछ करूंगी। यही मेरा लक्ष्य है।

...लेकिन आपने 2010 में ही परीक्षा पास कर ली थी। मेडिकल आधार पर आपको पॉज्िाशन नहीं मिली। फिर आपने कानूनी लडाई भी लडी....

जी हां, वर्ष 2010 में मैंने पहली बार एग्ज्ौम दिया और 2011 में रिजल्ट आ गया था। मैं पास थी, मगर 2012 तक मेरी फाइल घूम रही थी। मेरे भीतर बहुत धैर्य है। मैंने सोचा दोबारा परीक्षा दूंगी। फिर देखा कि कई अन्य लोगों को भी इस आधार पर पोस्टिंग नहीं मिल रही है कि वे डिफरेंट्ली एबल हैं। मैंने सेंट्रल एडमिनिस्ट््रेटिव ट्रिब्यूनल का दरवाज्ाा खटखटाया। मेरे पास फाइनेंशियल सपोर्ट था। काफी लोग तो ऐसे थे, जो केस भी नहीं लड सकते थे। मुझे लगा, शायद उन्हें कुछ फायदा हो सके। 2014 में मैंने केस जीता और मुझे इंडियन रेवेन्यू सर्विसेज्ा की ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद भेजा गया। इसी साल मैंने दोबारा परीक्षा दी और नतीजा सामने है। हालांकि मेरे केस से बािकयों को फायदा नहीं हुआ है।

स्पाइन की समस्या जन्मजात थी?

जी। मेरे हाथ-पैरों में भी शुरू से समस्या रही। जैसे-जैसे बडी हुई, स्पाइन मुडती गई। यह बीमारी आमतौर पर आनुवांशिक होती है। इसके लक्षण किसी में शुरू से दिखते हैं तो किसी में बाद में भी नज्ार आते हैं। हड्डियों की समस्या है यह। किसी बच्चे में ऐसे लक्षण दिखें तो तुरंत पीडियट्रीशियन और ऑर्थपेडिक डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए। इसके लिए ब्रेस आते हैं। मेरे पेरेंट्स शुरू में अल्टरनेटिव थेरेपीज्ा पर भरोसा रखते थे, इस चक्कर में ब्रेस छूट गया और समस्या बढती गई। बहरहाल, मैं ख्ाुद को फिट मानती हूं, मैनुअल काम भले ही कम कर सकूं लेकिन मेंटल वर्क 20-20 घंटे कर सकती हूं।

मौका मिले तो डिफरेंट्ली एबल लोगों के लिए क्या करना चाहेंगी। चर्चा है कि आपको डिसेबिलिटी संबंधी स्कीम्स से जोडा जा सकता है...।

मैं संबंधित विभागों से मिली हूं। उन्हें प्रपोज्ाल्स दिए हैं कि कैसे नीतियों में बदलाव किया जा सकता है। मैं चाहती हूं कि मेरी जैसी स्थितियां अन्य लोगों को न झेलनी पडें। समस्या यह है कि लोग शक्ल से आपके बारे में निर्णय लेते हैं। मौका दिए बिना ही आकलन कर लेते हैं। कई बार लोग दया दिखाते हैं। हमें दया नहीं-बराबरी चाहिए, मौका चाहिए। आप मौका ही नहीं देते, पहले ही मान लेते हैं कि हम काम नहीं कर सकेेंगे। सबसे पहले तो हमें इमोशनल पहलू पर काम करना है। दुनिया ऐसे लोगों को स्वीकार करे, परिवार स्वीकारे और वे ख्ाुद को स्वीकार कर सकेें। दूसरी चीज्ा है कि अगर हमें समानता पर आधारित समाज बनाना है तो उसमें सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराने होंगे। अभी तो हमारे पास इन्फ्रास्ट्रक्चर ही नहीं है। जो सुन नहीं सकते, उनके लिए साइन लैंग्वेज की व्यवस्था नहीं है, विकलांग लोगों के लिए एस्केलेटर्स और अन्य सुविधाएं नहीं हैं। सामाजिक संवेदनशीलता कम है। आपको बताऊं... मुझे बचपन में क्लेफ्ट पैलेट (मुंह के भीतर तालू की ओर कट) की समस्या था। इससे मेरी नेज्ाल वॉयस थी। लिखित परीक्षा में अच्छे माक्र्स के बावजूद कई स्कूल्स ने एडमिशन से मना कर दिया। जबकि मैं अपनी उम्र के अन्य बच्चों से ज्य़ादा जानती थी। पापा को बहुत मशक्कत करनी पडी। एक स्कूल ने कहा कि मेरे जैसे बच्चों को स्पेशल स्कूल्स में भेजना चाहिए।

संघर्ष में परिवार का सपोर्ट रहा?

मैं ख्ाुशिकस्मत हूं कि मुझे बेहद सपोर्टिव परिवार मिला। कभी एहसास ही नहीं हुआ कि मैं अलग हूं या मुझमें कोई कमी है। कई बार लोगों को घर का सपोर्ट भी नहीं मिल पाता। मैं जॉइंट फेमिली में पली-बढी। सब मुझसे बहुत प्यार करते हैं और डांटते भी हैं। खाना स्किप करने और पढाई को लेकर घर वालों से ख्ाूब डांट खाई है।

पढाई के इतर और शौक क्या हैं?

लंबी लिस्ट है। मैंने पूरी ज्िांदगी हॉबीज्ा के नाम की है। नॉवल्स, ख्ाासतौर पर फीमेल ऑथर्स को पढती हूं। प्रेमचंद को पढा है। डांस करती हूं। ऐक्टिंग का शौक है, लेकिन रट नहीं पाती, इसलिए डायरेक्शन करती हूं। ट्रैव्लिंग का शौक है। अब तक जितनी जगहें देखीं, उनमें इजिप्ट बहुत पसंद है। भविष्य में कभी एक्सप्लोरर की तरह घूमना चाहूंगी। इतिहास में बहुत रुचि है। फुटबॉल का शौक है। एस्ट्रोलॉजी और पामिस्ट्री भी जानती हूं।

आस्तिक भी हैं आप?

आध्यात्मिक हूं, लेकिन कर्मकांड नहीं करती। मैं कर्मा और रीबर्थ थ्योरी पर यकीन करती हूं। मुझे लगता है कि हम हर जीवन में कुछ सीखने आए हैं और हमारा कोई लक्ष्य है। हम सबका उद्देश्य एक नहीं है, इसीलिए हम सबकी ज्िांदगी में एक जैसी चीज्ों नहीं हो रही हैं। हम अपनी उलझनों में इतना घिर जाते हैं कि आगे नहीं सोच पाते, जबकि हमें मकसद हमेशा याद रखना चाहिए।

आपके व्यक्तित्व के सकारात्मक व नकारात्मक पहलू कौन से हैं?

मैं घबराती नहीं। मेरे भीतर बहुत धैर्य है। मैंने नकारात्मक पहलुओं पर कई साल काम किया है। अपनी कमियों को स्वीकार कर सकती हूं। हमेशा सकारात्मक रहती हूं। लोगों की मदद करना चाहती हूं, इसके लिए पहलकदमी लेती हूं। सबसे ईमानदारी से बात करती हूं। हालांकि कई बार सामने वाला इतनी बेबाकी को हजम नहीं कर पाता। कमज्ाोरी यह है कि मैं जल्दी इरिटेट हो जाती हूं।

आपकी नज्ार में सफलता क्या है?

मैं ख्ाुद को सफल नहीं मानती। पेपर दिए थे, पास हो गई। मैंने अपने लिए कुछ पैरामीटर्स बनाए हैं, जब उन पर खरी उतरूंगी, तभी ख्ाुद को सफल मानूंगी। मैं गीता में कही गई बात पर अमल करती हूं। मेहनत करें, फल की चिंता छोड दें। आइएएस में टॉप करना प्रोफेशनल स्तर पर मेरी सफलता ज्ारूर है, लेकिन इससे मैं अपनी आइडेंटिटी को जोड कर नहीं देखना चाहती। कुछ साल बाद कोई याद नहीं रखेगा कि मैंने टॉप किया था या नहीं। लोग मुझे सिर्फ मेरे कामों से ही याद रखेंगे। मेरे काम ही मेरी पहचान होंगे।

इंदिरा राठौर


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