मेरी पेंटिंग्स मेरी जिंदगी
पद्मश्री से सम्मानित लेखिका अजीत कौर की बेटी हैं कलाकार अर्पणा कौर। मां ने शब्दों की दुनिया में पहचान बनाई तो बेटी रंगों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर छा गई। अर्पणा जी अपने काम के प्रति जितनी समर्पित हैं, उतनी ही अनुशासित और मेहनती भी। उनकी सक्रियता केवल कैनवस तक ही सीमित नहीं है, वह समाज में सार्थक हस्तक्षेप भी करती हैं। जागरण सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ एक अंतरंग मुलाकात।
एक बहुत कोमलहृदय और अत्यंत शर्मीली स्त्री का कला की दुनिया में अपने दम पर अपना मुकाम बनाना आंखें खोलने वाला है। इससे जाहिर होता है कि हर व्यक्ति को अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए संघर्ष जरूर करना पडता है और यह तभी हो सकता है जब अपने काम के प्रति उसके भीतर एक दीवानगी हो। अर्पणा जी के लिए कला उनकी तपस्या है, एक ऐसी तपस्या जिसके लिए उन्होंने खुद को पूरी दुनिया से अलग कर एक दायरे में बंद कर लिया है। उनका काम ही उनकी जिंदगी है। उन्हें अपने काम से ही संतुष्टि मिलती है। जीवन में अनुशासन बनाए रखने की प्रेरणा उन्हें मिलती है गुरबानी से और इसी से उनके मन को शांति भी मिलती है।
अपने बचपन के बारे में कुछ हमें बताएं कि आप कहां पैदा हुई, कैसे बडी हुई, टीन एज आपकी कहां गुजरी?
मेरी दिल्ली की पैदाइश है। मेरी मां 13 साल की थीं, जब बंटवारा हुआ। 1947 में ये लोग लाहौर से आए। नाना डॉक्टर थे और फ्रीडम फाइटर भी। पढने-लिखने में भी उनका बहुत रुझान था। बहुत लोग उनसे मिलते थे और कुछ तो घर में छिपते भी थे। मेरी मां भी एक दिन जेल गई थीं, क्योंकि वो पोस्टर्स बना रही थीं और नारे लगा रही थीं। घर में बहुत ही सात्विक माहौल था। नाना दो महीने क्लिनिक बंद करके कश्मीर में पहलगाम आया करते थे। नाना-नानी, मेरी मां और उनके छोटे भाई, साथ में एक-दो नौकर और कुली भी आते थे। लाहौर से तीन-चार दिन का सफर होता था। पहलगाम में ये लोग टेंट लगाकर लिड्डर के किनारे रहते थे और उन दिनों वहां छुट्टी ही मना रहे थे, जब पार्टीशन हुआ। पीछे मेरे नाना के बूढे पेरेंट्स और उनके सास-ससुर रह गए थे लाहौर में। उन्होंने कहा कि मुझे तो जाना है उन्हें निकालने। उज्जल सिंह ने, जो खुशवंत सिंह जी के अंकल थे और बाद में गवर्नर रहे, कहा कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा। किसी तरह नाना अपने बुजुर्गो को निकाल सके और साथ में गुरु ग्रंथ साहिब को ले आए, सिर पर उठा कर। हमारे घर में अब भी वही गुरु ग्रंथ साहिब है। उसे हम रोज पढते हैं।
आपने आगे इस विषय पर कोई सीरीज में पेंटिंग भी की थी?
हां! मैंने एक सीरीज की थी 1947 पर। (किताब से एक पेंटिंग दिखाते हुए) इसमें मैंने नाना को शेर बनाया, मधुबनी स्टाइल में, क्योंकि उन्होंने बहादुरी की। मैंने सोचा कि मैं गांधी और भगत सिंह को एक साथ पेंट करूंगी। क्योंकि उनके साधन बेशक भिन्न थे, पर लक्ष्य दोनों का एक ही था। इस तरह दोनों एक-दूसरे में मर्ज कर रहे हैं।
आपकी पेंटिंग्स में प्रकृति से गहरा जुडाव दिखाई देता है। इसकी कोई खास वजह?
पढाई के दौरान मैं शिमला में रही थी। मुझे पहाडों से बडा लगाव है। मेरे बचपन में दो महीने हम लोग शिमला से दो किलोमीटर दूर एक जंगल में जाकर रहते थे। वहां बिजली नहीं थी। उस जगह का नाम कैरीबुलां था। मां स्कूल टीचर थीं और वहां आठ रुपये प्रतिदिन पडता था। तो पहाडों से मुझे ऐसे ही गहरा प्यार होता गया और ये मेरी पेंटिंग्स में भी दिखता है।
एक पेंटर के रूप में आपको पहला ब्रेक कब-कैसे मिला?
मैंने यहां दिल्ली में एलएसआर (लेडी श्रीराम कॉलेज)से लिटरेचर की पढाई की। उसके बाद 74 में गु्रप शोज में हिस्सा लेना शुरू किया। जब मैं एलएसआर में पढाई कर रही थी, उन्हीं दिनों युवा कलाकारों के चयन के लिए पेंटिंग्स मांगी गई। मैंने अपनी तीन पेंटिंग्स भेजीं। त्रिवेणी में एक ग्रुप शो हुआ और वो सारी सिलेक्ट कर ली गई।
आपकी मां अजीत कौर ने लिटरेचर में खास स्थान बनाया, लेकिन आपने पेंटिंग की दुनिया अपनाई। कोई खास वजह?
असल में मैं बहुत आकर्षित थी रंगों के प्रति। वैसे मैंने कुछ साल तक कथक सीखा, सितार भी सीखा.. लेकिन यही एक दुनिया थी जहां मैं अपने-आपको पूरी तरह खो देती थी। आज भी मैं छह घंटे तक पेंटिंग कर लेती हूं। वही छह घंटे का समय मेरे लिए सबसे अच्छा होता है, पूरे दिन में। बाकी सारे काम उसके बाद ही करती हूं।
अपनी मां के साथ आपका बहुत गहरा रिश्ता है। आपकी कलायात्रा में उनका कैसा सहयोग रहा?
हमारी सिंगल पेरेंट फेमिली है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से आप एक-दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं। मैं बेहद शर्मीली और अंतर्मुखी रही हूं। आप अंदाजा नहीं लगा सकतीं। बचपन में कोई मेहमान आ जाता था तो मैं जाकर बाथरूम में बैठ जाती थी। मैं अभी भी बहुत अंतर्मुखी हूं। मैंने त्रिवेणी में एक शो किया। उसे देखने वालों में सूजा भी शामिल थे। उनकी पत्नी मारिया ने कहा कि मैं लंदन में आपका शो कराना चाहती हूं। उन्होंने एक स्कॉलरशिप दिलाने में भी मदद की। मैं इतनी होमसिक थी कि अपने को बिलकुल एलियन जैसा महसूस करने लगी वहां। मैं अपने देश को मिस कर रही थी.. इसका शोर, इसकी आवाजें, इसकी जगहें.. हर चीज को मिस कर रही थी। मारिया और मां ने मुझे बहुत डांटा। उन लोगों ने कहा कि तुम्हें दिल के बजाय दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए। तुम एक साल यहां रहने की कोशिश करो। क्योंकि विदेश की मुहर लगना बहुत जरूरी है कला की दुनिया में। उन दिनों सभी आर्टिस्ट विदेश जाया करते थे . पैरिस, लंदन वगैरह। मैं दो महीने में ही वापस आ गई और मुझे कभी इस बात का कोई पछतावा नहीं रहा। इसके बाद मैं 80 में बॉम्बे गई। मम्मी और मैंने वहां जहांगीर गैलरी में बुकिंग कराई। हमने कैनवसेजरोल किए, 15-16 बडे-बडे। ट्रेन में एक रोल के साथ वह सोई, एक के साथ मैं और नीचे सारे स्ट्रेचर्स। रात को मिलती थी जहांगीर गैलरी। हम लोग वहां उसके सामने ही मौजूद वाइडब्ल्यूसीए में ठहरे। सारी रात काम किया। 11 बजे गैलरी खुलती थी। हम पहुंचे तो हुसैन साहब वर्क्स की फोटोग्राफी कर रहे थे। उनकी बेटी रईसा भी साथ थीं और उन्होंने सबसे पहली पेंटिंग खरीदी। वह एक ऐसी पेंटिंग थी जिसे कोई भूल ही नहीं सकता। रेप की सच्ची घटना पर आधारित, जो पुलिस ने किया था। मैंने इस पर दो-तीन काम किए। इसमें दुष्कर्म की शिकार स्त्री लेटी पडी है और उसके कपडे झंडे की तरह फहरा रहे हैं और तीन पुलिसकर्मी वहां खडे हैं।
हमने सुना है कि 15 साल की उम्र में आपको आजादी दी गई थी अपना नाम चुनने की। तो कैसे अपने लिए यह नाम चुना?
(हंसते हुए) आप जानती हैं कि सिखों में पुरुषों और स्त्रियों के एक जैसे ही नाम होते हैं। (इस बीच उनकी सहयोगी आती हैं। मां अजीत कौर को कहीं जाना है। इसके लिए अर्पणा जी उन्हें निर्देशित करती हैं।) गौर करें तो परमजीत कौर-परमजीत सिंह, मंजीत कौर-मंजीत सिंह, अजीत कौर-अजीत सिंह.. मेरी मां अकसर कहती थीं कि क्या नाम है मेरा.. अजीत कौर। (हंसते हुए)। उन्होंने कहा कि तुम खुद अपना नाम और धर्म चुनो। नानी ने गुरु ग्रंथ साहिब में से अ अक्षर निकाला। मैं उन दिनों शिमला में पढती थी, एक क्रिश्चियन स्कूल में। मैंने अपनी मां को लिखा कि क्या मुझे अमृता या अर्पणा जैसा कोई नाम चुनना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह तुम पर निर्भर है कि क्या नाम रखना चाहती हो। बाद में मैंने समझा कि अर्पणा का अर्थ तो मंदिर में अर्पण होता है।
बचपन में आपने जो तकलीफें महसूस कीं, उसका असर आपके निजी जीवन में और कला में किस तरह से दिखता है?
(कुछ देर सोचते हुए) पेंटिंग मेरे लिए बचपन के अंधेरे पक्ष पर ध्यान देने का माध्यम बनी और यह अभिव्यक्ति देने का भी कि मैं हूं कौन? यह सवाल हर स्त्री के सामने है कि मैं कौन हूं, जीवन में मेरी भूमिका क्या है, क्या मैं एक एंटिटी हूं, या मैं फलां-फलां की बेटी, या पत्नी या मां हूं? जो लोग अपनी रचनात्मकता के जरिये खुशी हासिल करते हैं, अपने-आपकी तलाश में सक्षम होते हैं। आप केवल एक पेंटिंग ही नहीं बना रहे होते हैं, इस प्रक्रिया में स्वयं को भी बना रहे होते हैं। पेंटिंग आपको भी बना रही है। केवल आप ही नहीं है जो गाने को गा रहे हैं, गाना भी आपको गाता है। जब आप लिख रहे होते हैं तो आप अपनी खोज भी कर रहे होते हैं और इस तरह से लेखन आपका भी सृजन कर रहा होता है। यह आपको मैं यानी आपके होने का बोध दे रहा होता है कि मैं एक व्यक्ति हूं, मेरा अस्तित्व है। रचनाधर्मी लोग इस तरह से सोचते हैं कि यह एक तरीका है अपने आविष्कार का और प्रतिदिन आपके पास कुछ होता है आविष्कार के लिए। यही वजह है कि हुसैन जैसा व्यक्ति 95 साल की उम्र में बच्चों जैसा होता है। हर दिन हमारे लिए एक जन्मदिन जैसा है। जहां तक मेरा मामला है, मैं हमेशा हार्मनी में विश्वास नहीं करती। (हंसते हुए) मैं डिसहार्मनी में यकीन करती हूं। जैसे कि अपोजिट्स.. मेरा एक विषय ही है दिन और रात। मैं डुअलिटी में विश्वास करती हूं। मेरा काम फिगरेटिव है।
कहते हैं, आम तौर पर कलाकार बहुत मूडी होते हैं, एकांतप्रिय होते हैं..
मैं तो बिलकुल मूडी नहीं हूं। मैं हार्डवर्किग पेंटर के तौर पर जानी जाती हूं। मेरा जीवन बहुत अनुशासित है। मैं दस बजे तक सोने चली जाती हूं, शुरू से ही। कभी डिनर के लिए बाहर नहीं जाती। इधर-उधर के आयोजनों में भी नहीं जाती। लोगों को अपने यहां डिनर के लिए भी नहीं बुलाती।
.. तो आप एकांत पसंद करती हैं?
असल में मैं सिर्फ सुबह की ओर देखती हूं। मैं मॉर्निगपर्सन हूं। अगर रात में देर तक जागूंगी तो सुबह का लुत्फ कैसे ले सकूंगी? सुबह उठकर ईश्वर को धन्यवाद देने के बाद किचन की खिडकी से ही मैं उगते सूर्य को देखती हूं। सूर्य से भी प्रार्थना करती हूं और उन्हें भी एक और दिन के लिए धन्यवाद देती हूं। फिर मैं गुरु ग्रंथ साहिब में से कम से कम एक पेज प्रतिदिन पढती हूं। जैसे कि आज भी मैंने नामदेव और कबीर के पद पढे। जिसमें कबीर की बात तो बहुत ही ह्यूमरस थी (मुस्कराते हुए) उसमें कहा गया था कि हे भगवान हम आपकी प्रार्थना करते हैं। आप मुझे दो सेर घी दे दें, रजाई दे दें। ये सब चीजें मिल जाएं तो मैं आपकी भक्ति अच्छी तरह से कर सकूंगा। कबीर बहुत छोटी-छोटी चीजों की मांग करते हैं। नामदेव भी ऐसी ही कुछ बातें करते हैं। नामदेव नवीं सदी में थे। वह नानक से पांच सौ साल पहले थे और महाराष्ट्र से हैं। उनकी कविताएं गुरु ग्रंथ साहिब में हैं। जब मैं वॉकिंग कर रही होती हूं, उसी समय सिमरन भी चलता रहता है.. फिर लौटती हूं तो पेंटिंग शरू कर देती हूं। आम तौर पर सुबह 7 बजे, जाडे के दिनों में चूंकि ठंड होती है तो करीब साढे सात बजे शुरू कर पाती हूं। आठ वर्षो से मैंने अपना लैंडलाइन फोन नहीं उठाया। मोबाइल मैं रखती ही नहीं। टीना (अर्पणा की सेक्रेटरी) का नंबर ही सबके पास है। मेरे पास एक रिकॉर्डिग मशीन भी है। उसे मैं दिन में दो-तीन बार सुनती हूं और रिटर्न कॉल कर लेती हूं। जब मैं पेंटिंग कर रही होती हूं तो हमेशा संगीत सुनती हूं। जैसे आज मैं आबिदा परवीन का हीर सुन रही थी। कभी गुरबानी सुन लेती हूं। काम के समय हमेशा संगीत चलता रहता है। आम तौर पर मेरे पास एक दिन में एक ही विजिटर होता है।
माना यह जाता है कि क्रिएटिव वर्क्स की कोई प्लानिंग नहीं होती। कभी आपको ऐसा लगा है कि एकदम से कोई विचार आया और आप कैनवस के पास खिंची चली गई?
ना-ना, मेरे साथ ऐसा बिलकुल नहीं है। क्योंकि मैं सीरीज में काम करती हूं। जैसे यह जो दिन-रात का सीरीज है (एक चित्र की ओर संकेत करते हुए) इस पर मैं 18 साल से काम कर रही हूं। पर्यावरण सीरीज अभी तक कर रही हूं। इसे मैंने 1988 में शुरू किया था। यह मेरे लिए सबसे गहरी चिंता का विषय है। हमने दिल्ली में पेडों को बचाने के लिए भी काफी कुछ किया। मैंने 84 के नरसंहार पर भी एक सीरीज किया है। उस दौरान मैंने विधवाओं और बच्चों के लिए राहत शिविरों में काम किया। उसे लेकर जो पेंटिंग्स मैंने बनाई, उसे वर्ल्ड गोज ऑन शीर्षक दिया।
जब आप एक सीरीज पर काम कर रही होती हैं तो क्या आपका पूरा ध्यान एक उसी विषय पर होता है?
हां, लेकिन मेरा सीरीज सीमित नहीं है। मेरी कुछ पेंटिंग्स तो टर्न अबाउट हैं। वो एक खास घटना पर आधारित है। (किताब से एक चित्र दिखाते हुए) जैसे ये देखिए। (इसी बीच मां अजीत कौर आ जाती हैं। उन्हें कहीं जाना है। उनकी सुविधा के लिए अर्पणा अपने सहयोगियों को निर्देशित करती हैं।) मैं 87 में वृंदावन गई थी, वहां के मंदिर और स्थापत्य देखने। (हैरानी जताते हुए) तब तक मुझे पता ही नहीं था कि वहां विधवाएं भी हैं। क्योंकि वृंदावन हमारे जेहन में रास की जगह है, पर वहां जो राधा कुंज है उसमें सारे पेड ट्विस्टेड थे। वो बिलकुल विधवाओं जैसे लग रहे थे। मैंने वहां से शुरू किया यह सीरीज विडोजऑफ वृंदावन। बिलकुल शुरुआती दौर में आर्थिक असमानता पर भी पेंटिंग्स कीं। जैसे ये है शेल्टर्ड वुमन (एक चित्र दिखाते हुए)। अपने मुल्क में सोशियो-इकोनॉमिक डिस्पैरिटी लगातार बढती जा रही है। लेकिन, आप सब कुछ बदल नहीं सकते। आप ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि जो लोग आप के आसपास हैं, उनकी मदद कर सकते हैं। इसी सोच के साथ 37 साल पहले हम लोगों ने गरीब बच्चों के लिए स्कूल शुरू किया था। हमने सरकार या किसी विदेशी संस्थान से कोई मदद नहीं ली। हम अपनी कमाई से इसे चला रहे हैं।
एक इंसान और एक आर्टिस्ट होने के नाते आपने जो चाहा, क्या आपको लगता है कि वो आपने पा लिया? और अपनी पहचान बनाने का सुख क्या है?
बिलकुल। उससे कहीं ज्यादा। लेकिन, अपनी पहचान बनाने का काम मैंने बहुत सचेत ढंग से नहीं किया। मैं कई बार मूर्तिकला की ओर जाती हूं, कभी-कभी किताबों के लिए इलस्ट्रेशन भी करती हूं, जैसे मैंने खुशवंत सिंह की किताब के लिए इलस्ट्रेशन तैयार किया। कभी-कभी दूसरे माध्यमों पर भी काम करती हूं। जैसे मैंने कई सार्वजनिक स्थलों पर भी काम किए हैं। प्रगति मैदान में भित्तिचित्र बनाए थे, जब मेरे काम बिक नहीं रहे थे।
ये जो आपका पैशन और जुझारूपन है, वो कहां से आया?
मेरा खयाल है कलाकारों को यह प्रकृति का वरदान है। वास्तव में कला आपको एक तरह का किक देती है। उमंग से भर देती है। ये एक नशे की तरह है। मुझे किसी और नशे की जरूरत नहीं है। मेरे लिए यही मेरा एल्कोहॉल है।
नई पीढी के कलाकारों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगी?
यह पीढी कहीं ज्यादा भाग्यशाली है। अब दिल्ली में ही सौ से ज्यादा गैलरीज हैं। लेकिन आपके अंदर कला को लेकर एक पैशन होना चाहिए, अनुशासन होना चाहिए। तभी आप इस दुनिया में सफल हो सकते हैं।
सखी की संपादक प्रगति गुप्ता