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हमारे मूल्य हमारी ता़कत: डॉ. ईशर जज आहलूवालिया

जानी-मानी अर्थशास्त्री डॉ. ईशर जज आहलूवालिया परंपरा और आधुनिकता में पगी आज की भारतीय स्त्री की जीवंत मिसाल हैं। एक साधारण कारोबारी सिख परिवार में जन्मी, हिंदी मीडियम से स्कूली पढ़ाई करने वाली ईशर में शुरू से ही ये जज़्बा था कि वह कुछ अलग करेंगी, कुछ ख़्ास बनेंगी। सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ अंतरंग बातचीत।

By Edited By: Published: Sat, 01 Dec 2012 11:03 AM (IST)Updated: Sat, 01 Dec 2012 11:03 AM (IST)
हमारे मूल्य हमारी ता़कत: डॉ. ईशर जज आहलूवालिया

मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी डॉ. ईशर जज आहलूवालिया का व्यक्तित्व बहुत दिलचस्प है। सधी हुई स्त्री हैं ईशर। जितना जज्बा काम को लेकर है, उतना ही परिवार के लिए। पति (डॉ. मौंटेक सिंह आहलूवालिया, उपाध्यक्ष, योजना आयोग), बच्चों एवं पोतों के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। उनमें जितना जुनून समाज सुधार के लिए है, उतना ही अपने संस्कारों, नैतिक मूल्यों और परिवार के लिए भी। घर और काम के बीच कैसे तालमेल बिठाया जा सकता है, इसकी वह जीवंत मिसाल हैं। सखी की युवा पाठकों को उनसे प्रेरणा मिलेगी। एक ओर वह इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आइसीआरआइईआर) की चेयरपर्सन हैं, दूसरी ओर पूरी तरह घरेलू स्त्री, जो पति का बेहद सम्मान करती हैं। स्नेहिल मां और सास हैं तो प्यारी दादी मां भी जो दोनों पोतों के लिए पढती और गाती हैं। बचपन से ही उनमें कुछ अलग करने की चाह थी। उन्होंने जिंदगी को हमेशा एक चुनौती माना और अपनी अदम्य आत्मशक्ति के बलबूते आज इस मुकाम तक पहुंची हैं।

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अपने परिवार के बारे में कुछ बताएं।

मेरा परिवार लाहौर का था, लेकिन मेरे जन्म के समय इंदौर आ चुका था। वहां मैं पांच साल रही। फिर हम कोलकाता शिफ्ट हो गए। हम 10 बहनें थीं, मैं आठवें नंबर की थी। मेरी फेमिली बहुत कंजर्वेटिव थी, जहां माना जाता था कि लडकी को इतना ही पढाना चाहिए जिससे वह अच्छी हाउसवाइफ बन सके। मगर मुझे शुरू से ही पढाई का शौक था। क्लास में अच्छा करने से घर वाले प्रोत्साहित करने लगे। 13-14 साल की हुई तो मैंने निर्णय लिया कि पढ-लिखकर आत्मनिर्भर बनना है। शादी का तो सवाल ही नहीं उठता, वह बाद में देखा जाएगा। मेरा स्कूल मारवाडी स्कूल था, श्री शिक्षायतन, कलकत्ते में। उस समय भी लडकियों के पास इंपोर्टेड कारें होती थीं। हम उनके घर जा सकते थे, लेकिन ऐसी आजादी नहीं थी कि मूवी देख लो या घूम-फिर लो। फ्रेंड्स के साथ किताबें पढो, वह भी गर्ल फ्रेंड्स के साथ (ज्ाोर देते हुए)..। परिवार बहुत धार्मिक भी था। घर में सुबह-शाम पाठ होता था। पिता बिज्ानेसमैन थे, हालांकि बिज्ानेस अच्छा नहीं चल रहा था। इसलिए आर्थिक परेशानियां भी थीं।

आपकी स्कूलिंग हिंदी मीडियम से हुई। संस्कृत आपका फेवरिट सब्जेक्ट था। फिर इकोनॉमिक्स की ओर रुझान कैसे हुआ?

यह भी एक इंटरेस्टिंग स्टोरी है (मुस्कराते हुए)। नौंवी कक्षा में हमें विषय चुनने पडते थे। मैं मैथ्स और संस्कृत में अच्छी थी। संस्कृत पसंद थी, पर ऐसा कुछ नहीं था कि इसमें कुछ करूंगी। तभी एक टीचर आई भारती गोयनका। इकोनॉमिक्स बहुत दिलचस्प ढंग से पढाती थीं। हम हिंदी मीडियम से पढते थे। मुझे पता चला कि वह प्रेसिडेंसी कॉलेज की पढी हैं, तब मैंने निर्णय लिया कि मैं भी वहां से इकोनॉमिक्स पढूंगी। घर की ओर से कोई कहने वाला नहीं था कि डॉक्टर बनो, लॉयर बनो या इकोनॉमिस्ट बनो। वहां तो यह था कि बी.ए. कर लो, फिर शादी हो जाएगी।

प्रेसिडेंसी कॉलेज तो को-एड था। हमने सुना है कि आपके पिता नहीं चाहते थे कि आप वहां पढें तो उन्हें कैसे कन्विंस किया?

पिता को तैयार करने के लिए मैंने कई तरीके अपनाए। मैंने हायर सेकंडरी के बाद टाइपिंग सीखी थी। उस समय उनका बिज्ानेस उतना अच्छा नहीं चल रहा था। उन्हें ऐसे व्यक्ति की ज्ारूरत थी, जो उनके लेटर्स टाइप कर सके। मैं यह काम फट से कर लेती थी तो उन्हें सहूलियत होती थी। इस दौरान छोटी-छोटी बातों पर उनसे बहस भी हो जाती थी। फिर मैंने अधिकतर बातों पर बहस शुरू की। जैसे मेरी फ्रेंड्स ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी जाती थीं। जबकि मेरे पिता को मेरा वहां जाना पसंद नहीं था। फिर मैंने अपनी लडाई लडने के बारे में सोचा और प्रेसिडेंसी कॉलेज की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। मैंने उनसे कहा कि या तो मैं वहां जाऊंगी या पढूंगी ही नहीं। आख्िार में उन्होंने कहा कि अच्छा टेस्ट दे आओ, तुम्हें कोई लेगा ही नहीं (हंसते हुए)। मैं टेस्ट दे आई। हमारी एक अलग लिस्ट आई थी। चार स्टूडेंट्स को एचओडी ने अलग से बुलाया। मैं डर गई। मैं वहां गई तो उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि आप वैकल्पिक विषय के तौर पर मैथ्स लें, जबकि आपने पोलिटिकल साइंस लिखा है। मैंने कहा कि मैथ्स बहुत पढ ली, अब मैं पोलिटिकल साइंस चाहती हूं। उन्होंने कहा कि अगर प्रेसिडेंसी आना है तो मैथ्स लेनी होगी। तब मैंने तुरंत कहा, हां मैं मैथ्स ले लूंगी (हंसते हुए)। मैं प्रेसिडेंसी गई तो पिताजी के बिज्ानेस कॉन्टैक्ट्स इस बात को महत्व देने लगे, क्योंकि प्रेसिडेंसी उस समय बडी चीज थी, ख्ास तौर से बंगाली लोगों के लिए। तो पिताजी को मुझ पर गर्व होने लगा। उन्हें लगने लगा कि उनकी बेटी तो बहुत इंटेलिजेंट है। वहां मेरे प्रोफेसर्स अम‌र्त्य सेन और प्रो. सुखमय चक्रवर्ती थे। इन्होंने हमें एक टर्म पढाया था। फिर ये लोग दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आ गए थे। इस तरह मुझे यहां के बारे में पता चला। मेरा एक संबंधी भी मुझसे एक साल सीनियर था, अनुपम सिंह। वह भी प्रेसिडेंसी में पढा था और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आना चाहता था। िकस्मत ने फिर साथ दिया। तभी मेरा भाई दिल्ली आया। कुछ समय पहले ही मैं अपने पति से अनिश्चितता और रिस्क को लेकर कुछ बात कर रही थी। आप जो रिस्क लेते हैं, उसी से संभावनाओं का जन्म होता है। रिस्क में तो आप माप-तौल कर सकते हैं, लेकिन अनिश्चितता तो अनदेखी-अनजानी है। मेरे अनुभव यही कहते हैं कि अंत में सारे प्रयासों के बाद यह अनदेखा ज्िांदगी में बडी भूमिका निभाता है। मैं भाई-भाभी के साथ रहकर एम.ए. कर सकी। इसके बाद मेरे पिता ने एक बार कोशिश जरूर की कि मुझे सरदारों के सर्कल में घुसा सकें। वह चाहते थे कि मैं सरदार से ही शादी करूं। उन्हें लगता था कि कहीं मैं किसी बंगाली से शादी न कर लूं, क्योंकि मेरे सारे इंटरेस्ट इंटेलेक्चुअल थे। तो कहां से वे मेरे लिए इंटेलेक्चुअल सरदार ढूंढ कर लाते (हंसते हुए)। जब मैंने एम.ए. कर लिया तो इकोनॉमिक्स विभाग के एचओडी ऊधम सिंह का बधाई-पत्र आया। उन्हें ख्ालसा कॉलेज के लिए लेक्चरर की ज्ारूरत थी। वह चाहते थे कि मैं इसे करूं। वह मेरी हर शर्त मानने को तैयार थे। मेरे पिता ने चिट्ठी देखी तो ख्ाुश हुए कि चलो तुम एजुकेटेड सिखों के संपर्क में आओगी, अभी तक तो बंगालियों के साथ ही घूमती हो (ज्ाोर से हंसते हुए)। मैंने हिंदू कॉलेज और मिरांडा हाउस में अप्लाई किया था और ऐसे ही कुछ प्रस्ताव खोज रही थी। मेरे पिता ने कहा कि उन्हें घर बुलाओ तो वह मेरे घर आए। दोनों ने बात की। ऊधम सिंह जी ने कहा कि वह हफ्ते में दो दिन मुझे फ्री रखेंगे। मैं इंकार नहीं कर सकी और खालसा कॉलेज चली गई। मेरी ज्िांदगी में यह सर्वोत्तम बात हुई। एक तो मैं पढे-लिखे सिखों के संपर्क में आई, जैसा कि मेरे पिता चाहते थे। साथ ही, मैंने सिख धर्म का कंज्ार्वेटिव चेहरा भी देखा, जिसे न मेरे पिता जानते थे और न मैं। दूसरी यह कि वहां मुझे ऐसे छात्र मिले जो हिंदी माध्यम से पढे थे, पर बहुत बुद्धिमान थे। मैंने उनसे कहा, देखो मेरी अंग्रेजी सुनकर घबराना मत। न समझ सको तो बताओ, मैं हिंदी में समझाऊंगी। मुझे आपकी पॉलिश्ड अंग्रेजी नहीं सुननी, सही उत्तर सुनना है। टूटी-फूटी इंग्लिश में बोलोगे तो भी मैं नंबर दूंगी और अगर इंग्लिश पर फोकस कर जाओगे तो सब्जेक्ट भूल जाओगे। दरअसल प्रेसिडेंसी कॉलेज में मैंने ख्ाुद इस तनाव को महसूस किया था। जब मैं वहां गई तो कई बार ऐसी चीजें होती थीं जो मुझे समझ नहीं आतीं और पूछने में झिझक होती थी। मैं चाहती थी कि स्टूडेंट्स उस झिझक से बाहर निकल सकें। इसके बाद जब मैं पी-एच.डी. के लिए एमआइटी (यूएस) में गई तो मुझे आश्चर्य हुआ कि लोग किसी भाषा को महत्वपूर्ण नहीं मानते। यूरोपियंस भी टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलते थे, अफ्रीकंस भी। अंग्रेजी मुद्दा ही नहीं है, विषय का ज्ञान अधिक ज्ारूरी है। तब मुझे महसूस हुआ कि हमें अपने बच्चों को हिंदी या मातृभाषा अवश्य सिखानी चाहिए।

यह जो पूरा सफर है, उसमें हमें लगातार ऐसी लडकी दिख रही है जिसमें पैशन है कुछ अलग करने का। क्या आपके दूसरे भाई-बहन भी ऐसा जुनून रखते थे या अकेली आप ऐसी थीं?

कई बार आप ख्ाुद को ऐसे माहौल में पाते हैं, जहां लगता है कि आप कुछ अलग चाहते हैं। कुछ लोग इसमें रिएक्ट करते हैं। मेरे यहां माहौल परंपरावादी था। मेरे वैल्यूज्ा मिडिल क्लास के थे, उन्हें मैं आज भी संजोती हूं (भावविभोर होते हुए)। मेरी परवरिश कॉन्वेंट टाइप लडकी के हिसाब से नहीं हुई। मैं धीरे-धीरे आगे बढी, इससे मैं यह संतुलन बिठा सकी कि आधुनिकता से क्या लेना चाहती हूं और परंपरा से क्या। ..मैं अपने परिवार की ब्लैकशीप (अलग विचारों वाली लडकी) कैसे बनी, मैं नहीं जानती (हंसते हुए)। दरअसल सिर्फ शादी और घर-गृहस्थी चलाने का विचार मैं स्वीकार नहीं कर सकती थी। इसी एक बात ने मुझे आत्मनिर्भर होने को प्रेरित किया।

हमने सुना है कि यू.एस. में स्टडी के दौरान ही मौंटेक जी से आपकी मुलाकात हुई। तब आप इंट्रोवर्ट थीं..

..इंट्रोवर्ट नहीं, शर्मीली थी। आउटगोइंग थी, फ्रेंड्स के साथ बाहर जाती थी, लेकिन शर्मीली ऐसे कि सेल्फ कांशियस थी। जब आप नई जगह जाते हैं तो सेल्फ कॉन्फिडेंस कम होता है, आप शर्मीले हो जाते हैं। पति के रूप में मुझे ऐसा पार्टनर मिला जिसने मुझे पूरा सम्मान दिया। हमारी शादी के 40 साल हो गए। यह सच है कि मैं उनके साथ बदलती गई। मैं वापस आई, यूनिवर्सिटी जॉइन की। लेकिन वह थे, जो हमेशा पब्लिक पॉलिसी में जाना चाहते थे। हम दोनों पब्लिक पॉलिसी के पैशन को शेयर करते थे। मैं सचमुच उनकी ईमानदारी और सच्चाई का बहुत सम्मान करती हूं। हम दोनों मिडिल क्लास परिवार के थे। मिडिल क्लास वैल्यूज को मानते थे, लेकिन कुछ फर्क भी था। आप उनसे बात करें तो पता चलेगा कि कुछ मामलों में वह बहुत ओल्ड फैशंड मिडिल क्लास वैल्यूज्ा वाले हैं, जैसे कैसे कठिन मेहनत और ईमानदारी से काम किया जा सकता है। उनका एक दूसरा पहलू भी हैं, वह फनलविंग हैं और बहुत गंभीर भी। मैं ऐसा ही व्यक्ति चाहती थी।

तो क्या मौंटेक जी ने आपके करियर को आकार देने में बडी भूमिका निभाई?

नहीं, उन्होंने मेरा करियर नहीं गढा। मेरा करियर पूरी तरह मेरे हिसाब से बना। उन्होंने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। उन्होंने मुझे स्पेस दिया, मैंने उन्हें। एमआइटी से वापस लौटकर मैंने यूनिवर्सिटी की नौकरी ही करनी चाही। उस समय मेरे बच्चे छोटे थे और मुझे थोडा लचीलापन चाहिए था। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि मैं क्यों फ्लेक्सिबल समय चाहती हूं, बल्कि हमेशा यही कहा कि हम तुम्हारी हरसंभव मदद करेंगे। हम दोनों एक-दूसरे के स्पेस का सम्मान करते हैं। मुझे उनसे कोई बात करनी होती है तो मैं कहती हूं कि आधे-पौन घंटे का समय चाहिए, कुछ बात करनी है..। सोशल इन्गेजमेंट्स में मेरी बहुत रुचि नहीं थी। मैं सुबह जल्दी उठ कर काम करती थी और शाम को काम करती थी। आजकल मेरी लाइफ फिर से फुल सर्कल में लौट आई है। मैं दिन में 12 बजे अपने बडे पोते को उसकी नर्सरी से लाती हूं और छोटा पोता भी यहीं आता है। उनके साथ दो मेड भी रहती हैं। वे यहां खेलते-खाते हैं। मैं अपनी स्टडी में काम करती हूं। लेकिन मैं उनके साथ लंबा लंच ब्रेक करती हूं.. दो-ढाई घंटे का। मैंने अपने बेटों को भी ऐसे ही पाला है। मैं इस तरह घर-काम के बीच संतुलन बिठाती हूं। (इसी बीच फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ उनके बेटे थे। बच्चे को स्कूल से घर लाने की बात हो रही थी। ईशर जी ने उन्हें आश्वस्त किया - हां बेटा, तुम िफक्र मत करो। जब तुम्हारा फोन नहीं आता तो मैं मान लेती हूं कि बच्चे को मुझे ही लाना है। तुम निश्चिंत रहो।)

आपको इतने अवॉ‌र्ड्स मिले, पद्मभूषण मिला, सफलताओं के नए-नए मुकाम आपने हासिल किए, ऐसे में एक स्त्री,पत्नी, मां होने के नाते क्या कभी लगा कि परिवार को समय नहीं दे पा रही हैं? रिश्तों और परिवार के लिए बैकसीट लेनी पडी?

बैकसीट? बैकसीट नहीं, मैं इसे फ्रंटसीट कहूंगी। मेरा परिवार मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। बाकी सब आता-जाता रहेगा, लेकिन मेरा परिवार मेरे साथ रहेगा। मैं इसे त्याग भी नहीं कहती। मुझे अच्छा लगता है कि मेरे पति घर में सुकून से रहते हैं। जब वह किसी बिज्ाी मीटिंग से घर लौटते हैं, मैं कोशिश करती हूं कि जल्दी अपना काम ख्ात्म करके उनके साथ समय बिताऊं। तब हम इकोनॉमिक्स पर चर्चा नहीं करते।

क्या आपको लगता है कि स्त्री चाहे कितने भी बडे पद पर क्यों न हो, उसे जानना चाहिए कि करियर और परिवार के बीच कैसे तालमेल बनाए और एक मां ही बच्चे को संस्कार दे सकती है?

मुझे लगता है कि आज के नए पिता भी घर में हाथ बंटाना चाहते हैं। वैल्यूज जेनरेट करना चाहते हैं। मेरे बेटा-बहू काम करते हैं। दोनों कोशिश करते हैं कि बच्चों के साथ समय बिताएं। हालांकि यह कहना पोलिटिकली करेक्ट नहीं है (हंसते हुए), लेकिन मुझे लगता है कि एक मां का बच्चे के साथ जो रिश्ता है, वह ज्ारा ख्ास है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम बच्चों और करियर के साथ बैलेंस रखें। अगर दो लोग इतने करियर ओरिएंटेड हैं कि उन्हें इसी में ख्ाुशी मिलती है तो दोनों थोडा क्वॉलिटी समय बिताएं और करियर को भी आगे बढाएं। निश्चित रूप से यह संभव है, लेकिन सभी पर यह नियम समान रूप से लागू नहीं कर सकते। बच्चों के साथ माता-पिता का इंटरैक्शन ज्ारूरी है। मैंने शादी के छह-सात साल बाद बच्चे पैदा किए। इस बीच रिसर्च पूरी की। कई तरह के काम किए। मैं भाग्यशाली रही कि मुझे ऐसी फ्लेक्सिबल जॉब मिल सकी, मैं प्रोफेशनल संतुष्टि ले सकी और घर-परिवार को भी समय दे सकी। मुझे ये भी लगता है कि लडकी को फेमिली सपोर्ट (मैं जॉइंट फेमिली की बात नहीं कर रही) मिलना ज्ारूरी है। भारतीय समाज में यह बहुत बढिया चीज्ा है। मैं अपनी बहू के बारे में बात करूं। उसका एक बेटा दो साल 10 महीने का है, दूसरा दस महीने का। पहला पोता हुआ था तो उसने छह महीने की मैटरनिटी लीव ली थी। फिर मैंने उससे कहा कि तुम नौकरी जॉइन करो। बच्चे को मेड के साथ मेरे पास भेज दिया करो। छह महीने एक दिन की उम्र से वह यहीं आता है रोज, शाम को छह बजे वापस जाता है। अब छोटा पोता भी आता है। दोनों बच्चे यहां आते हैं। कई बार वे कहते हैं, मम्मा आप पर ज्यादा बर्डन तो नहीं पड रहा। मैं कहती हूं ये बर्डन नहीं, स्ट्रेस बस्टर हैं मेरे लिए (हंसते हुए)। मैं अपनी ज्िांदगी के हर मिनट को जी रही हूं। सुबह छह बजे से रात 11 बजे तक मेरा हर मिनट कमिटेड है। मेरे घर में बिना पूर्व सूचना के कोई नहीं आता, सबको पता है यह बात। कोई आता भी है तो मैं उसे सॉरी कह देती हूं। मैं मानती हूं कि हर स्त्री को परिवार और करियर का यह पैकेज लेना चाहिए। फुलटाइम मदर बनकर भी क्या होगा, अगर आप बच्चों को समय नहीं दे रहीं।

एक इकोनॉमिस्ट होने के नाते बताएं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में स्त्रियों की भागीदारी कैसे बढाई जा सकती है?

मैं कहूंगी कि काम के घंटे लचीले होने ज्ारूरी हैं। कई जगहों पर यह पॉसिबल है। पत्रकारिता में, सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री और थिंक टैंक्स में यह संभव है। मुझे लगता है कि स्त्रियों को संवेदनशील एंप्लॉयर चाहिए जो उन्हें लचीलापन दे सके। क्योंकि जब उन्हें यह अपराधबोध नहीं होगा कि वे ऑफिस में जाकर नहीं बैठी हैं तो उनके काम की क्वॉलिटी बेहतर हो जाएगी। इसके बाद आती है फेमिली की बात। मैं मानती हूं कि भले ही जॉइंट फेमिली का ज्ामाना चला गया, फिर भी फेमिली सपोर्ट सिस्टम तो रह सकता है। जो लोग एक ही शहर में रहते हैं, उन्हें कम से कम आसपास तो रहना चाहिए। हम भारतीयों को यह बहुत बडा फायदा है। हम संस्थाओं पर विश्वास रखते हैं।

आपने एक मुकाम तय किया है। अपनी पहचान बनाने का सुख क्या है, इसे कैसे अभिव्यक्त करेंगी?

मैं आज जो भी हूं, इसके पीछे दो लोगों का बडा हाथ है। एक हैं मेरी मां। उन्होंने मुझे वैल्यूज दिए। उन्होंने मुझे अमेरिका भेजा, बिना किसी अपेक्षा के। जिस चीज ने मुझे अपनी सीमाओं के भीतर रहना सिखाया, वह वास्तव में मेरा वैल्यू सिस्टम ही था जो उन्होंने हमें दिया और आस्था। वैसे ही वैल्यूज्ा मैं अपने बच्चों को देने की कोशिश करती हूं। बच्चे उदाहरणों से ज्यादा सीखते हैं, लेक्चर्स से उतना नहीं। मैं ख्ाुद को भाग्यशाली मानती हूं जो मुझे ऐसा पार्टनर मिला। मैं ज्िांदगी के हर स्तर पर पूरी तरह संतुष्ट हूं। इस घर में जो कुछ आप देख रही हैं, सब हमारा बनाया हुआ है। ज्िांदगी बहुत सुंदर है। .. मैं ख्ाुशनसीब हूं, कई लोगों को यह सब नहीं मिल पाता।

सखी की संपादक प्रगति गुप्ता


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